जिसने जीवन-लक्ष्य को बेधा

March 1997

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राजगढ़ के महाराजा भद्रसेन एक कुशल योद्धा, न्यायप्रिय एवं दयालु शासक थे। वे वह अपनी प्रजा को जितना प्यार करते थे प्रजा भी उन्हें उतना ही प्यार करती थी। समीपवर्ती राज्यों के राजा उनकी ख्याति से जलते थे। राजगढ़ के दरबार में विद्वानों, योद्धाओं तथा विभिन्न कला के विशेषज्ञों को विशिष्ट स्थान प्राप्त था ।

इन्हीं में से एक भा------------------ अचूक निशानेबाज अप्रतिम समरेन्द्र रणबाँकुरा योद्धा होने के साथ वह एक उदार हृदय तथा स्वाभिमानी युवक था। उसकी निशानेबाजी आस -पास के सभी राज्यों में प्रसिद्ध थी, जिसे सुनकर दूर-दूर के निशानेबाज समरेन्द्र से मुकाबला करने के लिए आते थे लेकिन सभी को निराशा ही हाथ लगती क्योंकि समरेन्द्र का निशाना अचूक होता था ।

एक दिन दरबार में एक आदमी आया और बोला - “महाराज ! मैं समरेन्द्र के साथ निशानेबाजी का मुकाबला करना चाहता हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि मैं उसे पराजित करने में सफल हो जाऊँगा।” राजगढ़ नरेश भद्रसेन ने विस्मय से उसे देखा । साथ ही दरबार के सभी सदस्य उसे अचरज भरी नजरों से देखने लगे। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि आखिर इस दुबले-पतले शरीर वाले युवक को क्या हो गया है जो यह समरेन्द्र जैसे अचूक निशानेबाज से मुकाबले की बात कह रहा है।

“क्या तुम्हें पता नहीं है कि पास-पड़ोस के सभी राज्यों के बेहतरीन निशानेबाज भी समरेन्द्र के साथ मुकाबला करने से कतराते हैं।” महाराजा भद्रसेन गम्भीर होते हुए बोले।

मुझे पता है कि महाराज ! लेकिन मैं उन निशानेबाज में से नहीं हूँ, जो दूसरे की शोहरत सुनकर डर जाते हैं। मुझे एक बार मौका दीजिए मुझे पूरा यकीन है कि समरेन्द्र मेरे सामने टिक नहीं पाएगा।

“ठीक है, लेकिन अगर तुम हार गए तुम्हें कड़ी सजा मिलेगी।” राजा ने कहा ।

“हाँ महाराज, मंजूर है ।”- युवक के स्वर में पर्याप्त दृढ़ता थी।

एक निश्चित तिथि पर दोनों को उपस्थित होना था।

प्रतियोगिता के लिए समरेन्द्र ने भी जमकर अभ्यास किया, प्रतियोगिता का प्रचार - प्रसार भी पड़ोसी देशों के राजा भी आए । लाखों की संख्या में भीड़ इकट्ठी हो गयी । ठीक समय पर दोनों निशानेबाज मैदान में उतरे । समरेन्द्र ने झुककर महाराज को--------------- भद्रसेन ने घोषणा की- “ जो भी उस धागे से लटके फल को लगातार दो बार गिरा देगा वही विजेता होगा।”

सभी को विश्वास था कि समरेन्द्र ही बाजी मारेगा । साधने की बारी उस युवक की आयी उसने निशाना साधा, बाण छोड़ा बाण ठीक उस धागे में लगा जिसमें फल बँधा हुआ था और फल नीचे गिर पड़ा ।पहला निशाना कामयाब देखकर सभी तालियाँ बजाने लगे। खुद राजगढ़ नरेश भी निशाने को देखकर विस्मित हो गए थे । लेकिन युवक का दूसरा निशाना खाली गया । तीसरी बार प्रयास करने पर भी वह विफल रहा । इस तरह युवक का निशाना एक ही बार कामयाब रहा।

अब बारी समरेन्द्र की थी। लोगों को पूर्ण विश्वास था कि बाजी अब उसी की झोली में चली जाएगी । उसने धनुष-बाण उठाकर निशाना साधते हुए बाण छोड़ा, लेकिन उसका पहला निशाना बेकार गया पहली बार समरेन्द्र का निशाना खाली जाते देख सभी लोग हैरत में पड़ गए। खुद राजा को भी विश्वास नहीं हो रहा था । इधर समरेन्द्र ने अपने धनुष पर दूसरी बार तीर चढ़ाया । अबकी बार उसने काफी साधकर बाण छोड़ा लेकिन उसका यह वार भी खाली गया । समरेन्द्र का जीवन में पहली बार ऐसा प्रदर्शन था। लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही समरेन्द्र, है जो अपनी आँखों में पट्टी बाँधकर अचूक लक्ष्य बेध करता है। लेकिन समरेन्द्र के चेहरे पर दुःख की कोई रेखा न थी । उसने तीसरी बार कोशिश की लेकिन यह भी बेकार गयी

तीनों बार में वह एक बार भी सही निशानेबाजी न कर सका । इसके बावजूद उसके चेहरे पर आश्चर्यजनक सन्तुष्टि के भाव थे ।

महाराजा भद्रसेन को समरेन्द्र के हारने का दुःख था किसी तरह पुरस्कार बाँटकर वह भारी मन से महल में लौटा आए । उन्हें अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि अचूक निशानेबाज समरेन्द्र हार गया है । काफी विचार करने पर भी जब वे कुछ समझ नहीं पाए तो उन्होंने उसे बुलाने का आदेश दिया कुछ ही पल में वह उनके सामने था ।

“ये सब कैसे हो गया समरेन्द्र ? तुम एक साधारण व्यक्ति से कैसे हार गए।” महाराज का गला रुंधा हुआ था।

“महाराज ! वास्तव में वह एक निपुण निशानेबाज था। मैंने पहले कभी वैसा निशानेबाज अपनी जिन्दगी में नहीं देखा ।” समरेन्द्र थोड़ा अटकते हुए बोला।

“ समरेन्द्र सब कुछ साफ- साफ बताओ वरना...”

भद्रसेन क्रोधित होते हुए बोले ।

“तो सुनिए महाराज ! मैं एक दिन नगर भ्रमण कर रहा था, तभी वह मुझसे मिला और अपने घर की दयनीय स्थिति बताते हुए अपने घर चलने का आग्रह करने लगा। उसकी बीमार माँ दवा के बिना बिछावन पर पड़ी कराह रही थी । बच्चे भूख के मारे रो रहे थे। तब मैंने ही वहाँ बैठकर इस प्रतियोगिता की योजना बनायी । क्योंकि वह यदि बहुत अच्छा नहीं तो काफी अच्छा निशानेबाज तो है ही और इसके बाद की सारी बातें आपने अपनी आँखों से देखी है।

पूरी घटना सुनकर महाराज की आँखें सजल हो गयीं वे उसे गले लगाते हुए बोले - “धन्य हो तुम किसी की कराहती हुई माँ और रोते हुए बच्चों को देखकर तुम्हारे मन में इतनी दया उमड़ आयी कि तुम जानबूझकर हार गये - अपनी चिर अर्जित ख्याति को पल भर में मिट्टी में मिला दिया।”

नाम-यश के झूठे मोह से मानवीय संवेदना का मोल कही अधिक है महाराज ! मानवीय जीवन का लक्ष्य आत्मीय संवेदना का विस्तार है । पीड़ितों की सेवा में स्वयं का उत्सर्ग है मैंने वही करने की कोशिश की है।” समरेन्द्र की वाणी भावोद्रेक में काँप रही थी।

“सचमुच तुमने जीवन लक्ष्य का बेध किया है।” महाराज की भी आँखें भर आयी।


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