चमत्कारी उपलब्धियों वाली साधना - - कुछ तथ्य, कुछ अनुभूतियाँ

March 1997

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्राचीन स्मृतिकारों, पुराणों के उपदेष्टाओं ने अपने विशाल वाङ्मय में गायत्री साधना के साथ चांद्रायण महाव्रत के प्रभावों का स्थान-स्थान पर वर्णन किया है। गायत्री महामंत्र की महिमा से भी अब कोई अपरिचित नहीं रहा। किन्तु इस दोनों के संयुक्त प्रयोग से अभी भी कम ही लोग परिचित हैं।

परम पूज्य गुरुदेव ने अपने मथुरा निवास काल में वर्ष 1963 एवं 64 में इस प्रयोग का पहली बार अपने कार्यकर्ताओं को परिचय कराया था। बाद में शान्तिकुञ्ज की स्थापना होने के बाद सन 1982 में चांद्रायण सत्र आयोजित किये गये। साधकों ने इन सूत्रों में उत्साहपूर्वक भाग लिया और लाभान्वित हुए। इन शिविरों में भागीदार होने वाले परिजन आज भी उन दिनों की स्मृतियों एवं विभूतियों से पुलकित होते रहते हैं।

सामान्य क्रम में चांद्रायण व्रत को प्रायश्चित के एक विशिष्ट विधान के रूप में स्वीकृत किया गया है। स्कन्दपुराण में चांद्रायण व्रत की चर्चा के संदर्भ में युधिष्ठिर और कृष्ण का संवाद मिलता है युधिष्ठिर पूछते हैं -

चक्रायुध नमस्तेऽतु देवेश गरुणध्वज। चांद्रायण विधि पुण्यमाख्याहि भगवान मम्॥

अर्थात् चक्रायुध और गरुणध्वज धारण करने वाले भगवान कृष्ण को नमस्कार करके युधिष्ठिर ने पवित्र चांद्रायण व्रत का वर्णन करने की प्रार्थना की। भगवान ने उस महाव्रत का महात्म्य बताते हुए कहा -

चन्द्रायाणेंन चीर्णेन यतु कृतं तेन दुष्कृतम। तत सर्व तत्क्षणादेव भस्मी भवति काष्ठवत्॥

चन्द्रायण व्रत करने से मनुष्य के किये हुए पाप उसी प्रकार दूर हो जाते हैं जैसे जलती हुई अग्नि से काष्ठ जल जाता है।

अनेक घोर पापानि उपपातकमेव च। चन्दा्रयाणेन नश्यन्ति वायुना पाँसवी यथा॥

अनेक घोर पाप तथा सामान्य पाप चांद्रायण व्रत से उसी प्रकार उड़ जाते हैं, जैसे आँधी चलने पर धूल के कण।

शास्त्रकारों के उद्देश्य के अनुरूप चांद्रायण में दो प्रकार के भेद बताये हैं। कृच्छ चांद्रायण एवं मृदु चांद्रायण। कृच्छ चांद्रायण में चार प्रकार के भेद माने गये हैं - (1) पिपीलिका मध्य चांद्रायण (2) यति चांद्रायण (3) शिशु चांद्रायण (4)-------------- । इन चारों में ही 240 ग्रास भोजन एक महीने में करना पड़ता है। पिपीलिका मध्य चांद्रायण वह है जिसमें पूर्णमासी को 15 ग्रास खाकर क्रमशः एक-एक ग्रास घटाते हैं। अमावस्या व प्रतिपदा को निराहार रहकर दूज से एक ग्रास बढ़ाते हैं और इस क्रम से पूर्णिमा को पुनः 15 ग्रासों तक जा पहुँचाते हैं।

यति चांद्रायण में मध्याह्न को प्रतिदिन आठ-आठ ग्रास खाया जाता है। इसमें न किसी दिन कम किया जा सकता है और न किसी दिन अधिक। यव मध्य चांद्रायण शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होता है। अमावस्या के दिन उपवास करके शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को एक ग्रास लेते हैं। इसके पश्चात् एक-एक ग्रास बढ़ते हुए पूर्णिमा को 15 ग्रास तक पहुँचते हैं। बाद में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से एक-एक ग्रास घटते हुए अमावस्या को निराहार की स्थिति में जा पहुँचते हैं। शिशु चांद्रायण में प्रातः 4 ग्रास और सायं 4 ग्रास खाये जाते हैं यही क्रम नित्य चलता है।

इस प्रकार इन सभी कृच्छ चांद्रायणों में एक महीने में 240 ग्रास भोजन किया जाता है। ग्रास के दो अर्थ किये गये हैं। बोधायन का कहना है -

कुक्कुटाण्ड प्रमाणं यावद् वास्य मुखं विशेत्। एतं ग्रासं विजानीयुः शृद्धयर्थेकाय शोधनमः॥

अर्थात् मुर्गों के अण्डों के बराबर ग्रास माना जाये, अर्थात् जितना मुँह में समा सके उसे ग्रास कहा जाये।

शास्त्रकारों ने कृच्छ चांद्रायण के साथ कुछ और भी विधि विधानों का वर्णन किया है। उदाहरण के लिए सिर मुडाँना, साथ ही जप-हवन दान आदि का काफी विस्तार से वर्णन है। इन विधियों में जो विवरण प्राप्त होता है, वैसा कर पाना आज की स्थिति में असंभव प्रायः है। वैसे भी कृच्छ चांद्रायण का उद्देश्य भी किसी महापातक के प्रायश्चित के लिए किया गया अनुष्ठान है। इसमें शारीरिक कठोरता के साथ मानसिक तितीक्षा का पालन करके प्रायश्चित को पूर्ण किया जाता है। सामान्य परिस्थितियों में आध्यात्मिक साधना के रूप में उसकी इतनी कोई खास उपादेयता नहीं। इसके लिए मृदु चांद्रायण का महत्व कुछ विशेष है।

मृदु चांद्रायण या सामान्य चांद्रायण के साथ गायत्री महामंत्र का सवालक्ष अनुष्ठान अपने आप में साधना का अति विशिष्ट उपक्रम है। इससे होने वाले लाभ तो इतने हैं कि जिन्हें गिनाने के लिए एक लेख का कलेवर पर्याप्त न होगा। हर लाभ को स्पष्ट करने के लिए एक-एक लेख लिखना पड़ेगा। फिर भी इसके प्रभावों का अनुभव जिस रूप में स्पष्ट किया जा सकता है वे हैं, (1) बुरे प्रारब्ध या दुष्कर्मों के चक्रव्यूह का वेधन (2) पंचकोशों का शोधन एवं जागरण (3) व्यक्तित्व में सूर्य और चन्द्र या प्राण एवं रवि अथवा सोम एवं अग्नि की धाराओं का समुचित सामंजस्य। ये तीनों ही लाभ ऐसे है जो अल्प समय में मिलने वाले हैं, जिन्हें अध्यात्मवेत्ता चमत्कार से कम नहीं मानते।

सबसे पहला लाभ जिसे बुरे प्रारब्ध या दुष्कर्मों के चक्रव्यूह का वेधन कहते हैं। इस साधना में 10-15 दिन गुजरते ही अनुभव करने में आता है कि हर किसी के विगत जन्मों में जाने-अनजाने कुछ ऐसे कर्म बन पड़े होते हैं, जो वर्तमान जन्म में दुर्भाग्य बनकर सामने आते हैं। जब सच्चाई और ईमानदारी पूर्वक लाख प्रयत्न करने पर भी सफलता नहीं मिले तो यही समझना चाहिए कि कुछ दुर्योग आ गया। इस दुर्योग के समाधान के लिए समाज में ऐसे न जाने कितने टोने-टोटके जादू-मन्त्र प्रचलित हैं कि जिनसे प्रायः लाभ की जगह हानि देखी जाती है। इन तमाशों और चुटकुलों में समय गँवाने के साथ भारी धन भी गँवाना पड़ता है और मुश्किलें हैं कि जहाँ कि तहाँ खड़ी रहती हैं। चांद्रायण महाव्रत के साथ गायत्री अनुष्ठान करने वाले इस कर्म चक्र को अपने तप एवं मंत्र शक्ति से सूक्ष्म जगत में छिन्न-भिन्न कर देते हैं। इस क्रम में यदा-कदा ऐसा ही होता है कि जिस प्रारब्ध को अभी और तुरन्त भोगना है, वह यदि पूरी तरह से नष्ट नहीं भी हो पाता तो साधक के तप कवच के सामने निस्तेज अवश्य हो जाता है। लेकिन जो दुर्योग अथवा बुरा प्रारब्ध अभी सूक्ष्म में स्थूल में आने में दो तीन साल दूर है वह इस उग्र तप एवं गायत्री मंत्र की तरंगों के माध्यम से पूरी तरह नष्ट हो जाता है। साथ ही आध्यात्मिक चेतना के प्रभाव से इच्छाशक्ति के अनुरूप नये भाग्य का निर्माण होता है। सच कहा जाये तो मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है ऐसा ही तपस्वियों के जीवन के चरितार्थ होता है। जिन साधकों को तनिक सी भी अंतर्दृष्टि प्राप्त है, वे इस प्रक्रिया को स्पष्टतया प्रत्यक्ष रूप से घटित होते देख सकते हैं।

इस साधना का दूसरा प्रमुख लाभ पंचकोशों का परिशोधन एवं जागरण है। इस लाभ को प्रमुख एवं महत्वपूर्ण इसलिए बताया जा रहा है क्योंकि सच्चे साधक अपनी तप ऊर्जा को प्रारब्ध को नष्ट करने में नहीं लगाते हैं। वे तो समाधि में परमात्मा का सान्निध्य पाने के लिए अपने पंचकोशों को परिशोधित एवं जाग्रत करते रहते हैं। साधना की तनिक गहराई में प्रवेश पाने के बाद साधक बुरे प्रारब्ध को भी तप से रूपान्तरित कर लेते हैं। फिर तो असाध्य कष्ट ही तप की विभूतियाँ लुटा जाता है। पिछले दिनों विगत डेढ़ मास में मेरी अनुभूतियाँ शीर्षक के अंतर्गत इसी तत्व की चर्चा की गयी है।

पंचकोशों के जागरण एवं विकास के लिए चांद्रायण महाव्रत के साथ समन्वित की गयी गायत्री साधना जितनी प्रभावकारी एवं सुगम है उतनी कोई और विधि नहीं। इसमें वे सभी तत्व हैं जो पंचकोशों को विकसित करने के लिए आवश्यक हैं। उदाहरण के लिए अन्नमय कोश की शक्तियों के विकास के लिए चन्द्रमा की कलाओं के अनुसार घटते बढ़ते क्रम में मिर्च मसाले रहित एक समय के अस्वाद भोजन से उत्तम और कोई उपाय नहीं। यही बात प्राणमय कोश के संदर्भ में है। सहज सरल प्राणाकर्षण प्राणायाम मंत्र जाप के समय श्वास की क्रिया, लयबद्धता, साधना काल में निष्ठापूर्वक ब्रह्मचर्य एवं वाणी का दृढ़तापूर्वक संयम प्राणमय कोश की शक्तियों को विकसित एवं अभिवर्धित करने के कारगर उपाय हैं। अनुष्ठान काल में मानव प्रकृति के रहस्यों को खोजने वाली पुस्तक का स्वाध्याय, जप के समय मंत्रार्थ चिंतन, आज्ञाचक्र पर अंतःत्राटक, मनोयोग कोश की विभूतियों को तीव्र गति से जाग्रत करने में समर्थ है। जप काल में स्वर्णिम सविता का ध्यान आवश्यक है। ध्यान में साधक का सविता में समर्पण, विसर्जन, विलय की गहरी अनुभूति साधनारत व्यक्ति को बोध कराती है, ‘योऽसौसूर्यो सोऽह्मस्मि।’ यानि कि वही मैं हूँ। ध्यान की इसी गम्भीरता में रुद्र, विष्णु, ब्रह्मग्रंथियाँ भी खुलती हैं। यही विज्ञानमय कोश की विभूतियों का जागरण है। इसके बाद आनन्दमय कोश की विभूतियाँ बता सकना भले ही वाणी और शब्द से परे हों फिर भी उन्हें संकेत तो दिये जा सकते हैं जो यथार्थ में जिज्ञासु हैं। यहाँ पर इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि यदि धैर्यपूर्वक लम्बे समय तक इस लेख में प्रतिपाद्य साधना को किया जाये तो आनन्दमय कोश की विभूतियाँ भी उपलब्ध की जा सकती हैं।

इस साधना से उपलब्ध होने वाला तीसरा तत्व जो भले ही उपलब्धि की श्रेणी में न गिना जा सके किन्तु इस प्रक्रिया का सारा विज्ञान इसी में निहित है, यह है सोम तथ्यों का ठीक-ठाक संतुलन सामंजस्य। गायत्री साधना के शुरुआती दौर से गुजरने वाले साधक और कभी-कभी तो लम्बे-लम्बे समय समय तक साधना करते रहने वाले व्यक्ति भी कई तरह की शिकायतें करते देखे गये हैं, उदाहरण के लिए जी मिचलाना, चक्कर आना, सिरदर्द होना। मूलतः ये और ऐसी अनेकों तकलीफें गायत्री मंत्र की अधिकता के कारण शरीर में अचानक बढ़ जाने वाले अग्नि तत्व के कारण होती हैं। हालाँकि गायत्री मंत्र सर्वथा निरापद मंत्र है। मंत्र विज्ञान के मर्मज्ञ इस बात को जानते भी हैं। इसमें सूर्य और गुरु दोनों शक्तियों का संतुलित सामंजस्य है। विशेषज्ञों को यह भी पता है कि इसका ऊर्जावतरण भी इड़ा और पिंगला दोनों ही नाड़ियों में समान रूप से होने से सूर्य एवं चन्द्र, सोम एवं अग्नि दोनों ही तत्वों का संयोग भी समुचित ही रहता है।

जबकि गायत्री के देवता सविता की शक्ति का संदोहन यदि योगशास्त्र में गुह्य कही जाने वाली हृदय नाड़ी या हृदय द्वार से किया जाये तो स्थिति निरापद नहीं रहती है। यद्यपि ऐसा करना सुलभ नहीं है क्योंकि इसके कुछ अलग ही साधना विधान है, जो अति उच्चस्तरीय होने के कारण सर्वसाधारण की पहुँच से बाहर हैं। फिर भी इतना तो है ही कि गायत्री मंत्र ज्यादा जपने से उष्णता पैदा होती है, स्नायु भी चंचल और ऊष्ण हो जाते हैं। यह उष्णता कुछ यद्यपि हवन से भी कम होती है फिर भी इसका वैज्ञानिक उपाय यही है कि जब अग्नि तत्व की बढ़ोत्तरी हो तो सोम को आकर्षित किया जाये। चांद्रायण व्रत से वातावरण से सोम तत्व का आकर्षण तीव्रता से होता है, इससे उत्तेजित स्नायु शान्त होते हैं। स्वाभाविकता ही प्रसन्नता और उल्लास भर जाता है। अग्नि एवं सोम दोनों तत्वों का सामंजस्य होने से साधना क्रम में आने वाले विक्षेप, व्यतिरेक स्वतः शान्त हो जाते हैं।

इन चमत्कारी उपलब्धियों वाली साधना की शुरुआत कैसे करें ? पाठकों की इस जिज्ञासा के उत्तर में कहना इतना ही है कि इसे किसी भी मास की पूर्णिमा से शुरू किया जा सकता है। पूर्णिमा को पूरा आहार लिया जाये। ध्यान रहे यहाँ पूरे अहार का मतलब दोनों समय भोजन नहीं है, किसी भी एक ही समय आहार ग्रहण करना है। सुविधा सहूलियत के हिसाब से सुबह या दोपहर का समय अधिक उपयुक्त है। प्राचीन काल में तो आहार में एक ही चीज लेने का विधान था। आज की स्थिति में यदि कोई चीज चाहे तो खिचड़ी या दलिया उपयुक्त है। अधिक से अधिक दाल रोटी या फिर सब्जी रोटी यानि की दो का उपयोग किया जा सकता है।

इसमें रजोगुण या तमोगुण के तत्वों का प्रवेश निषिद्ध है यानि की मिर्च मसाले एवं नमक शक्कर का प्रयोग वर्जित है। जिनका इनके बिना किसी तरह काम नहीं चलता हो तो वे मिर्च के स्थान पर काली मिर्च, अदरक या सोंठ ले सकते हैं। स्वाद के लिए मन न माने तो आँवला या नींबू की खटाई ली जा सकती है अन्य खटाई वर्जित है। हींग, लाल मिर्च, एवं गरम मसाले पूरी तरह से त्याज्य हैं। हल्दी, धनिया एवं जीरा की उचित मात्रा आवश्यकतानुरूप ली जा सकती है लेकिन इस बात का विचार अवश्य रखे कि अन्नमय कोश परिशोधित जाग्रत करने के लिए भोजन का अधिकतम सात्विक एवं सादा होना निहायत जरूरी है।

पूर्णिमा को पूरे आहार की शुरुआत के बाद प्रतिदिन तिथि के हिसाब से उसका चौदहवाँ अंश घटाते रहा जाये। किसी-किसी पक्ष में तिथियाँ घट या बढ़ जाती हैं उसी क्रम में आहर के अंशों को भी घटा बढ़ा लेना चाहिए। चन्द्रमा की कलाओं पर इस व्रत का आधार रहने से आहार के घटाने या बढ़ाने का क्रम भी उन्हीं के अनुसार बढ़ाना पड़ता है। उदाहरण के लिए जिसने पूर्णिमा को अपने पूरे आहार के रूप में 14 कौर खाये हैं और अगले दिन प्रतिपदा की हानि होने से दूज आ गयी जो आहार की तिथि को हानि होने से 13 के स्थान पर 12 कौर हो जायेंगे। यही बात तिथि की बढ़ोत्तरी में भी लागू होती है आहार के स्थान पर दो अंशों में बढ़ेगा। अमावस्या या प्रतिपदा को चन्द्रमा न दिखाई देने के कारण उन दिनों निराहार रहना पड़ता है। दूज से पुनः 1 अंश से शुरू होकर पूर्णिमा को आहार 14 अंशों में अपनी पूर्णता प्राप्त करता है। इस व्रत में एक समय आहार उसमें भी घटत बढ़त किसी नये साधक के लिए अति कठिन पड़ सकती है, ऐसी स्थिति में वे दूसरे समय दूध, छाछ अथवा फलों का रस ले सकते हैं। लेकिन इस बात का सख्ती से ध्यान रखें कि दूसरे समय कोई ठोस पदार्थ न लिया जाये, चाहे वह फल ही क्यों न हो। चांद्रायण व्रत में एक विशिष्ट वैज्ञानिक प्रयोग है, इसे जो जितना सावधानी एवं ईमानदारी से करेगा परिणाम उतने ही आश्चर्यजनक होंगे।

व्रत काल में गायत्री उपासना की अनिवार्यता है, अन्यथा उपलब्धियाँ एवं अनुभूतियाँ भी अन्नमय कोश तक ही सिमट कर रह जायेंगी। 30 दिनों में सवालक्ष का अनुष्ठान पूरा करने के लिए प्रतिदिन बयालीस माला का जप करना होता है। जप साधना की शुरुआत का क्रम उसी तरह का है जिस तरह अपने परिजन नौ दिवसीय या चालीस दिवसीय अनुष्ठानों में करते थे। बस इतना ध्यान रखें कि इस क्रम में 42 माला का जप अनिवार्य है इसमें किसी भी छूट की कोई गुँजाइश नहीं है। षट्कर्म, गुरुदेव एवं गायत्री माता के चित्र का पंचोपचार पूजन के पश्चात् जप प्रारम्भ कर देना चाहिए। प्राणाकर्षण-प्राणायाम का अभ्यास षट्कर्म के समय भी किया जा सकता है और बाद में भी। 42 माला का पूरा जप करने में प्रायः चार घण्टे लगते हैं, प्रातः ढाई-तीन घंटे एवं सायंकाल डेढ़ घंटे लगाने से उपासना आसानी से पूर्ण हो जाती है।

ब्रह्मचर्य, भूमि या तख्ता पर सोना, अपने शरीर की सेवा स्वयं करना, हजामत, कपड़े धोना आदि कार्य स्वयं करने चाहिए। भोजन पकाने में अपना अभ्यास न हो तो माता या पत्नी की सहायता ली जा सकती है पर चाहे जिसका भी हाथ का बना भोजन उन दिनों नहीं करना चाहिए क्योंकि पकाने वाले व्यक्ति के संस्कार यदि ठीक न हुए तो अपनी मनोभूमि विकृत होगी। यहाँ एक बात बहुत ज्यादा ध्यान रखने लायक है कि साधना काल में व्यक्ति की चेतना कुछ अधिक ही संवेदनशील हो जाती है, इसलिए जहाँ अच्छे प्रभाव शीघ्र असर करते हैं वहाँ बुरे प्रभावों का भी बहुत जल्दी असर होता है, इसीलिए इन बुरे प्रभावों से जितना ज्यादा दूर रहा जा सके उतना ही अच्छा।

वैसे भी साधनाकाल में अपनी सेवा कराने की अपेक्षा सेवा करने की बात सोची जानी चाहिए। चमड़े का उपयोग भी इन दिनों वर्जित है क्योंकि आजकल 19 प्रतिशत चमड़ा हत्या करके ही उपलब्ध किया जाता है और उसका प्रयोग करने वाले के सिर पर भी आसुरी हत्या का प्रभाव पड़ता है। लकड़ी, रबड़ या कपड़े के जूते हों तो व्रत काल में प्रयोग करना चाहिए। अच्छा तो यह हो कि उन दिनों घर के वातावरण को अपनी आध्यात्मिक भावनाओं के अनुरूप बनाने की कोशिश की जाये। इतना न हो सके तो अपनी दिनचर्या में अधिक से अधिक मौन एवं स्वाध्याय को स्थान एवं महत्व देने की कोशिश करनी चाहिए।

साधनाकाल में क्रोध, क्षोभ, ईर्ष्या, घृणा आदि मनोविकारों का कोई स्थान नहीं है। ऐसा कुछ भी सोचा जाये तो चित्त की शाँति और समरसता को नष्ट करे। इन दिनों अपना दैनिक जीवन विशेष रूप से लोकहित के कार्यों में संलग्न रहना चाहिए। प्रत्येक दिन शुभ कर्मों के उपार्जन का माध्यम बने। इस साधना के प्रभाव विलक्षण एवं अद्भुत हैं। व्रत के दिनों में जल खूब लें। जल में नीबू, शहद, ग्लूकोस जैसी वस्तुएँ भी लेते रहना चाहिए। स्थिति के अनुसार पेट की सफाई के लिए एनीमा जरूर लेते रहना चाहिए ताकि उपवास के दिनों में पेट में गर्मी बढ़ने से मल सूखकर गाँठ न बन जाये। इस प्रक्रिया में अकेला शरीर ही नहीं समूचा अस्तित्व तप की आँच में पकता है। परिणाम भी उसी के अनुरूप होते हैं। शरीर को जीर्ण रोगों से छुटकारा, मानसिक विकृतियों, विक्षिप्तताओं से मुक्ति तो सामान्य बातें हैं, विशिष्टताएँ अनेकों हैं जिन्हें वही जान पायेंगे जो इस साधना को समुचित रूप से करेंगे। किसी भी महीने में एक चांद्रायण महाव्रत के साथ गायत्री साधना को समन्वित रूप से अपनाकर इससे होने वाली उपलब्धियों से परिचय पाया जा सकता है। विशिष्ट साधक अपनी स्थिति के मुताबिक़ इस क्रम को आगे भी बढ़ा सकते हैं। उचित परामर्श और मार्गदर्शन इस पत्रिका के माध्यम से गुरुकृपा से सभी को समयानुसार मिलता रहेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118