पाप के स्वरूप में एक भयानक आकर्षण होता है, ऐसा आकर्षण जैसा एक शलभ के लिये दीप शिखा में। शिखा के सम्मोहन में फंसकर पतंगा अपने पंख जलाकर भी उसी की ओर रेंगता रहता है। यहाँ तक कि आखिर जलकर खाक ही हो जाता है।
क्या कारण है कि पाप के प्राणहन्ता सौन्दर्य की ओर मनुष्य दौड़ता रहता है। इसका प्रमुख कारण है सच्चे सौन्दर्य का साक्षात्कार न होना। यदि मनुष्य में शिव सौन्दर्य का दर्शन हो जाय तो वह पाप के झूठे आकर्षण में कदापि प्रेरित न हो। मनुष्य यदि एक बार सच्ची आंखों से अपनी आत्मा की ओर देखले तो उसे संसार के सारे पापों में घृणा हो जाय और वह निर्विकार हो उठे।
मनुष्य की इस सौन्दर्य विषयक भ्रान्ति ने ही इस स्वर्ग तुल्य पृथ्वी में बहु संख्यक व्यक्तियों के लिए नरक में परिणत कर रखा है। ऐसे लोग ईश्वर की प्रशंसनीय कृति-सुन्दरता में अपनी पाप-दृष्टि समेट कलुषित कर देते हैं। उनको प्रत्येक क्षण अपने नित्य स्वार्थ, पाशविक वासना, जघन्य रुचि की पूर्ति के अतिरिक्त और कोई विचार आता ही नहीं। इसके परिणाम स्वरूप वे स्वयं तो पतन के गर्त में गिरते ही है। अपने निकटवर्ती जनों के लिए भी काँटे बोते हैं। जिसे आत्म-कल्याण की तनिक भी इच्छा हो उसे सदैव पाप से घृणा करके चिन्तन ही करते रहना आवश्यक है ।
-रामकृष्ण परमहंस