प्रगति के लिये अदम्य आकाँक्षा आवश्यक

July 1971

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परिस्थितियों की प्रतिकूलता और साधनों की कमी से हताश न होना चाहिये । क्योंकि उन्नति का आधार परिस्थितियों और साधनों पर निर्भर नहीं होता । उसका आधार है प्रबल आकाँक्षा और उसके अनुकूल पुरुषार्थ। जिसके पास यह दो साधन मौजूद है , संसार में उसकी उन्नति कोई नहीं रोक सकता।

यों तो उन्नति के लिये प्रायः सभी लोग सामान्यतः लालायित रहते हैं। किन्तु उन्नति की सच्ची आकाँक्षा किसी किसी के ही पास होती है लालसा ओर आकाँक्षा में अन्तर होता है । लालसा एक लहर के समान होती है किसी समय आ जाती है और बाद में विलीन हो जाती है। लालसा को कोई निश्चित लक्ष्य नहीं होता है। लालसा एक अकेली नहीं होती । उनकी संख्या बहुत हो सकती है।

किन्तु सच्ची आकाँक्षा एक व्रत ,एक संकल्प के समान होती है। उसमें दृढ़ता भी होती है और लगन भी। वह एक होती है और उसका लक्ष्य भी एक और निश्चित होता है सच्ची आकाँक्षा वाला व्यक्ति अपनी शक्तियों को अनेक विषयों में नहीं बिखेरता। वह अपनी सारी क्षमतायें अपनी एक ही आकाँक्षा को समर्पित कर देता है और उसी को पाने के लिये पूरा जीवन लगा देता है।

आज यदि विद्वान बनने की इच्छा होती है लेकिन कल व्यापारी बनने की कभी अध्यात्म लाभ करने की जिज्ञासा होती है और कभी शान शौकत का जीवन बिताने की। समाज की सेवा करने की इच्छा से मन में त्याग और बलिदान करने की भावना आती है तो कभी राज सत्ता का लोभ सताने लगता है, तो समझना चाहिए के हृदय में किसी विशय के प्रति सच्ची आकाँक्षा नहीं है। ये इच्छाएं और अभिलाषायें वे विविध वृत्तियां है जो चंचल मन की सृष्टि होती है। ऐसी चंचल वृति के लोग संसार में कोई उन्नति नहीं कर सकते । किसी एक विषय में उल्लेखनीय उन्नति करने के लिए मनुष्य को सारा जीवन लगा देना पड़ता है तब सारी वांछाएं किस प्रकार पूरी हा सकती है? कोई एक विशय चुनकर और उसी में तन मन लगा देने से उन्नति के शिखर पर पहुँचने की आशा की जा सकती है।

जो मनुष्य वास्तव में उल्लेखनीय उन्नति करना चाहता है उसे सबसे पहले अपनी बहुत सी अभिलाषाओं में कोई एक ऐसी अभिलाषा चुन लेनी चाहिए जिसमें उस की सबसे अधिक रुचि हो और जो अधिक से अधिक समाज के लिए उपयोगी हो । केवल स्वार्थमयी अभिलाषायें पूर्ण होने पर भी उस प्रकार का श्रेय सम्पादन नहीं कर पाती, जिसके आधार पर मनुष्य उच्च अथवा महान कहा जा सकता है।

इस प्रकार बहुत में से चुनी हुई अभिलाषा को उस आकाँक्षा में परिपक्व कर लेना चाहिए परिस्थितियाँ अथवा स्पर्धा जिसे परिवर्तित न कर सके। इस परिपाक का उपाय यही है कि उस आकाँक्षा को अभिलाषा की सीमा से निकाल कर व्रत, संकल्प अथवा जीवन लक्ष्य की कोटि में रख लेना चाहिए।

इतना करने के बाद उसे लगन और जिज्ञासा के दो सहायकों से संयुक्त कर देना चाहिए।

इस प्रकार उन्नति का एक क्षेत्र एक लक्ष्य और एक आकाँक्षा निश्चित हो जायेगी।

आकाँक्षा के परिपक्व हो जाने के बाद उसकी सफलता का प्रयत्न प्रारम्भ होता है। वह इस प्रकार कि जो कुछ विचार किया जाये उसी के विशय में, जो कुछ बात की जाये उसी के आधार पर और जो कुछ अध्ययन किया जाए उसी को लक्ष्य बनाकर। इस प्रकार उसके विशय में ज्ञान और अनुभव का विस्तार होगा। ज्ञान और अनुभव का संचय किये बिना किसी विषय में प्रगति कर सकना सम्भव नहीं। ज्ञान और अनुभव के अभाव में कभी कभी मनुष्य के बड़े गहरे पुरुषार्थ निष्फल चले जाते हैं। इतनी तैयारी करने के बाद मनुष्य को उसे मूर्तिमान करने के लिये सक्रिय पुरुषार्थ में लग जाना चाहिए। धीर-धीरे प्रगति होने लगेगी और उन्नति का लक्ष्य समीप आने लगेगा।

बहुत बार इतनी सब तैयारी कर लेने के बाद भी बहुत से लोग जीवन लक्ष्य में असफल हो जाते हैं। इसका कारण इसके सिवाय कुछ नहीं हो कि पुरुषार्थ और परिश्रम में कमी रक्खी गई होती है। होता यह है कि लोग थोड़ा सा काम करने के बाद ही थकान अनुभव करने लगते हैं अथवा थोड़ा सा ही परिश्रम करने के बाद बहुत कुछ कर लेने का सन्तोश करने लगते हैं । लक्ष्य की सफलता पुरुषार्थ से ही होती है लेकिन तब जब उसके लिये पूरा पुरुषार्थ किया जाये। जहाँ पूरा पुरुषार्थ लक्ष्य विजय करा देता है वहाँ अधूरा पुरुषार्थ स्वयं तो बेकार चला ही जाता है जीवन को भी असफल बना देता है।

अधूरे पुरुषार्थ के कई कारण हो सकते हैं। जैसे-शारीरिक निर्बलता। जो शरीर से कमजोर है, जिसका स्वास्थ्य ठीक नहीं है। उसका थोड़े से परिश्रम में ही थक जाना स्वाभाविक ही है। श्रम करने के लिये तो शक्ति और सामर्थ्य की आवश्यकता होती है। निर्बल अथवा अस्वस्थ व्यक्ति के पास उसकी कमी होना अस्वाभाविक नहीं । जिसके पास शारीरिक विवशता हो उसे अपने स्वास्थ्य को ठीक करना चाहिये। यदि रोगी और अस्वस्थ रहता है तो ठीक प्रकार से अपनी चिकित्सा कराये। अपना आहार-विहार सँभाले । नियम और संयम का पालन करे। शरीर यदि स्वभावतः दुर्बल है तो अपने उपयुक्त , व्यायाम करे। भोजन को तत्वपूर्ण बनाये। स्वास्थ्य वर्धक वातावरण का सेवन करे और सदा प्रसन्न तथा उल्लसित रहने का प्रयत्न करे। इस प्रकार शारीरिक दुर्बलता दूर कर पूर्ण पुरुषार्थ के योग्य शक्ति का संचय किया जा सकता है।

पूरा पुरुषार्थ न कर सकने का एक कारण मानसिक भी हो सकता है। मानसिक कारणों से आलस्य , प्रमाद,उपेक्षा, टाल-मटोल, अनियमितता आदि हो सकते हैं। यह विकार और कुछ नहीं मानसिक व्यसन होते हैं जिनको मनुष्य यों ही पाल लिया करता है। आलस्य क्या है? काम करने के विशय में अनिच्छा । प्रमाद क्या है ? काम का महत्व न समझना । उपेक्षा क्या है ? अपनी निष्क्रियता का पालन करना। दीर्घ सूत्रता क्या है-समय का मूल्य न समझना । और अनियमितता है अपनी क्षमताओं को ऐसा आज्ञाकारी मानना कि जिस समय जितना काम चाहे हठपूर्वक ले सकते हैं। जबकि अपनी होती हुई भी बिना नियम के क्षमतायें किसी प्रकार भी उपयोगी तथा अनुज्ञाकारी नहीं होती। क्षमता कितनी ही क्यों न हो, यदि वह नियमपूर्वक का में नियोजित न की जायेगी तो कुछ भी उपार्जन नहीं कर सकती। बिखर फैल कर बेकार चली जायेगी। जबकि यदि थोड़ी क्षमता को भी विधिपूर्वक नियम के साथ किसी भी उससे कही अधिक काम कर सकती है जितना कि बिखरी हुई गाड़ी भार क्षमता कर सकती है।

इस प्रकार की सारी मानसिक कमजोरियों को दूर करने का एक ही उपाय है कि कुछ समय तक मन को नियमपूर्वक काम में लगाये रखने का अभ्यास कराया लाये।

एक क्षण भी उसे खाली न रहने दिया जाये। कुछ समय तक इस बलात्कार को चलाने के बाद मन ठीक रास्ते पर आ जायेगा। आलस्य की वृद्धि आराम द्वारा होती है। मनुष्य जितना अधिक आराम करता है उतना ही अधिक आलसी होता जाता है। यह धारणा नितान्त भ्रामक है कि आराम करने से नये बल, नये उत्साह और नव स्फूर्ति की प्राप्ति होती है। शक्ति ,उत्साह और स्फूर्ति तो आराम करने से नहीं बल्कि काम करने से प्राप्त होती और बढ़ती है। परिश्रम में स्वास्थ्य का गुण रहता है। जो मनुष्य जितना अधिक श्रम करेगा वह उतना ही स्वस्थ और निरोग रहेगा। जो स्वस्थ होगा, निरोग और निर्विकार होगा उसे उक्त गुणों की कमी रह नहीं सकती। आराम करने से बल और स्फूर्ति अवश्य मिलती है किन्तु तब जब पूरे परिश्रम के बाद विश्राम किया जाये। जिस प्रकार पूरे परिश्रम के बाद विश्राम लाभदायक होता है उसी प्रकार बेकार का विश्राम दो अभिन्न साथी है । राम के बाद विश्राम की उपयोगिता और आनंद है और विक्रम के बाद काम का आनन्द है। पर्याप्त काम और उचित विश्राम जीवन का वह सिद्ध मन्त्र है जिसके द्वारा मनुष्य किसी दूरस्थ लक्ष्य को भी सरलता पूर्वक पा सकता है।

संसार में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो शरीर से पूरी तरी स्वस्थ होते हैं लेकिन तब भी पुरुषार्थ की मात्रा पूरी नहीं कर पाते। ऐसे लोग वास्तव में कामचोर होते हैं। वे कभी कृत्रिम थकान का बहाना ले बैठते हैं तो कभी समय की कमी बतलाते हैं।

ऐसे निकम्मे और कामचोर इस कर्मभूमि पर बेकार के भार होते हैं। कामचोर प्रवृत्ति के लोगों को यदि संसार के सारे साधन दे दिये जाये और दो चार जीवन का समय दे दिया जाये तो भी वे प्रगति और उन्नति के नाम पर एक कदम भी आगे बढ़कर नहीं दिखला सकते।

थोड़े से काम में थकान अनुभव करने वाले वास्तव में काम में रस नहीं लेते जो उन्हें लेना चाहिये अथवा अपनी उपेक्षा वृति के कारण वह रस अनुभव नहीं कर पाते जो काम में भरा रहता है । अस्थिर मन और बिखरी लगन से काम करने में कर्ता को कभी आनन्द नहीं आ सकता । ज्यों-ज्यों वह बेमन, बेगार की तरह करेगा त्यों-त्यों काम उसके लिये नीरस बनकर भारी बनता जायेगा।

काम के लिये समय की कमी बतलाने वाले वास्तव में मिथ्यावादी होते हैं। जो इच्छा पूर्वक ईमानदारी से कुछ करना चाहते हैं उसके लिए समय की कमी नहीं रहती । एक दिन चौबीस घण्टों का समय होता है यदि आठ घंटे जीवन के अन्य कामों खाने पीने और आराम आदि करने में निकाल दिये जाये तो भी मनुष्य के पास काम के लिए सोलह घंटों का समय मिलता है। एक दिन में सोलह घंटों का समय कुछ नहीं होता। महात्मा गाँधी संसार के सबसे व्यस्त आदमी था। उनके पास काम की मात्रा ही ज्यादा नहीं थी बल्कि बड़ा महत्वपूर्ण और जिम्मेदारी का काम था। उनका एक-एक क्षण व्यस्त रहा करता था । किन्तु तब भी उन्होंने अपने उस व्यस्त समय में से एक घंटा प्रतिदिन निकाल कर भारत की लगभग एक दर्जन भाषायें सीखली थी। ऐसे-ऐसे उदाहरण होते हुए भी, जिसके पास किसी अपने एक लक्ष्य के लिए सोलह घंटों का समय हो , यदि वह समय की कमी बतलाता है तो उसकी बात पर किसी प्रकार भी नहीं किया जा सकता । समय की कमी बतलाना कामचोरी के एक बहाने के सिवाय और कुछ नहीं है। काम की कमी कर्मठों तथा पुरुषार्थियों के पास तो रहती नहीं हाँ उसका अभाव आलसियों, प्रमादियों , गप्पियों और निठल्ले नवीसों के पास जरूर रहता है।

मनुष्य जीवन बड़ा मूल्यवान अवसर है। यह बार-बार नहीं मिलता। इसे यों ही नहीं खो देना चाहिए। अवश्य ही इसका लक्ष्य बनाकर उसे पूरा करने के लिए शारीरिक तथा मानसिक दुर्बलताओं को जीतकर अखंड पुरुषार्थ करना ही चाहिए और समय तथा समाज पर अपनी प्रगति, उन्नति तथा सफलता की छान छोड़ ही जाना चाहिए।


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