शाश्वत काल है, परमात्मा

March 1997

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गीता के ‘विभूति’ योग में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - अहमेवाक्षयः कालो यानि कि मैं शाश्वत समय हूँ। समय की शाश्वत धारा में सभी कुछ क्षीण होता है। परिवर्तित होता रहता है, सिवाय परिवर्तन के। बदलाव के अलावा सब कुछ बदल जाता है, जो कुछ इस पल है, वही अगले पल नहीं रहता। तभी तो यूनानी दार्शनिक हेराक्लाइट्स ने कहा था कि एक नदी में दो बार उतरना संभव नहीं। भला कैसे उतरेंगे नदी में दो बार ? क्योंकि जब हम दूसरी बार नदी में उतरने जायेंगे नदी बह चुकी होगी। नदी के जिस जल का हमने पहली बार स्पर्श किया था, अब दूसरी बार उसका स्पर्श किसी भी तरह मुमकिन नहीं है। नदी बह रही है और बहने का नाम ही नदी है। बहाव सतत् है, प्रवाह शाश्वत है, किन्तु जल परिवर्तनशील है।

जीवन की नदी वैसी ही सतत् है। उसमें भी कुछ उसी तरह का बहाव है। जिन्दगी है। जिन्दगी में भी दुबारा उसी जगह पर खड़ा हो पाना असंभव है। पहली देखी गयी चीज को दोबारा देखना संभव नहीं। लेकिन हमें भ्रम होता है, हम सोचते हैं रोज सुबह वही सूरज निकलता है। उसी तरह सूरज में जलती आग की लपटें भी प्रतिपल बदलती रहती हैं। शाम को जब हम एक दिया जलाते हैं तो सुबह बुझाते हुए सोचते हैं कि उसी साँझ वाले दिये को बुझा रहे हैं। परन्तु यह तो हमारी भ्रान्ति है। साँझ को दिया जलाया था, वह तो हर क्षण बुझता रहा है। उसकी लौ तो हर पल आकाश की अनन्तता में विलीन होती रही है। पुरानी लौ के स्थान पर नयी लौ प्रतिष्ठित होती गयी, मगर सब इतनी जल्दी हुआ कि हम इसे समझ न सके।

श्राँत को सोते समय हम आप नहीं थे, जागने पर वहाँ नहीं है। शायद ही हमने कभी विचार किया हो कि माँ के पेट में हमारी जो तस्वीर थी, अगर आज उसे हमारे सामने रख दिया जाये तो हम उसे संभवतः देखकर आँखें घुमा लेंगे और फिर एक दिन हमारे शरीर को जलकर नष्ट भी होना है। श्मशान में एक छोटे से राख के ढेर में बदलना है। यदि वही राख का ढेर आज हमारे सामने रख दिया जाए, तो भी हम शायद मानने को तैयार न होंगे कि हमारा ही भविष्य है। भला भरोसा कैसे हो सकता है ? हम तो यही सोचेंगे, कहाँ मुझ जैसा विद्वान धनी या गुणी अथवा फिर ख्याति प्राप्त सुप्रसिद्ध व्यक्तित्व और कहाँ यह राख की ढेरी ?

लेकिन असलियत यही है। हम समय की शाश्वत धारा में प्रतिपल वह वह रहें हैं। इस बहाव का प्रत्येक क्षण एक घटना है, वस्तु नहीं। घटना का मतलब है प्रक्रिया। इस संसार में प्रक्रिया है। सब कुछ घटित हो रहा है। प्रवाह है। इस प्रवाह के बीच यदि कोई चीज शाश्वत है तो वह काल। जगत की इस प्रक्रिया में आज कोई चीज अपरिवर्तित है तो वह है स्वयं परिवर्तन। सुनने से बड़ी उलट बाँसी लगती है लेकिन जीवन के सभी गहरे सत्य उल्टे ही हैं। तभी तो जिन्दगी की सच्चाइयों का महात्मा कबीर ने अपनी उलटबाँसियों में बखान किया है। अब इसी को लें, यदि कोई चीज कभी नहीं मरती तो वह स्वयं मृत्यु है। एक मात्र चीज जिसका क्षय नहीं होता, वह समय है। शायद इसी कारण मौत ‘काल’ कहलाती है और अनहोनी ‘अकाल’।

सब बदलता है समय की वजह से। हालाँकि कहते यही हैं कि समय बदलने वाला है पर वस्तुतः बदलती परिस्थितियाँ है इसी लिए कृष्ण के समय में अक्षय और शाश्वत कहा है। महावीर ने तो आत्मा का नाम ही समय रख दिया। भारतीय मनीषी ने मृत्यु और काल को एक इसलिए माना कि दोनों शाश्वत हैं। जरा ध्यान से विचार करें तो समझ आयेगा मृत्यु भर है। यथार्थ में हम समय के द्वारा निरन्तर कटते रहते हैं। हालाँकि कहते यही हैं कि हम समय को काट देते हैं जबकि पूरी तरह समय हम सबको काट देता है तो इस घटना को हम मृत्यु कहते हैं। इसके अलावा मृत्यु और कुछ नहीं है। काल के बहाव में हम रोज कण-कण बह रहे हैं। जिस रोज पूरे बह जाते हैं, उसी दिन कहते हैं कि मौत हो गयी। समय हम में से हर किसी को हर क्षण बहाए लिये जा रहा है। हम बहते हैं यह सोचकर हम हर क्षण आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन आगे बढ़े या नहीं इसकी कसौटी भली समय है। समय ही जीवन मूल्यों का निर्माण करता है। इन्हीं मूल्यों को पोषित करने के लिए समाज में परम्पराएँ, रीति-रिवाज रखे जाते हैं। कार्ल मैनहोम जैसे विचारक भी यह मानते हैं कि श्रेष्ठ समाज वही है जिसकी परम्पराएँ समय के अनुरूप हैं।

समय की वेग धारा को रोकने का कोई उपाय नहीं है। यह अनिवार्य नियत है। जो काल प्रवाह से लड़ने की कोशिश करेगा। वह और जल्दी नष्ट होगा। तो फिर क्या करें ? समय की शाश्वत धारा के साथ एकता साधें। शाश्वत काल के साथ एकता का मतलब है स्वयं परमात्मा से एकता। क्योंकि परमात्मा ही शाश्वत काल है - अहमेवाक्षयः कालो।

इस एकता का व्यवहारिक मतलब है कि युग की चुनौती स्वीकार करना। बिना अपने पूर्वाग्रह-दुराग्रह के, युग की माँग के लिए जुट पड़ना। इस बात को अच्छी तरह से दिलों दिमाग में बिठा लेना कि समय की पुकार स्वयं भगवान की पुकार है। समय तो परिवर्तन ला रहा है, उसके अनुरूप स्वयं को तैयार करना, औरों को तैयार होने में मदद करना। साथ ही इस बात का ध्यान रखना है कि एक बार में हमें केवल एक ही क्षण मिलता है। बीता क्षण लौट कर वापस नहीं आता है। हममें से कोई भी समय को धोखा दे सकने समर्थ नहीं, फिर वह चाहे कितना बड़ा धनी वैज्ञानिक तपस्वी यों योगी क्यों न हो।

जो समय साधना कर सका, यानि समय की शाश्वत धारा से स्वयं को एक कर सका व उसे अपना शाश्वत स्वरूप प्रदान करता है, वह जगत के घटना क्रमों में अपनी उचित एवं उपयुक्त भूमिका का निर्वाह करता हुआ शाश्वत आनन्द में निमग्न हो जाता है। संसार में जितने भी श्रेष्ठतम व्यक्ति हुए हैं, उन्होंने निष्ठा पूर्वक समय की साधना करके ही उपलब्धियाँ, विभूतियाँ अर्जित की हैं, परमानन्द ब्रह्मानन्द पाया है।


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