तुम ऐसे निकले तीर्थंकर (Kavita)

July 1971

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कुछ भी देय-अदेय न सखा, दुखियों को कब-कब तक बाँटा। कैसे प्राण विदा दें तुमको, पीर बसाकर, जाने वाले॥

सविता-माता के प्राणों का अमृत-क्षीर पिलाने वाले, सुर-संस्कृति के महातेज की लाल-मशाल जलाने वाले,

अरुणोदय बन गई साधना, तप के नयन बन गये सावन, मानवता के चीत्कार पर, अमृत-सिन्धु लुटाने वाले,

मधुता बाँटी, गला-गला तन, मानव देह महान् बनाई, आँसू बोये, अर्घ्य चढ़ाया, कल्पवृक्ष की पौध उगाई,

हर राही को सम्बल सौंपा, कोई नहीं निराश्रित लौटा- कामधेनु को कंठ बाँधकर, अमृत-क्षीर पिलाने वाले।

कैसे प्राण विदा दे तुमको, पीर बसाकर जाने वाले॥

बिन्दु-सिन्धु को अंक भेंटकर, पुलक अचेतन-चेतन को दी,

चुभन राह की झेल-झेलकर वृन्दावन में, किलकन भर दी, जन्म-जन्म का विरह जगाया, मधु स्पर्श दिया प्राणों का,

पिघल बहे, पाहन मन जग के, अमृत पायी, पुलकन भरदी, कोख सनाथ हो गयी माँ की, धन्य हो गया, भू का जीवन,

ज्वालामुखी बसाये उर में, चितवन में, अमृत की छलकन, महिमावान प्राण, हिमगिरि से, द्रवित रहे हैं जग के दुःख से,

भरे-भरे बादल मन वाले, अधरों से मुस्काने वाले। कैसे प्राण विदा दें तुमको, पीर बसाकर जाने वाले॥

सृजन लहलहा रहा अश्रु का, बौराया भावों का फागुन, धरती पर समृद्धियाँ उतरी, करने जन-मन का आराधन,

तुम ऐसे निकले तीर्थंकर, अश्रु बहाकर जाने वाले। कैसे प्राण विदा दें तुमको, पीर बसाकर जाने वाले॥

*समाप्त*


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