अपनों से अपनी बात- - संस्कार महोत्सव क्यों ? किसलिए ?

March 1997

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भारतवर्ष के बारे में उक्ति बारम्बार पढ़ने में आती है कि यहाँ विश्व वसुधा पर कभी तैंतीस कोटि देवता निवास करते थे। यदि तैंतीस कोटि देवताओं की गणना की जाये तो सभी शास्त्रों के, श्रुति-स्मृतियों के पन्ने पलटने के बाद एक हजार तक ही नाम मिल पाते हैं। तैंतीस कोटि देवताओं से संभवतः हमारी संस्कृति पुरुषों का आशय था कि परिष्कृत, सुसंस्कृत, मनोविज्ञान वाले, देवत्व को आचरण में उतारने वाले नरपुरुष इतनी बड़ी संख्या में इस पृथ्वी पर थे। नरपशु से पशु प्रवृत्तियों में निरत पेट-प्रजनन की सीमा में बद्ध स्वार्थान्धता से भरी मनःस्थिति से नर एवं देव मानव बनने की विकास यात्रा की चर्चा हमारे यहाँ की जाती रही है---------------------------- एवं सही अर्थों में यही मनुष्य की वास्तविक प्रगति या चेतनात्मक विकास की प्रक्रिया में सुसंस्कारिता का समावेश किस सीमा तक हो सका,------------------------------ यही संभवतः हमारी देव संस्कृति का सबसे महत्वपूर्ण शिक्षण विश्व मानवता के लिए रहा है एवं इसी धुरी पर मानवी वरिष्ठता का सारा ढाँचा हमारे ऋषिगणों ने खड़ा किया । संभवतः यही एक विलक्षण अनुदान के रूप में ‘संस्कार प्रक्रिया ‘ के नाम से पूरी विश्व वसुधा में मात्र हम लोगों के पास भारतीयों के लिए एक थाती की तरह है।

तत्त्ववेत्ता, दूरदर्शियों हमारे ऋषिगणों ने मानवी प्रवृत्ति को सही दिशा देने के लिए संस्कारों को जीवन में समावेश की प्रक्रिया को एक अपरिहार्य आवश्यकता के रूप में और उसे जीवन जीने के लिए एक विद्या के रूप में विकसित कर भारतीय जीवन पद्धति का एक अनिवार्य अंग बना दिया। यही कारण था कि भारत भूमि की आँख से देव मानवों का उत्पादन कभी बन्द नहीं हुआ। महामानवों के कल्पवृक्षों से तुलना की जाती रही है। वे स्वयं धन्य बनते और असंख्यों को कृतकृत्य बनाते हैं। ऐसे ही भूसुरों के कारण संस्कृति की महत्ता का गान गाया जाता रहा है तथा संस्कारों के माध्यम से उसका दूसरा जन्म ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुआ बताया गया है। क्या है ये ‘संस्कार’ एवं संस्कृति के महत्व के पक्ष में इतनी प्रधानता क्यों दी गयी है? मीमांसा दर्शन में महर्षि जैमिनी कहते हैं - ‘कर्मबीजं संस्कार’ अर्थात् संस्कार ही कर्म का बीज है एवं वही सृष्टि का आदि कारण है। जीवन सर्वथा संस्कारों का दास है, यह मान्यता हमारे वैदिक ऋषियों की थी। उनका कहना था कि मनुष्य का चित एक ऐसा गोदाम है, जिसमें अच्छे बुरे सभी प्रकार के संस्कारों का संग्रह रहता है। यदि श्रेष्ठ कर्म होगे, श्रेष्ठ की संगति होगी तो संस्कार भी श्रेष्ठ स्तर के संग्रहित होते चले जायेंगे। आज के समाज में सबसे बड़ी समस्या यही है कि समाज में संस्कार लुप्त होते चले गये हैं। सारा मानव समुदाय एक प्रकार का कुसंस्कारी बन गया है। व्यष्टि संस्कार पूरी समष्टि को, समाज व संसार को प्रभावित करते हैं। जैसे व्यक्ति के परिवार के संस्कार होंगे वैसा ही तत्कालीन समाज का स्वरूप होगा। यदि हमें आस्था संकट से लड़ना है तो समाज के ढाँचे को बदलना होगा, पूरे युग का नव निर्माण करना होगा, तो हमें संस्कार युक्त मानवों के निर्माण के तंत्र को गतिशील करना होगा।

परमपूज्य पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य एवं शक्तिस्वरूपा माता भगवती देवी शर्मा ने जीवन भर सुसंस्कृत व्यक्ति, परिवार एवं समाज के निर्माण के लिए कटिबद्ध होकर पुरुषार्थ किया। गायत्री परिवार उसी पुरुषार्थ की देन है। अनपढ़ को सुगढ़ बनाने के लिए रसायन के रूप में गायत्री महाशक्ति को जन जन तक पहुँचाने का संकल्प युग ऋषि पूज्यवर ने किया एवं गायत्री महाविद्या, जो लुप्त होती चली जा रही थी, को करोड़ों नर नारियों तक पहुँचा दिया। गायत्री प्राण विद्या है, मधुविद्या एवं सामूहिक मन को सुसंस्कृत बनाने हेतु एक विलक्षण रसायन है हमारी गुरुसत्ता ने अपने निज के तप पुरुषार्थ एवं व्यवहारिक प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित कर दिखाया कि गायत्री महाशक्ति के तत्त्वज्ञान एवं साधना प्रयोग विधानों में अध्यात्म का सार निहित है। उत्कृष्ट चिंतन की पृष्ठभूमि बनाने वाली गायत्री महाविद्या एक प्रकार से अमृत है। पारस भी और कल्पवृक्ष भी। साथ ही उनने यज्ञ का तत्वदर्शन एवं विज्ञान के रूप में धर्म की सारी शिक्षाएँ समुदाय के समक्ष रख दीं। परमार्थ के लिए किये गये सत्कर्म के रूप में यज्ञ विद्या को हमारी गुरुसत्ता ने ‘जाग्रत जीवान्त पुरोहितो’ के रूप में सक्रिय कार्यकर्ताओं के माध्यम से जन जन के लिए सुलभ बना दिया। स्वयं की अनूठी एवं विलक्षण प्रयोगशाला भी यज्ञ विज्ञान पर वैज्ञानिक अनुसंधान हेतु एवं यज्ञोपैथी चिकित्सा के रूप में ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान को विनिर्मित कर दिया। आज ‘ग्रामें ग्रामे यज्ञःगृह गृहे गायत्री उपासना’ की जो शृंखला चल पड़ी है, वह यही प्रमाणित करती है कि देवसंस्कृति -----------------------------------दो आधार स्तम्भों के अंतर्गत आता है। कोई भी संस्कार हमारे यहाँ बिना मंत्र शक्ति एवं यज्ञ ऊर्जा के समन्वित किये पूर्ण नहीं होता। देवसंस्कृति दिग्विजय अभियान के अंतर्गत विगत पाँच वर्षों में अनगिनत संस्कार अब तक संपन्न हुए। 27 अश्वमेध महायज्ञों एवं युगसंधि महापुरश्चरण की पूर्णाहुति आँवलखेड़ा में संपन्न हुई। हमारी ऋषि संस्कृति की एक आध्यात्मिक विरासत संस्कार प्रक्रिया को पूज्यवर ने जिस प्रकार विज्ञान सम्मत एवं प्रामाणिक बनाकर रख दिया एवं जीवन के व्यवहारिक सूत्रों के साथ गूँथ दिया, यह इस युग में अपने आप में एक अभिनव प्रयोग है। अब उसी संस्कार प्रक्रिया देवसंस्कृति दिग्विजय के क्रम में एक वर्षीय अनुयाज पुनर्गठन प्रक्रिया के बाद संस्कार महोत्सव के रूप में सारे भारत में एवं विश्व में संपन्न किया जाना है। इसका एक उद्देश्य है कि हमारी मातृभूमि के प्रसुप्त संस्कारों को यज्ञ ऊर्जा में तपाकर प्राणवान नागरिकों के रूप में विनिर्मित करना। अब इन्हीं संस्कार महोत्सवों के माध्यम से 21वीं सदी का स्वागत किया जायेगा।

वस्तुतः संस्कार विहीन होकर मानवीय गरिमा के अनुरूप जीवन जीने का अधिकार जो खो दे, स्वयं को गिरा दे, उन्हें हमारे ऋषियों ने उपालभ्य के रूप में व्रात्य शब्द से संबोधित किया है। ‘संस्कार’ ही नरपशु को नरमानव को गरिमा पद प्रदान करके उसके विकास की प्रक्रिया बलवती बनाते हैं। पारिभाषिक शब्दावली के अनुसार व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं अध्यात्मिक परिष्कार के निमित्त जो आध्यात्मिक अनुष्ठान संपन्न किया जाता है, उसे संस्कार कहते हैं। गौतम धर्मसूत्रों के अनुसार संस्कार उन्हें कहते हैं, जिनसे दोष हटते हैं और गुणों का उत्कर्ष होता है। मानवी व्यक्तित्व के सर्वांगपूर्ण नव निर्माण के परिष्करण हेतु जन्म के पूर्व से अंत तक हमारी संस्कृति में संस्कारों का प्रावधान है। आत्मा की नश्वरता एवं पुनर्जन्म पर विश्वास रखने वाले पुरोधा ऋषि इस आत्मा के जन्म लेने से पूर्व से काया छोड़ने के बाद तक भी उसे कषाय-कल्मषों से मुक्त करते रहने हेतु संस्कारों की महत्ता प्रतिपादित करते आये हैं।

धातुएँ मिट्टी में छिपी रहती है। इस मिट्टी की विधान के अनुसार संस्कारों द्वारा शोध कर उससे लोहा, ताँबा, सोना, आदि बहुमूल्य धातुएँ प्राप्त कर लेता है। आयुर्वेदिक रसायन बनाने वाले औषधियों को कई प्रकार के रसों से मिश्रित कर उन्हें गजपुट, अग्निपुट विधियों द्वारा कई-कई बार तपाकर संस्कारित कर उसने मकरध्वज जैसी चमत्कारिक एवं अनन्य औषधियों का निर्माण करते हैं, ठीक उसी प्रकार मनुष्य के लिए समय-समय पर विभिन्न आध्यात्मिक उपचारों का विधान कर उसे सुसंस्कृत बनाने की, अनगढ़ से सुगढ़ बनाने की महत्वपूर्ण पद्धति तत्त्ववेत्ता ऋषियों ने विकास की थी, इसी को षोडश संस्कार कहा जाता है। ऋषिगण जानते थे कि सुसंस्कारित किये जाने से मनुष्य के संचित कुसंस्कार नष्ट होते हैं तथा इन सूक्ष्म संस्कारों द्वारा जीवन के मार्मिक महत्वपूर्ण अवसरों पर विशिष्टता का, देवत्व का अभिवर्द्धन किया जा सकना संभव है।

भारतीय संस्कृति में मानव जीवन को आत्मा की विराट यात्रा का एक महत्वपूर्ण अध्याय माना गया है इसलिए ऋषिगणों ने इस व्यवस्था--------- द्वारा मनुष्य के गर्भ में आते ही आत्मा पर छाये मलीनता के कषाय-कल्मषों को हटा दिया जाये------------------ और संस्कार प्रक्रिया को यदि इस प्रकार एक ऋषिप्रणीत आध्यात्मिक चिकित्सा पद्धति कहा जाये तो अत्युक्ति नहीं होगी।

परम्परागत ढंग से चले आ रहे सोलह संस्कारों में से मात्र दस को रख कर युगऋषि पूज्य गुरुदेव ने आज की दृष्टि से अनिवार्य एवं व्यवहारिक मानते हुए दो नये संस्कार जन्म दिवस और विवाह दिवस जोड़कर कुल 12 संस्कारों से धर्मतंत्र से लोकशिक्षण प्रक्रिया के अंतर्गत प्रचलित किया है। ये हैं - 1.पुंसवन 2.नामकरण 3.अन्नप्राशन 4.मुँडन 5.विद्यारंभ यज्ञोपवीत-उपनयन 7.विवाह 8.वानप्रस्थ 9.अन्त्येष्टि 10.मरणोत्तर 11.जन्मदिवस 12.विवाह दिवस। शिखा स्थापन तथा गुरुदीक्षा संस्कार भी इन्हीं के खण्ड उपखण्ड में हैं जो उनके साथ व्यापक स्तर पर प्रचलित किये गये। सभी संस्कारों का ज्ञान अनिवार्य है, साथ ही लोकशिक्षण भी ताकि उनके महात्म्य को समझ कर प्रेरणाओं को हृदयंगम किया जा सके। यहाँ केवल एक ही महत्व पर प्रकाश डाला जा रहा है। प्रत्येक संस्कार के मूल में ऐसा ही वैज्ञानिक प्रतिपादन है। पुंसवन संस्कार गर्भस्थ शिशु के समुचित विकास के लिए तब सम्पन्न किया जाता है जब शिशु के भौतिक शरीर का विकास प्रारम्भ हो जाता है। तीसरे माह में गर्भ में आकार और संस्कार जब दोनों अपना स्वरूप बनाने लगते हैं, सामान्यतः उसे सम्पन्न किया जाता है। आज मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य दोनों ही विषम स्थिति में पाये जाते हैं। प्रायः एक लाख में से एक हजार में से 10 से अधिक बच्चे एक वर्ष की आयु पहुँचने तक मर जाते हैं। इसका कारण मातृ एवं शिशु कल्याण की पर्याप्त व्यवस्था का न होना है। साथ ही उन संस्कारों का भी हास होते चले जाना तो विज्ञान सम्मत ढंग से सम्पन्न कराये जाते हैं। सुरक्षित सुसंस्कृत मातृत्व के लिए पुंसवन संस्कार अनिवार्य है। इस संस्कार में वटवृक्ष, गिलोय, पीपल जैसी वनौषधियों को सुँघाने के पीछे ऋषियों का आयुर्वेदिक अनुभव ही मूल है। गर्भपात न हो, श्रेष्ठ स्वस्थ बच्चा जन्में इसीलिए इस औषधि को आँतरिक -----------------गर्भपात के माध्यम से सभी परिवारजनों द्वारा गर्भस्थ शिशु तक एवं माता------------- की आश्वासनता दी जाती है। ---------------- सुसंस्कारित एक विशेष चरु पदार्थ क्षीर रूप में गर्भिणी को सेवन कराया जाता है। क्या स्वाध्याय किया जाये एवं साधनात्मक मनोभूमि विकसित कर आहार विहार का नियमन कर कैसे स्वस्थ, सुसंस्कृत संतति को जन्म दिया जाये, इसकी पूरी व्यवस्था उस संस्कार में है। गायत्री परिवार के द्वारा सुव्यवस्थित पौरोहित्य व्यवस्था के माध्यम से यह कर्मकाण्ड अब बड़े व्यापक रूप से सम्पन्न किया जाता है। 21वीं सदी में यदि मातृसत्ता को स्वस्थ देखना चाहते हैं, उसकी संख्या में तेजी से आ रही कमी को रोकना चाहते हैं एवं उनका उनके गर्भकाल में होने वाली आनुवंशिक व्याधियों में शिशुओं को रोगी होने से बचाना चाहते हैं तो यह संस्कार ही इस प्रक्रिया के लिए सम्पन्न कराया जाना अनिवार्य माना जाना चाहिए। भविष्य की -------------रोगमुक्त, संस्कार वान श्रेष्ठ महामानवों को ही,---------------- इसके लिए यह संस्कार जरूरी है।

पिछले दिनों वैज्ञानिक अनुसंधानों में विभिन्न असाध्य व्याधियों जिसमें कैंसर भी शामिल है तथा उच्च रक्तचाप से लेकर मानसिक अवसाद जैसे मनोविकार का मूल कारण, गुणसूत्रों के आये दोषों को ठहराया है। कैंसर के लिए एक जीन पी-53 की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। जिसमें यह बाल्यावस्था से ही स्वस्थ स्थिति में रहता है कैंसर रोग को जीवन में कभी-कभी ही आने देता है। यदि पुंसवन सहित अन्य संस्कार, यज्ञ प्रक्रिया के साथ विधिवत् सम्पन्न होते रहें तो सभी गुणसूत्र पुष्ट बने रहें। जिससे न केवल कैंसर बल्कि अनेकानेक व्याधियों से मनुष्य को बचा कर उसके शरीर व मन के विकास की प्रक्रिया को गतिशील बनाया जा सकता है। यह अनुसंधान हमारे ऋषिगण आज से सहस्रों वर्ष पूर्व कर चुके थे। आज पुनः यही सत्य स्थापित किया जा रहा है।

वस्तुतः देखा जाये तो प्रत्येक संस्कार के मूल में ऐसे वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक सूत्र हैं, जिन्हें दृष्टिगत रख कर इनकी उपयोगिता पर किसी प्रकार का संदेह किसी को रहना नहीं चाहिए। संस्कार समारोह महोत्सव जो आज 107 कुण्डीय यज्ञों के साथ स्थान-स्थान पर सम्पन्न हो रहे हैं इसी लक्ष्य को दृष्टिगत रखकर निर्धारित किये गये हैं। भारतवर्ष में कुल 400 जिले हैं। इनमें प्रायः अढ़ाई सौ तक गायत्री परिवार पहुँच गये हैं। गायत्री एवं यज्ञ के पर्याय के रूप में गायत्री परिवार को जाना जाता है। इन क्षेत्रों में अब भूमि वातावरण तथा नरमानवों में सुसंस्कारों को जगाने के लिए संस्कारों को सघन स्तर पर कार्यान्वित करना हम सबका महत्वपूर्ण कर्तव्य है। इससे भी अधिक दुःसाध्य एवं प्रचण्ड पुरुषार्थ वाला कार्य यह है कि शेष बचे 150 जिले जो पूर्वोत्तर भारत के सात प्रान्तों, दक्षिण के चार प्रान्तों, महाराष्ट्र का दक्षिण भाग आदि में यह कार्य सम्पन्न किया जाये। इस वर्ष यही बीड़ा हाथ में लिया गया है और ऐसे ही अछूते क्षेत्रों को गायत्री महाविद्या की शब्द ऊर्जा से यज्ञ की तप ऊर्जा से अनुप्राणित कर संस्कृति की भागीरथी में सबको स्नान करा दिया जाये। आश्वमेधिक दिग्विजय के उपक्रम में यह उपसंहार वाला पक्ष जो युग संधि महापुरश्चरण की पद्धति की द्वितीय पूर्णाहुति तक 2001 के वसंत तक अनवरत चलता रहेगा निश्चित ही देव भूमि को यह वैभव प्रदान करेगा जो उसे जगद्गुरु के रूप में प्राप्त था। यजुर्वेद का कथन - ‘सा प्रथमा संस्कृति विश्वधारा’ पुनः अपनी पुनरावृत्ति करने जा रहा है। संस्कारों के जागरण और संधिकाल की इस विषम बेला में आस्था संकट की विभीषिका हेतु अनिवार्य पाथेय प्रदान कर सकेगा। सूक्ष्म जगत जहाँ तेजी से प्रदूषित होता जा रहा है, साँस्कृतिक स्तर पर जन-जन के मन में जहाँ विकृति ही विकृति दिखाई देती है, समाधान मात्र देवसंस्कृति के उन उपचारों से मिल सकता है। गायत्री परिवार के प्रयास अपने दोनों ही आराध्य सत्ताओं के सूक्ष्म संरक्षण में इस दिशा में गतिशील हैं। सभी भविष्यवेत्ता यह बड़े दावे के साथ कह रहे हैं कि 21 वीं सदी के आने वाले दस वर्षों में साँस्कृतिक आध्यात्मिक चेतना ही सारे विश्व का नेतृत्व करेगी और यह प्रक्रिया भारत के माध्यम से सम्पन्न होगी। हम सभी को इस प्रक्रिया को बलवती बनाने के लिए अपने प्रयासों को अब तीव्र गति देना चाहिए एवं 21वीं सदी उज्ज्वल भविष्य की युगऋषि की घोषणा को स्वीकार करके दिखा देना चाहिए।


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