अन्दर के कपाट खोलती है - स्वाध्याय प्रक्रिया

March 1997

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बहुत बार हममें से अनेक लोग किसी को धारा प्रवाह बोलते एवं भाषण देते देख कर मंत्र कीलित जैसे हो जाते हैं और वक्ता के ज्ञान और उसकी प्रतिभा की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगते हैं और कभी-कभी यह भी मान लेते हैं कि इस व्यक्ति पर माता सरस्वती की प्रत्यक्ष कृपा है। इसके अंतर्पट खुल गये हैं तभी तो ज्ञान का अविरल स्रोत इसके शब्दों में मुख के द्वारा बाहर बहता चल रहा है।

बात भी सही है, श्रोताओं का इस प्रकार आश्चर्य विभोर हो जाना अस्वाभाविक भी नहीं है। सफल वक्ता या सामर्थ्य प्राध्यापक जिस विषय को ले लेते हैं उस पर घण्टों एक धार बोलते चले जाते हैं और यह प्रमाणित कर देते हैं कि उनको इस विषय में सांगोपांग ज्ञान है और उनकी सारी विद्या जिह्वा के अग्रभाग में रखी हुई है यह बात लगती तो वास्तव में एक चमत्कार ही है, एक सिद्धि जैसी जबकि यह कोई मांत्रिक सिद्धि नहीं होती है। यह सारा चमत्कार उनके उस स्वाध्याय का सुफल होता है जिसे वे किसी दिन भी, किसी अवस्था में नहीं छोड़ते। उनके जीवन का कदाचित ही कोई ऐसा अभागा दिन जाता हो, जिसमें मनोयोग पूर्वक घण्टे दो घण्टे स्वाध्याय न करते हों। स्वाध्याय उनके जीवन का महत्वपूर्ण अंग है और प्रति दिन की अनिवार्य आवश्यकता बन जाता है। जिस दिन वे अपनी इस आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पाते, उस दिन वे अपने तन-मन और आत्मा में एक भूख, एक रिक्तता का कष्ट अनुभव किया करते हैं। उस दिन को जीवन का एक मनहूस दिन मानते हैं और उस मनहूस दिन को अपने जीवन में कभी भी आने का अवसर नहीं देते।

यही तो अबाध तप है जिनका फल ज्ञान एवं मुखरता के रूप में वक्ताओं एवं विद्वानों की जिह्वा पर सरस्वती के वास का विश्वास उत्पन्न करा देता है। चौबीसों घण्टे सरस्वती की उपासना में लगे रहिए, जीवन भर ब्रह्ममंत्र एवं ब्राह्मी बूटी का सेवन करते रहिए लेकिन स्वाध्याय किसी दिन भी न करिये और देखिये कि सरस्वती की सिद्धि तो दूर पास की पढ़ी हुई विद्या भी विलुप्त हो जायेगी। सरस्वती स्वाध्याय का अनुगमन करती है, इस सत्य का सम्मान करता हुआ जो साधक उनकी उपासना किया करता है वह अवश्य उनकी कृपा का भागी बन जाता है।

नित्य ही न्यायालयों में देखा जा सकता है कि कोई एक वकील तो धारावाहिक रूप में बोलता और नियमों की व्याख्या करता जाता है, और कोई टटोलकर, भूलता, याद करता हुआ सा कुछ थोड़ा बहुत बोल पाता है। दोनों वकीलों ने एक समान ही वकालत परीक्षा पास की, उनके अध्ययन का समय भी बराबर रहा, पैसा और परिश्रम परीक्षा पास करने के लिए एक सा लगाया गया और न्यायालय के पक्ष प्रतिपादन का अधिकार भी समान रूप से मिला है - तब यह ध्यानाकर्षण अंतर क्यों ?

इस अंतर का और कोई कारण नहीं, एक ही अंतर है और वह है - स्वाध्याय। जो वकील धारावाहिक रूप में बोल कर न्यायालय का वायुमण्डल प्रभावित कर अपने पक्ष का समर्थन जीत लेते हैं, वह निश्चय ही घंटों स्वाध्याय का व्रती होगा। इसके विपरीत जो वकील अविश्वास पूर्वक विश्रृंखलता प्रतिपादन करता हुआ दिखलाई दे, विश्वास कर लेना चाहिए कि वह स्वाध्यायशील नहीं है।

धार्मिक अथवा अध्यात्मिक क्षेत्र ले लीजिए, कोई अमुक नित्य चार-चार बार पूजा करता है, तीन-तीन घंटे आसन लगाता है, जाप करता अथवा कीर्तन करता है, व्रत-उपवास रखता, दान-दक्षिणा देता है किन्तु शास्त्रों अथवा सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय, उनके विचारों का चिंतन-मनन नहीं करता है और सोच लेता है कि जब मैं इतना क्रियाकाण्ड करता हूँ तो इसके बाद अध्ययन की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, आत्म ज्ञान अथवा परमात्मा विभूति करा देने के लिए इतना ही पर्याप्त है तो निश्चय ही भ्रम में है। आत्मा का क्षेत्र वैचारिक क्षेत्र है, सूक्ष्म भावनाओं और मनन चिंतन का क्षेत्र है।

अध्ययन के अभाव में इस आत्मा जगत में गति कठिन है। आत्मा के स्वरूप का ज्ञान अथवा परमात्मा के अस्तित्व का परिचय प्राप्त करते हुए बिना उनसे सम्पर्क किस प्रकार स्थापित किया जा सकता है ? इस अविगत का ज्ञान तो उन महान मनीषियों का अनुभव अध्ययन करने से ही प्राप्त कर सकना संभव है जो अवतार के रूप में संसार को वेदों का ज्ञान देने के लिए परमात्मा का प्रतिनिधित्व करते रहते हैं। आसन, ध्यान, पूजा-पाठ से तो प्रधान रूप से बुद्धि को परिष्कृत और आचरण को उज्ज्वल बनाने के लिए इस हेतु करना आवश्यक है कि अध्यात्म के वैदिक तत्व को समझने और ग्रहण करने की क्षमता प्राप्त हो सके। इसके विपरीत यदि एक बार पूजा-पाठ को स्थगित भी रखा जाये और एकाग्रता एवं आस्थापूर्वक स्वाध्याय और उसका चिंतन-मनन भी किया जाये तो बहुत कुछ उस दिशा में बढ़ा जा सकता है। स्वाध्याय स्वयं ही एक तप, आसन और निर्दिष्टयासन के समान है। इसका नियम निर्वाह करने से आप ही आप अनेक नियम, संयमों का अभ्यास हो जाता है।

स्वाध्याय में मनुष्य का अंतःकरण निर्मल कर देने और उसके अंतर्पट खोलने की सहज क्षमता विमान है। आंतरिक उद्घाटन हो जाने से मनुष्य स्वयं ही आत्मा और परमात्मा के प्रति जिज्ञासु हो उठता है। उसकी चेतना ऊर्ध्वमुखी होकर उसी ओर उड़ने के लिए पर तोलने लगती है। उच्च अध्यात्मिक अनुभूतियों का प्रस्फुटन स्वाध्याय के द्वारा ही हुआ करता है। स्वाध्याय निःसंदेह एक ऐसा ही अमृत है जो मानस में प्रवेश कर मनुष्य की पाशविक प्रवृत्तियों को नष्ट करता है।

चारित्रिक उज्ज्वलता स्वाध्याय का एक साधारण और मनोवैज्ञानिक फल है। सद्ग्रन्थों में सन्निहित साधु वाणियों का निरन्तर अध्ययन और मनन करते रहने से मन पर शिव संस्कारों की स्थापना होती है, जिससे चित्त अपने आप दुष्कृत्यों की ओर से फिर जाता है। स्वाध्यायी व्यक्ति पर कुसंग का प्रभाव नहीं पड़ने पाता इसका भी एक वैज्ञानिक कारण है। जिसकी स्वाध्याय में रुचि है और जो उसको जीवन का एक ध्येय मानता है वह आवश्यकताओं से निवृत्त होकर अपना सारा समय तो स्वाध्याय में ही तो लगाता है। इसलिए उनके पास को फालतू समय ही नहीं रहता, जिसमें वह जाकर इधर-उधर यायावरी करेगा तथा दूषित वातावरण अवांछनीय तत्व ग्रहण कर लायेगा।

उसी प्रकार ‘यरुचि साध्य संपर्क’ के सिद्धांत के अनुसार भी यदि उसके पास कोई आयेगा तो प्रायः उसी रुचि का होगा और उन दोनों को एक सामयिक सत्संग का लाभ होगा। रुचि वैषम्य रखने वाला स्वाध्यायशील के पास जाने का कोई प्रयोजन या साहस ही नहीं रखेगा और यदि संयोगवश ऐसे कोई व्यक्ति पास आ भी जाते हैं तो उनके पास का वातावरण अपने अनुकूल न पाकर देर तक ठहर न पायेंगे। निदान संगत जन्य आचरण दोनों का स्वाध्यायशील के पास कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

आत्मोन्नति के संबंध में विपरीत वृत्तियां, आलस्य, प्रमाद अथवा असंयम आदि स्वाध्यायशील व्यक्ति के निकट नहीं जा पाते। इसका भी एक वैज्ञानिक हेतु ही है, कोई सुरक्षा कवच का प्रभाव नहीं है। जिसे पढ़ना और नित्य नियम से जीवन का ध्येय समझ कर पढ़ना है, वह तो हर अवस्था में अपने उस व्रत का पालन करेगा ही। अवस्था अथवा अनियमितता, वह जानता है कि उसके इस रुचिपूर्ण व्रत में बाधक होगी अस्तु वह जीवन की एक सुनिश्चित दिनचर्या बनाकर चलता है। उसका सोना, जागना, खाना-पीना टहलना-घूमना और कारोबार करने के साथ-साथ पढ़ने लिखने का कार्यक्रम एक व्यवस्थित रूप से बड़े अच्छे ढंग से चलता रहता है। जिसने जीवन के क्षणों को इस प्रकार उपयोगिता पूर्वक नियमबद्ध कर दिया है, उसका तो एक-एक क्षण ही तपस्या का समय ही माना जायेगा। जिसने जीवन की व्यवस्था एवं नियमबद्धता का अभ्यास कर लिया उसने मानो अपने आत्मलक्ष्य के एक सुन्दर नसेनी तैयार कर ली है, जिसके द्वारा वह सहज ही ध्येय तक पहुँचेगा।

अनुभव सिद्ध विद्वानों ने स्वाध्याय को मनुष्य का पथ प्रदर्शक नेता और मित्र जैसा हितैषी बताया है। उनका कहना है कि जो व्यक्ति सत्पथ प्रदर्शक अपने सच्चे सखा स्वाध्याय का परित्याग कर देता है, उसका नाड़ी आदि इन्द्रियों पर अधिकार नहीं रहता। उसका मन चंचल, विवेक मन्द और बुद्धि कुंठित रहती है। इन सब दोषों के कारण उसे दुखों का भागी बनना पड़ता है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति वही है, जो अपने सच्चे मित्र स्वाध्याय को कभी नहीं छोड़ेगा। इसलिए तो गुरुकुल से अध्ययन पूरा करने के बाद विद्या लेते समय गुरु, शिष्य का अंतिम उपदेश दिया करता था -

‘ स्वाध्यायात् मा प्रमद।’

अर्थात् हे प्यारे शिष्य ! अपने भावी जीवन में स्वाध्याय द्वारा योग्यता बढ़ाने में प्रमाद मत करना। स्वाध्याय से जहाँ संचित ज्ञान सुरक्षित तो रहता है, साथ ही उसके ज्ञानकोष में नवीनता और वृद्धि भी होती रहती है। वहाँ स्वाध्याय से विरत हो जाने वाला नयी पूँजी पाना तो क्या गाँठ की विद्या भी खो देता है।

स्वाध्याय जीवन विकास के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है, जिसे हर व्यक्ति को पूरा करना चाहिए। अनेक लोग परिस्थितिवश अथवा प्रारम्भिक प्रमाद वश पढ़ लिख नहीं पाते और जब आगे चलकर उन्हें शिक्षा और स्वाध्याय के महत्व का ज्ञान होता है, तब हाथ मल-मलकर पछताते रहते हैं।

किन्तु इसमें पछताने की बात होते हुए भी अधिक चिंता की बात नहीं है। ऐसे लोग जो स्वयं पढ़-लिख सकते हैं, उन्हें विद्वानों का सत्संग करके और दूसरों द्वारा सद्ग्रन्थों को पढ़वाकर सुनने अथवा उसके प्रवचन का लाभ उठाकर अपनी इस कमी की पूर्ति करते रहना चाहिए। जिनके घर पढ़े-लिखे बेटे-बेटी अथवा नाती-पोते हों उन्हें चाहिए कि वे उनको संध्या समय अपने पास बिठाकर सद्ग्रन्थों का पाठ कराये।

इस प्रकार उसका स्वयं तो लाभ होगा ही, बच्चों को सद्ग्रन्थों का अध्ययन करने का अभ्यास हो जायेगा। जहाँ चाह, वहाँ राह - के सिद्धांत के अनुसार यदि स्वाध्याय की रुचि है और उसके महत्व को हृदयंगम कर लिया गया है, तो शिक्षा अथवा अशिक्षा को कोई व्यवधान नहीं आता, स्वाध्याय के ध्येय को अनेक तरह पूरा किया जा ही सकता है।


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