अपना अपना चुनाव

March 1997

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दोनों की परिस्थितियाँ एक जैसी थी। दोनों एक ही गाँव के आस पास झोपड़ी बना कर रहते थे। माता पिता के देहान्त के बाद उन दोनों का गुजारा जंगल की लकड़ियाँ काट कर बेच लेने से हो जाता था। परिस्थितियों की इस समानता के बावजूद उन दोनों की रुचियों, प्रवृत्तियों, विचारों, आकांक्षाओं में पर्याप्त अंतर था।

एक शाम वे जंगल से लकड़ियाँ लेकर जा रहे थे, उनमें से एक ने कहा - काश ! हम भी कुछ पढ़े लिखे होते, शास्त्रों का अध्ययन चिंतन किया जाता तो जिन्दगी का स्वरूप कुछ और होता।

क्या बेकार की बात करते हो विवेक! पढ़ाई लिखाई तो अब हमें क्या करना। भगवान से प्रार्थना करो कि कही से गढ़ा हुआ धन मिल जाये जिससे बाकी जीवन आराम से बीत सके, वैभव हमेशा की तरह उसकी बात काट कर बोला।

अचानक किसी आदमी की तेज चीख सुनकर वे चौक पड़े, लगता है कोई मुसीबत में है, हमें उसकी सहायता करनी चाहिए विवेक बोला और वे लकड़ी के गट्ठे वही एक ओर रखकर अपनी कुल्हाड़ी लेकर चीख की दिशा में दौड़ पड़े। वहीं कुछ दूर जाकर उन्होंने एक भयानक दृश्य देखा। शिकारी के समान दिखने वाले एक व्यक्ति पर एक चीते ने आक्रमण कर दिया था। शिकारी बुरी तरह छटपटाते हुए चीख रहा था।

उन्होंने तुरन्त आगे बढ़कर चीते पर कुल्हाड़ी का वार किया। अचानक हुए इस वार से चीता घबरा गया और घायल हो कर जंगल की ओर भाग गया। अब दोनों घायल व्यक्ति को लेकर गाँव की ओर चल पड़े। उसी वक्त घायल व्यक्ति को ढूँढ़ते हुए कोई सिपाही जैसा व्यक्ति वहाँ पहुँच गया।

“ वे रहे महाराज! महाराज आप ठीक तो हैं।”

पास आते ही उनमें से एक ने पूछा।

“ हाँ अब हम ठीक ही है। यदि ये बहादुर युवक हमें न बचाते तो न जाने हमारा क्या हाल होता।”

शिकारी जैसे व्यक्ति ने कराहते हुए उत्तर दिया।

“शाबाश नौजवानों ! अपने राज्य के महाराज के प्राण बचाकर तुमने सारे राज्य पर ही उपकार किया है।” सिपाही बोला।

‘ महाराज !’ विवेक ओर वैभव दोनों ही चौक पड़े। “ हाँ हम शिकार का पीछा करते हुए अपने सिपाहियों से बिछुड़ गये थे, तभी चीते ने हम पर आक्रमण कर दिया। तुम्हारी शाबाशी केवल बहादुरी के योग्य नहीं बल्कि पुरस्कार देने योग्य भी है। कल सुबह हम तुम्हें राजमहल में आने का निमंत्रण देते हैं, वहाँ तुम्हें मुँह माँगा पुरस्कार देकर सम्मानित किया जायेगा।” शिकारी जैसे व्यक्ति ने कहा।

दूसरे दिन वे ठीक समय पर राजमहल पहुँच गये। महाराज ने सचमुच ही उनका भरपूर सम्मान किया और मुँह माँगा पुरस्कार देने के लिए कहा। “महाराज ! यदि आप प्रसन्न है तो मुझे दस हजार मुद्राएँ दे दीजिए, जिससे कि मुझे अपनी गरीबी से छुटकारा मिल सके।” वैभव ने हाथ जोड़कर कहा।

“महाराज ! मेरी अभिलाषा बचपन से सत्पुरुषों की संगति में ज्ञान प्राप्त करने की रही है। परन्तु आज तक ऐसा हो न सका। यदि आप मुझ पर प्रसन्न है तो मेरी यह इच्छा पूरी करा दें।” विवेक ने अपने मन की बात कह सुनायी।

महाराज ने वैभव को दस हजार मुद्राएँ दे दी और विवेक को राजगृह आचार्य देवल के आश्रम भेजने की व्यवस्था कर दी। विवेक से अलग होना वैभव को काफी खल रहा था, साथ ही उसे उसकी अक्ल पर तरस भी आ रहा था। चलते समय वह बोला, “अभी भी सोच ले विवेक यह तुमने क्या माँगा। अभी भी समय है महाराज से स्वर्ण मुद्राएँ माँग लो और मेरे साथ गाँव चलकर आराम से रहो।” वैभव ने अपनी सलाह प्रकट की।

“नहीं मित्र ! मैंने अपनी आवश्यकता के अनुसार ठीक ही माँगा है। ज्ञान प्राप्त के बाद मैं तुमसे मिलने गाँव जरूर आऊँगा, तब तक के लिए विदा दो।” यह कहकर विवेक ने महर्षि देवल के आश्रम की ओर प्रस्थान किया। समय, पल, क्षण, दिवस, मास, वर्ष की अपनी यात्रा पूरी करता गया। कब बारह वर्ष बीत गये पता ही नहीं चला। इस बीच विवेक ने महर्षि देवल के आश्रम में कठोर तप साधना के बाद अपना विद्याध्ययन पूरा कर लिया। तत्वदर्शी विद्वान के रूप में उसकी ख्याति चारों ओर फैलने लगी थी। जीवन के अनगिनत रहस्यों का उसने अनुभव कर लिया था।

साधना और अध्ययन पूरा कर लेने के बाद वह अपने मित्र से मिलने गाँव की ओर चल पड़ा। गाँव पहुँचकर उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वैभव अभी भी उसी टूटी फूटी कुटी में दिन बिता रहा था। “ यह क्या वैभव तुम ओर इस हालत में ?”

वैभव यकायक उसे पहचान न सका, बस हाथ जोड़कर उसके सामने खड़ा हो गया।

“ अरे ! मुझे नहीं पहचाना ? मैं विवेक हूँ तुम्हारा मित्र।”

“ विवेक तुम !” वैभव तुरन्त ही उसके गले से लिपट गया। साथ ही उसकी आँखों में आँसू आ गये।

“ क्या बात है वैभव ! तुम तो महाराज से पर्याप्त धन लेकर लौटे थे। फिर भी ऐसा ........क्या किसी ने रास्ते में स्वर्ण मुद्राएँ लूट ली थीं।” विवेक ने पूछा।

“ नहीं विवेक ! धन ने मुझे लूट लिया। समझदारी के अभाव में मैं धन का सही सदुपयोग नहीं कर सका। धन मिलने के साथ मेरे मन में कुसंस्कार मुझ पर हावी होने लगे। गलत संगति के कारण विलास प्रियता भी बढ़ी। देखते देखते सारा धन समाप्त हो गया। साथ ही चौपट हो गया स्वास्थ्य। अब तो केवल पछतावा ही बाकी बचा है।”

विवेक, वैभव की पीड़ा समझ रहा था। उसने उसे समझाते हुए कहा “ मित्र ! वास्तविक सम्पदा जीवन है। जो इसका उचित उपयोग करना सीख सका, वह संसार की उचित संपदाओं का उपयोग कर सकता है। पछतावा छोड़ो बचे हुए जीवन को सँवारने का प्रयत्न करो शेष अपने आप सँवर जायेगा।”

“ तुम ठीक कहते हो विवेक ! आज से समझ सका हूँ वैभव और विवेक की जोड़ी में विवेक का महत्व ही अधिक है और हमेशा रहेगा। तुम्हारा सान्निध्य पाकर मुझमें फिर से नव जीवन का संचार होने लगा है।


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