आत्मा के विरुद्ध कार्य करना मेरे वश की बात नहीं

July 1971

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काशी में गंगा का किनारा।सुबह का समय। गंगा स्नान करने वालों की रेल-पेल । एक वृद्ध सज्जन नहाने के लिये नीचे उतर रहे थे कि उनका पैर फिसल गया और वह डूबने लगे। जब अपनी जान जोखिम में डालने को कोई तैयार न था, एक युवक ने, वृद्ध को डूबते हुये देखा तो वह गंगा में उसी स्थान पर कूद पड़ और एक डुबकी लगाकर निकाल लाया उन्हें किनारे की ओर। उस वृद्ध ने युवक के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हुये कहा आज तुमने मेरे प्राण बचाये है बोलो मैं तुम्हारी क्या सेवा कर सकता हूँ ?

‘अरे! स्वा की इसमें क्या बात ! मुझे तैरना आता था अतरु आपको नदी में से बाहर खींच लाया। फिर मेरा कर्त्तव्य भी तो कुछ था ? युवक बोला। वृद्ध उस युवक की कर्त्तव्य निष्ठा की बात सुनकर बहुत प्रभावित हुये। वह बोले बेटा ! कुछ तो स्वीकार करना ही चाहिये अच्छा यदि आज कुछ नहीं माँगना चाहते,तो यह लो मेरे नाम पते का कार्ड। कभी कलकत्ते आना हो तो मैं तुम्हारी अवश्य सहायता करूंगा।

समय की बात उसी पते पर वह युवक कलकत्ता आ पहुँचा और उन वृद्ध सज्जन के कार्यालय में भी। उस घटना को बहुत समय हो चुका था अतरु वह पहचान नहीं पाये। युवक ने गंगा के किनारे की घटना सुनाई और वह पते का कार्ड उनकी ओर बढ़ाया तो सारी घटना जैसे ताजी हो गई हो। हां! हाँ! बोलो क्या बात है। मैं तुम्हारी सहायता किस प्रकार कर सकता हूँ।

युवक ने अपनी जेब से कुछ कागज निकाल कर उनके सामने मेज पर रख दिये और कहा मैंने कुछ कवितायें लिखी है उन्हें प्रवासी मासिक में प्रकाशित करवा दीजिये। वृद्ध ने कविताएं पढ़ी। उस समय उनके चेहरे पर बनती बिगड़ती रेखायें बता रही थीं कि वह किसी धर्म संकट में फँस गये। माथे पर पसीने की बूंदें छलकती दिखाई दीं। ओठ सूखने लगे बड़े साहस के साथ उन्होंने कहा यहां तुम बुरा न मानो तो अपनी बात कहूँ

कहिए!

प्रवासी एक उच्च स्तरीय पत्र है। उसमें यह साधारण सी कवितायें नहीं छापी जा सकतीं यदि सम्पादन का नियम तोड़कर ऐसा किया जायेगा तो मुझ पर पक्षपात का आरोप अवश्य लगेगा। हाँ यदि तुम चाहो तो मुझे उस दिन के अहसान के बदले पुनरु गंगा में फेंक सकते हो।आत्मा के विरुद्ध कार्य करना मेरे वश की बात नहीं।

यह वृद्ध सज्जन थे।प्रवासी और श्मार्डनरिव्यूश् मासिक के यशसवी सम्पादक पं॰ रामाननद चट्टोपाध्याय।


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