अग्नि और सोम के परस्पर प्रत्यावर्तन का अनूठा प्रयोग

March 1997

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शरीरशास्त्री और मनोविज्ञानवेत्ता यह बताते हैं कि नर-नर का सान्निध्य, नारी-नारी का सान्निध्य मानवी प्रसुप्त शक्तियों के विकास की दृष्टि से इतना उपयोगी नहीं, जितना भिन्न वर्ग का सान्निध्य है । विवाहों के पीछे सहचरत्व की भावना ही प्रधान रूप से उपयोगी है । सच्चे सखा-सहचर की दृष्टि से परस्पर हँसते खेलते जीवन बिताते पति पत्नी यदि आजीवन काम सेवा न करें तो भी एक दूसरे के मानसिक एवं आत्मिक अपूर्णता को बहुत हद तक पूरा कर सकते हैं । मनुष्यों में न जाने क्यों ऐसी रहस्यमय अपूर्णता है कि वह भिन्न वर्ग के सहचरत्व से अकारण ही अपनी तृप्ति एवं शाँति अनुभव करता है । अविवाहित जीवन में सब प्रकार की सुविधाएँ होते हुए भी एक उद्विग्नता, अतृप्ति और अशाँति बनी रहती है । विवाह के बाद एक निश्चिन्तता सी अनुभव होती है । साथी की प्रगाढ़ मैत्री का विश्वास करके व्यक्ति अपनी समर्थता दूनी ही नहीं दस गुनी अनुभव करता है । एकाकी जीवन में जो शून्यता थी उसकी पूर्ति तब होती है जब यह विश्वास बन जाता है कि हम अकेले नहीं दूसरे साथी को लेकर चल रहे हैं जो हर मुसीबत में सहायता करेगा और प्रगति के हर स्वप्न को रंग भरेगा । यह विश्वास मन में उतारते ही मनोबल चौगुना बढ़ जाता है और उत्साह भरी कर्मठता और आशा भरी चमक से जीवन क्रम का एक अभिनव उल्लास दृष्टिगोचर होता है । विवाह का मूल लाभ भिन्न वर्ग के सान्निध्य से होने वाले उभयपक्षीय सूक्ष्म शक्ति प्रक्रिया का अति महत्वपूर्ण प्रत्यावर्तन तो है ही, एक मनोवैज्ञानिक लाभ अंतरंग का एकाकीपन दूर करना और समर्थता द्विगुणित हुई अनुभव करना भी उज्ज्वल भविष्य की संभावना का आशापूर्ण भविष्य की दृष्टि में बहुत उपयोगी है ।

काम सेवन विवाह जीवन में आवश्यकता अनुसार मर्यादाओं के अंतर्गत उपयुक्त होता रहे तो उसमें कोई बड़ा अनर्थ नहीं है पर उसे आवश्यक या अनिवार्य न माना जाये । मोटे तौर पर पति पत्नी की परस्पर मनःस्थिति वैसी होनी चाहिए जैसे दो पुरुषों और दो नारियों की सघन मित्रता होने पर होती है । सखा, साथी, मित्र, स्नेही का रिश्ता पर्याप्त है । कामुक और कामिनी की दृष्टि में रखकर किये गये विवाह घृणित हैं । रूप, रंग, शोभा, सौंदर्य के आधार पर उत्पन्न हुआ आकर्षण एक आवेश मात्र है । उस आधार पर जो जोड़े बनेंगे, सफल हो सकेंगे? रूप, यौवन की चमक को एक छोटा सा रोग बात की बात में नष्ट करके रख सकता है । रूपवान् में दोष, दुर्गुण भरे पड़े हों तो भी निर्वाह देर तक नहीं हो सकेगा । शारीरिक आकर्षण की खोज आज की विवाह सफलता का महत्वपूर्ण अंग बनती जा रही है । रूपवान् लड़के लड़कियों की ही माँग है । कुरूपों की बाज़ार दर दिन दिन गिरती जा रही है । यह प्रवृत्ति बहुत ही विघातक है । चमड़ी की चमक ही जब अच्छे साथी की कसौटी बन जायेगी तो फिर आँतरिक सत्र की उत्कृष्टता का क्या मूल्य रह जायेगा ? फिर भावनाओं की, सद्गुणों की, स्नेह-सौजन्य की कीमत कौन आँकेगा ?

चमड़ी का रंग नख-शिख की बनावट की शोभा-सौंदर्य की दृष्टि से सराहा जा सकता है । नृत्य अभिनव में उसको प्रमुखता मिल सकती है । नयनाभिराम मनमोहक आकर्षक भी उसमें देखा जा सकता है । ईश्वर की कृति के इस विभूति से प्रसन्न हुआ जा सकता है । दाम्पत्य जीवन में उसकी कोई बहुत उपयोगिता नहीं है । मिलन चमड़ी का, आँख, नाक का नहीं वरन् अंतरंग का होता है और उसकी उत्कृष्टता-निष्कृष्टता चेहरे या अवयवों की बनावट से तनिक भी संबंध नहीं रखती । हो सकता है कोई काला कुरूप व्यक्ति योगी अष्टावक्र, नीतिज्ञ चाणक्य, अपनी पांचाली द्रौपदी की तरह उच्च मनःस्थिति धारण किये हो । रूपवती नर्तकियाँ, अभिनेत्रियाँ, नट नायक कोई उच्च भावनाशील ही थोड़े होते हैं । बन्दीगृह में क्रूर कर्म करने के दण्ड में नर नारी आते रहते हैं । उनके कुकर्मों का विवरण सुनकर रोमांच खड़े हो जाते हैं । रूप-रंग के आवरण में उनके भीतर प्रेत पिशाच का वीभत्स नृत्य देखकर दिल दहल जाता है । विवाह का वास्तविक आनन्द और लाभ जिन्हें लेना हो उन्हें साथी का चुनाव करने में रूप रंग की बात उठाकर ताक पर रख देनी चाहिए । केवल सद्भावना, निष्ठा, सौंदर्य, व्यवस्था, उदारता, दूरदर्शिता, उत्साही और हँसमुख प्रकृति जैसे सद्गुणों पर ही ध्यान देना चाहिए । सज्जनों के बीच ही चिर स्थायी मैत्री का निर्वाह होता है । दुर्जन तो क्षण भर में बनते हैं और पल भर में शत्रु बनते देर नहीं लगती । अभी बहकावे की मीठी-मीठी बातें कर रहे थे और चापलूसी की अति कर रहे थे, अभी तनिक सी बात पर खून के प्यासे बन सकते हैं । प्रेम के जाल में ऐसे ही बहुत से लोग दूसरों को फँसाते फिरते बहुत देखे जाते हैं इसीलिए विवाह की सोचने से पहले साथी के चुनाव की कसौटी निश्चित करनी चाहिए और वह यह होनी चाहिए कि रंग-रूप कैसा ही क्यों न हो, साथी की आँतरिक स्थिति में स्नेह सौजन्य का समुचित पुट होना चाहिए । जिन्हें ऐसा साथी मिल जाये समझना चाहिए कि उसका विवाह करना सार्थक हो गया ।

काम सेवन के संबंध में उपेक्षा वृति बरतनी पड़ती है । कम ही लोग ऐसे होते हैं जिनके पास शारीरिक मानसिक आवश्यकता की पूर्ति के अतिरिक्त इतना ओजस संचित रहे जिसे क्रीडा कल्लोल में व्यय कर सके । आमतौर पर वर्तमान परिस्थितियों में लोग इतनी ही शक्ति उपार्जित कर पाते हैं जिसके आधार पर किसी प्रकार काम चलता रहें और गाड़ी लुढ़कती रहे । इस स्वल्प उत्पादन में से यौन सम्पर्क में अपव्यय किया जायेगा तो उसका सीधा प्रभाव समग्र स्वास्थ्य और जीवन यात्रा पर पड़ेगा । विषयी मनुष्य अपनी श्रमशीलता, तेजस्विता, स्फूर्ति, नीरोगता, प्रतिभा, स्मरण शक्ति, साहसिकता, स्थिरता व संतुलन आदि सभी शारीरिक, मानसिक विशेषताएँ खोते चले जाते हैं । यह अपव्यय जितना बढ़ता है उतना ही खोखलापन बढ़ता चला जाता है । अशक्ति का शिकंजा अपने गले में कसा जाना हर कामुक व्यक्ति निरन्तर अनुभव करता रहा है । यह एक प्रकार से स्वेच्छा पूर्वक हँसते खेलते मंदगति से की जाने वाली आत्महत्या ही है ।

प्रजनन जब उचित और आवश्यक हो तो उचित मर्यादाओं के अंतर्गत काम सेवन की ढील छोड़ी जा सकती है । यदि अपनी या साथी की तन्दुरुस्ती या मनःस्थिति ठीक न हो तो इस प्रकार की छेड़ छाड़ का कोई तुक नहीं रह जाता । पति-पत्नी के बीच इस प्रकार का धैर्य, संतुलन रहना चाहिए कि जब तक अति आवश्यक न हो तब तक प्रसंग को उपेक्षित ही किया जाये । साथी की अनिच्छा रहने पर उसे विवश करना एक प्रकार से बलात्कार जैसा ही अपराध है, भले ही वह वैवाहिक साथी के साथ किया गया हो । कानून भले ही उसे दण्डनीय न माने पर नैतिक दृष्टि से उसे निर्लज्ज बलात्कार ही कहा जायेगा । ऐसा प्रसंग जिससे साथी का मन रोष या क्षोभ भर जाये निश्चित रूप से कामुक पक्ष के लिए हर दृष्टि से हानिकारक सिद्ध होगा । क्षणिक उद्वेग शाँत करके जितनी प्रसन्नता पायी गयी थी, कालान्तर में उसकी प्रक्रिया अनेक गुनी अप्रसन्नता की परिस्थितियाँ लेकर सामने आवेगी । अस्तु हर समझदार पति-पत्नी की आदि से अंत तक ऐसी मनःस्थिति विनिर्मित करनी चाहिए कि कोई किसी को कठिनाई, क्षति या असमंजस में न डाले । दाम्पत्य जीवन के बीच ब्रह्मचर्य की निष्ठा का जितना प्रभाव होगा उतना ही पारस्परिक सद्भाव प्रगाढ़ होता जायेगा और वह लाभ मिलेगा जिसे प्राप्त करना विवाह का मूल प्रयोजन है ।

ज्ञानेन्द्रियों का उभयर्वादित उपयोग यौन रोग उत्पन्न करता है । विशेषतया नारी को तो इससे अत्याधिक हानि उठानी पड़ती है । औसत नारी महीने में एकाध बार से अधिक काम क्रीड़ा का दबाव सहन नहीं कर सकती । प्रजनन की दृष्टि से हर बच्चे के बीच कम से कम पाँच वर्ष का अंतर होना चाहिए । जल्दी-जल्दी बच्चे उत्पन्न करने और काम क्रीड़ा का अधिक दबाव पड़ने पर नारी अपना शारीरिक ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य भी खो बैठती है । दैनिक काम क्रीड़ा का स्वरूप हँसी, विनोद, मनोरंजन, चुहल, छेड़छाड़ तक सीमित रहे तभी ठीक है । हर्षोल्लास बढ़ाने वाले, छुटपुट क्रिया कलाप चलते रहें तो चित्त प्रसन्न रहता है । परम घनिष्ठता बढ़ती है और सान्निध्य का मनोवैज्ञानिक ही नहीं काम प्रयोजन भी पूरा हो जाता है । यौन सम्पर्क को यदा कदा के लिए ही सीमित रखना चाहिए । आये दिन की इस विडम्बना में फँसकर मनुष्य अपना स्वास्थ्य ही नष्ट नहीं करता, प्रतिक्रिया के आनन्द से भी वंचित हो जाता है । कामुक व्यक्ति घटिया और उथला ही आनन्द ले पाते हैं । उसमें जो ऊँचे स्तर का उल्लास है, उसे प्राप्त करने के लिए देर तक की संग्रहित शक्ति होनी चाहिए । जिन्हें यौन रोगों से बचना हो उन्हें इस प्रकार की सतर्कता बरतनी चाहिए ।

इस सन्दर्भ में यह समझ लिया जाये कि जननेन्द्रियों का सीधा संबंध मस्तिष्क से होता है । वहाँ जो गड़बड़ होगी उसका सीधा प्रभाव मस्तिष्क पड़ेगा । मनोविज्ञानवेत्ताओं के अनुसार उचित समय पर उचित काम सेवन को अवसर न मिलने पर जहाँ अपस्मार मूर्छा, भूत-प्रेत अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, स्मरण शक्ति की कमी, सिरदर्द, हृदय रोग आदि रोग उत्पन्न होते हैं । वहाँ अति काम सेवन भी ऐसे ही उद्वेग उत्पन्न करता है । लम्पटों का शरीर जितना क्षीण होता है, मन उससे भी अधिक विक्षिप्त असंतुलित रहने लगता है । अनेकों मानसिक रोगों से ग्रस्त उन्हें पाया जायेगा जिन्होंने काम सेवन की दिशा में अति बरती । इस प्रकार का दुरुपयोग यों तो दोनों के लिए हानिकारक है पर नारी को काम क्रीड़ा के उच्छृंखल उपयोग को खुली छूट नहीं मान लेनी चाहिए और उस संदर्भ में वैसी ही सतर्कता, उपेक्षा बरतनी चाहिए जैसी कि अविवाहित-जीवन में बरती जाती है । इस शक्ति संग्रह का सर्वतोमुखी प्रतिभा और व्यक्तित्व विकास पर सीधा असर पड़ता है । सुहागिन की अपेक्षा विधवाएँ अथवा कुमारियाँ अधिक तेज शरीर और स्फूर्तिवान् पाई जाती हैं । इसका कारण उसकी अंतःशक्ति का अनावश्यक क्षरण न होना ही प्रधान कारण है । इस लाभ से विवाहितों को भी वंचित नहीं होना चाहिए ।

काम सेवन का वैज्ञानिक स्वरूप यह है कि शरीरों की विद्युत शक्ति का इस प्रयोग द्वारा अति द्रुत गति से प्रत्यावर्तन होता है । मानवीय विद्युत की मात्रा शरीर में पाई जाती है पर उनका भण्डार चेतन संस्थान में ही देखा पाया जाता है । यौन संस्थान की नाव में बिजली आकृति मात्रा में भरी रहती है । जैसे ही जननेन्द्रियाँ निकट आती हैं वैसे ही प्रसुप्त शक्ति का विनिमय होने लग जाता है । ऋण विद्युत धारा धन की ओर दौड़ने लगती है । इस सम्मिलित एवं प्रत्यावर्तन का ही वह परिणाम है कि जो काम सेवन के आनन्द के रूप में उस क्षण का अनुभव किया जाता है । यह विशुद्ध रूप से प्राण और रवि शक्ति के अग्नि और सोम में परस्पर प्रत्यानुवर्तन की अनुभूति है । यह प्रयोग अति महत्वपूर्ण है कि उसमें जहाँ व्यक्तियों का विश्वास हो सकता है, पर जिसके शरीर में क्षीण प्राण है वह साथी को क्षति नहीं पहुँचा सकता है कि दोनों शारीरिक दृष्टि से न सही प्राण शक्ति की दृष्टि से समान स्तर आ जायें ।

वेश्या शरीर का क्षरण करते रहने पर भी अपना रूप सौंदर्य बनाये रखती है इसका कारण शरीर शास्त्री नहीं बता सकते । इसका उत्तर प्राण विद्या के ज्ञाताओं के पास है । वे मनस्वी कामुक की शक्ति चूसती रहती हैं और जिस स्थिति में सामान्य गृहस्थ नारी मृत्यु के मुख में जा सकती थी, उस स्थिति में भी अपने चेहरे पर चमक और शरीर में स्फूर्ति बनाये रहती हैं । यदि उसके प्रेमी घटिया स्तर के या रोगी या मूर्ख स्तर के हों तो फिर उनका स्वास्थ्य कभी भी फिर स्थिर न रहेगा । यों शरीर की दृष्टि से युवाकाल में नर नारियों में बिजली अधिक रहती है इसी, से उनका आकर्षण युवा वर्ग के साथ काम सेवन की लालसा सँजोये रहता है । शरीर में विद्युत शक्ति है तो पर थोथी और घटिया स्तर की पाई जाती है । स्वस्थ और सुन्दर व्यक्ति भी यदि मनोबल की दृष्टि से घटिया है तो उसे इस संदर्भ में अशक्त माना जायेगा । कुरूप और ढलती आयु का व्यक्ति भी उसके आँतरिक स्तर पर अनुरूप प्रबल प्राण रख सकता है । असलियत यह है कि शरीर की स्थिति में प्राण क्षमता का संबंध बहुत कम है । किसी भी आयु की मनःस्थिति के अनुरूप प्राण की प्रबलता या न्यूनता हो सकती है और उसका लाभ हानि साथी को भोगना पड़ सकता है ।

यों ब्रह्मचर्य सभी के लिए उचित है, पर प्राण सम्पन्न उच्च व्यक्तियों के लिए तो बहुत ही आवश्यक है । वे इस प्रकार का व्यक्तिक्रम करके अपनी प्रगति को ही रोक देंगे । साथी को उतना लाभ न मिलेगा जितनी स्वयं को क्षति उठानी पड़ेगी । इसीलिए ब्रह्मचर्य की महत्ता असंदिग्ध है । प्राण को संचित करते रहा जाये और यदा-कदा उनका उपयोग काम क्रीड़ा में कर लिया जाये तो साथी की सहायता की दृष्टि से भी समर्थ पक्ष की भी यही बुद्धिमत्ता होगी । कामुक व्यक्ति बाहर से ही चमक दमक के भले दिखें, भीतर से खोखले होते हैं और वे जिससे भी सम्पर्क बनाते हैं उसी की शक्ति चूसने लगते हैं । लम्पट व्यक्ति के साथ दाम्पत्य जीवन बनाकर उसका साथी शारीरिक और मानसिक क्षति ही उठा सकता है । क्षीण प्राण वाला व्यक्ति समर्थ पक्ष की कुछ सहायता नहीं कर सकता । ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी ही अपनी विशेष विद्युत धाराओं से एक दूसरे को लाभान्वित कर सकते हैं, जिससे प्रबल शक्ति प्रवाह का लाभ दोनों ही पक्ष अपनी अपनी आवश्यकता की पूर्ति और अतृप्ति निवारण के लिए कर सकें ।

संतान उत्पादन के सत्परिणाम संयम शीलता पर निर्भर हैं । कामुकता की दिशा में अति करने वाले दाम्पत्य कुछ ही दिनों में अपनी जननेन्द्रियों की मूल सत्ता खो बैठते हैं । ऐसे पुरुष को नपुंसक और नारी को बंध्या होते देखा जाता है । गर्भ रहे तो गर्भपात होने, दुर्गुणी, रोगी, अविकसित संतान उत्पन्न कर सकते हैं । समर्थ संतान के लिए जिस परिपक्व शुक्र की आवश्यकता है, उसका निर्माण ब्रह्मचारी जीवन से ही संभव है । पुष्ट शरीर वाले युवक युवती मिलकर पुष्ट शरीर वाले बालक को जन्म दे सकते हैं । पर उनकी मनःशक्ति, बुद्धिमत्ता एवं तेजस्विता अपूर्ण ही रह जायेगी । आँतरिक समस्त विशेषताएँ और विभूतियाँ प्राण शक्ति से संबंधित है । प्राण का परिपाक ब्रह्मचर्य हो सकता है । इसलिए जिन्हें आँतरिक दृष्टि से मेधावी, प्रतिभावान और दूरदर्शी संतान अपेक्षित हो उन्हें अपनी अंतः सविता की सुरक्षा एवं परिपुष्ट का ध्यान रखना चाहिए । यह उपलब्धि अधिक संयम से ही प्राप्त कर सकना संभव है । इसीलिए गृहस्थ रहते हुए भी ब्रह्मचारी की स्थिति बनाये रहकर अपना, अपने साथी और भावी संतान का भविष्य उज्ज्वल बनाने की बात सोचनी चाहिए । काम सेवन क्षुद्र मनोरंजन के लिए, इन्द्रिय तृप्ति के लिए नहीं करनी चाहिए । उसका सदुपयोग उसे प्राण प्रत्यावर्तन द्वारा एक दूसरे के अभावों को पूर्ण करने में या जाना चाहिए । यह प्रयोजन केवल प्राणवान और प्रबुद्ध पति-पत्नी ही मिलकर कर सकते हैं । अपने देश, समाज और वंश का मुख उज्ज्वल कर सकने वाली संतान उत्पन्न कर सकना हर किसी के वश की बात नहीं है । इसके लिए इन्द्रिय संयम की साधना करनी पड़ सकती है और प्राण को परिपुष्ट करने वाली सत्प्रवृत्तियों से भरा पूरा व्यक्तित्व बनाना पड़ता है । वस्तुतः सुयोग्य संतानोत्पादन भी एक साधना है जिसके लिए संयमी ही नहीं मनस्वी भी बनना पड़ता है । दो वस्तुएँ बनने से तीसरी मिलने की प्रक्रिया रसायन कहलाती है । केमिस्ट्री इस विज्ञान का नाम है । रज और वीर्य मिलने से भ्रूण की उत्पत्ति होती है

और नौ महीने की अवधि पूरी करके वही भ्रूण बालक के रूप में प्रसव होता है ।------------------- स्थूल गर्भधारण या प्रजनन हुआ । इसके अतिरिक्त भी एक प्राण प्रत्यावर्तन होता है जिसे अनेकों अवसरों पर अनेक रूपों में देखा जा सकता है । शिष्य के प्राण में गुरु अपना प्राण प्रतिष्ठित करके उसको प्रतिभा, मेधा और विद्या में प्रखर बनाता है । यह कार्य स्कूली मास्टर नहीं कर सकते, वे बेचारे मात्र जानकारी दे सकने वाले पाठ भर पढ़ा सकते हैं । वह शिक्षा जो शिष्य को गुरु के समान प्रखर बना दे, केवल तपस्वी गुरुओं द्वारा ही संभव हो सकती है । योगी अपने साधकों को शक्तिपात करते हैं, वे अपनी तपशक्ति शिष्य को देकर बात की बात में उच्च भूमिका तक पहुँचा देते हैं । मरणासन्न रोगी को रक्तदान देकर पुनर्जीवन प्रदान किया जा सकता है इसी प्रकार दुर्बल प्राण को सबल प्राण बना सकने का कार्य शक्ति प्रत्यावर्तन जैसी प्रक्रिया ही सम्पन्न करती है । काम सेवा का ऊँचा स्तर यही है । यह बच्चे पैदा करने के लिए नहीं, दो प्राणों के समन्वय से एक नवीन प्रतिभा विकसित करने के लिए किया जा सकता है । सतोगुणी और सौम्य दम्पत्ति एक प्राण साधना के रूप में काम सेवन करते भी हैं तो इसका प्रयोजन एक अद्भुत प्रतिभा को जन्म देना होगा जो आवश्यकता अनुसार एक या दो शरीरों में पैदा की जा सकती है । यह उच्च स्तरीय शिशु जन्म है । एक काम सेवन अभिशाप या वरदान हो सकता है । विष को भी यदि संशोधन करके भेषज बना लिया जाये तो वितायक न रह कर संजीवनी मूरि बन सकता है । काम प्रक्रिया को विष बनाकर अपने मरण का साज न सँजोयें, बल्कि उसे अमृत बनाकर दो व्यक्तियों के असाधारण उत्कर्ष एवं विश्व कल्याण में कर सकने में समर्थ एवं प्राण प्रयोजन सिद्ध करें । यह पूर्णतः अपने वश की बात है और अपनी बुद्धिमत्ता व दूरदर्शिता पर निर्भर है।


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