डाकिया आया और एक पत्र क्रेव निहारिका से लाया

July 1971

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गरुड पुराण में एक वर्णन आता है कि श्राद्ध पितरों का तर्पण किया जाता है तब मंत्रों द्वारा भेजे गये आवाहन के अनुसार परलोकवासी पितर स्वयं में उतरकर आते हैं और अपने पुत्र-पौत्रों द्वारा प्रदत्त अन्नादि को ग्रहण करते हैं सन्तुष्ट होकर आशीर्वाद देते हैं और अपने लोक को लौट जाते हैं। सम्भव है अपनी वासना के अनुरूप पितरों की आत्मायें जिसे लोक में हो वहाँ मंत्रों द्वारा प्रेरित भाव-स्पन्दन पहुँचते हो और जीव-चेतना आकर श्राद्ध ग्रहण हो पर आज की बुद्धिवादी दुनिया के लिये यह अन्ध-विश्वास है।

इन्द्र का तार आया है-उन्होंने अर्जुन को लिखा है-आपका नाम धनुर्विद्या में पी.एच.डी. के लिए सेलेक्ट (चुन लिया गया )हो गया है ,तुरन्त आइये ‘तार पढ़कर अर्जुन तैयारी करने लगे उधर उनकी पत्नी सुभद्रा,द्रौपदी तथा अन्य परिजन उनकी तैयारी करते हैं ताकि वे नियत समय पर इन्द्रलोक पहुँचकर उक्त प्रशिक्षण में भाग ले सके।

छतरपुर के किसी छात्र “जानसन एण्ड जानसन” शिक्षा योजना के अंतर्गत चुनाव होना ,छात्रवृत्ति मिलना अर अमेरिका जाकर पढ़ने का बुलावा होता तो उसे सच माना जाता पर अर्जुन के कभी इन्द्र लोक से बुलावा आया हो और वे कभी वहाँ जाकर शस्त्र विद्या सीखकर आये हो हय कहा जायेगा तो न केवल उसे काल्पनिक उड़ान कहा जायेगा तो न केवल उसे काल्पनिक उड़ान कहा जायेगा वरन् उसे भारतीयों का अतिवाद कह कर उसका उपहास भी किया जा सकता है। होना यह चाहिये था कि हमारे आर्षग्रंथों में एकसी कल्पनायें ऐसा विज्ञान दिया हुआ है उसके आधार पर विज्ञान को एक नई दिशा दी जाती है तो हम सत्य की शोध और वैज्ञानिक उपलब्धियों की दृष्टि से कुछ ही समय में रुस और अमेरिका से आगे होते। जिन बातों के लिये रूस, फ्राँस,अमेरिका व जर्मनी के वैज्ञानिकों को समय साध्य परीक्षण करने पड़ते और मस्तिष्क में जोर लगाना पड़ता है वह बातें हमारे अथर्व वेद से लेकर भारद्वाज वैमानिक प्रकरण तक पहले से ही शोधी हुई रखी है यदि अपने आर्षग्रंथों के प्रकाश में विज्ञान की खोज होती तो हमारी वैज्ञानिक प्रगति स्वतन्त्रता प्राप्ति के इन 24 वर्षों में ही बहुत चढ़ी बढ़ी होती ।

सन् 1656 में सहारा रेगिस्तान में प्रागैतिहासिक काल की गुफायें मिली उनमें मिले अनेक चित्र बड़े महत्वपूर्ण थे। इन्हीं चित्रों में कुछ ऐसे प्राणी भी दिखाए गये है जो आकाश में उड़ते हुये है। इन विचित्र प्राणियों को उड़ते उड़ते अन्तर्धान (वैनिश्ड) होते भी वितरित किया गया है इन चित्रों को देखकर प्रसिद्ध रूसी गणितज्ञ श्री एम.ए.ग्रेस्ट. ने लिखा है कि निश्चित ही उस समय आकाश के सुदूर नक्षत्रों के निवासी यहाँ आते रहे है भले ही हमारा विज्ञान अभी उस स्वरूप को समझने में समर्थ न हुआ हो” । कुछ लोगों ने प्रश्न किया-यदि तब आ सकते थे तो अब क्यों नहीं आते? उत्तर अँग्रेज विचारक ए.सी. क्लार्क ने दिया-सम्भव है पृथ्वी के निवासियों के व्यापक रूप से छाई दुर्भावनाओं के कारण उन्हें यहाँ आने में भय लगता हो या उन्हें घृणा हो गई हो यह भी हो सकता है कि हमारा सूक्ष्म वायु मण्डल इतना दूषित हो गया है कि उसमें से होकर उनके लिये पृथ्वी में उतरना कठिन हो गया हो।

कारण जो भी हो पर अब स्पष्ट होता जा रहा है कि अन्तरिक्ष के दूरवर्ती सितारों में भी जीवन अवश्य है और एक दिन फिर से ऐसा आ सकता है जब कि पृथ्वी के निवासियों के साथ उनका मुक्त पत्र-व्यवहार भी प्रारम्भ हो जाये। एक अलग डाक विभाग बनेगा जिसके पोस्टमैन अन्तरिक्ष की भाषा समझने वाले हुआ करेंगे। और बड़े सवेरे आकर दरवाजे पर दस्तक क्या करेंगे-अमुक भाई साहब, यह लीजिये आपके नाम क्रेव-निहारिका से एक्सप्रेस पत्र आया है, तार आया है या आपे जन्म दिन की बधाई सन्देश।” लाँग खुश होकर पत्र लिया करेंगे और अपना उत्तर प्रेषित करने के लिये अन्तरिक्ष.लिफाफा मँगाने के लिये नौकर को भेज दिया करेंगे।

यह पंक्तियाँ भविष्यवाणी; यूरोपियन जैसी अतिरंजित नहीं लगनी चाहिये क्योंकि यह बातें निश्चित ही कुछ ही दिनों में सच होने जा रही हैं। उसका प्रमाण है अन्तरिक्ष से आ रहे रहस्यमय संकेत सन् 1668 की बात है कैंब्रिज विश्व-विश्वविद्यालय लन्दन के कुछ शोध छात्र उस समय आश्चर्य चकित रह गये जब उन्होंने अन्तरिक्ष से आने वाली बीप-बीप-बीप की विचित्र ध्वनियाँ सुनी। यह संकेत किन्हीं बुद्धिमान प्राणियों द्वारा सम्प्रेषित थे उसका अनुमान इस बात से हुआ कि संकेत निश्चित गति और नियमित समय पर आ रहे थे। इन संकेतों को श्पल्सरश् नाम दिया गया। एक अनुमान यह भी था कि आकाश की किसी आकाश गंगा में विस्फोट हो रहा होगा यह ध्वनि उसी की होगी किन्तु श्पल्सरश् के अध्ययन के बाद क्वासर किरणों के विशेषज्ञ डॉ॰ मार्टिन स्मिड, ऐलेन लैण्डेज मार्टिन राइल तथा ग्राइम स्मिथ ने भी यह स्वीकार किया कि संकेत विस्फोट अन्य और अकारण नहीं वरन् एक व्यवस्थित विचार प्रणाली द्वारा ही भेजे गये हैं। तब से इस दिशा में वैज्ञानिकों की शोधें बड़ी तत्परतापूर्वक चल रही है और जो निष्कर्ष अब तक उपलब्ध हुये है उनसे भी उक्त धारण को ही बल मिलता है।

मुलार्ड रेडियो वेधशाला में इनकी विस्तृत खोज चल रही है। वेधशाला के संचालक,प्रसिद्ध नक्षत्र विद् श्री मार्टिन राइल ने जाँच के बाद पाया कि यह पल्सर ; संकेत क्रमश 1.337,1.6 तथा 1.6 सेकेण्ड के क्रम से आ रहे हैं और नियमित आ रहे हैं। उनका स्त्रोत 200 प्रकाश वर्ष दूर;एक प्रकाश वर्ष 5866713600000 मील के बराबर होता है यह तारे इससे भी 200 गुना दूर कहीं स्थित है।द्धके किसी कुल आधे मील व्यास वाले नक्षत्र से ही आ रहें हैं सम्भव है इतना बड़ा कोई अन्तरिक्ष स्टेशन ही आकाशस्थ प्राणधारियों ने लगा रखा हो यह संकेत उस प्रयोगशाला से भेजे जा रहे हों। कुछ भी हो पर यह निश्चित है कि वे किसी बुद्धिधारी जीव द्वारा भेजे जा रहे हैं। इससे

एक बात तो स्पष्ट है कि परलोक स्वर्ग और मुक्ति जैसी भारतीय कल्पना असंगत तथ्य नहीं तर्कपूर्ण महान उपलब्धि है उसे यों ही उपेक्षा में टाला नहीं जा सकता।

इस भारतीय मृत्यु के समय सूर्य की उत्तरायण गति को शुभ मानते हैं और दक्षिणायन को अशुभ। विश्वास यह है कि उत्तरायण मृत्यु से मनुष्य ऊर्ध्व लोकों में अर्थात् स्वर्ग में जाता है। भीष्म पितामह को तो उसके लिये एक कष्टसाध्य प्रक्रिया के अंतर्गत अपला प्राण स्थिर रखना पड़ा था। इस विश्वास का वैज्ञानिक पहलू जीवन के चुम्बकत्व से सम्बन्धित होने से है प्राण एक प्रकार की विद्युत परस्पर परिवर्तनीय शक्तियाँ हैं अपने प्राणोँ को चुम्बकत्व में बदल कर उत्तरी ध्रुव के सर्वाधिक चुम्बक प्रभावी क्षेत्र से आकाशगामी बनाने की कल्पना को भी इन खोजों से बल मिलता है। जो ड्रेल बैंक स्थ्ति रेडियो टेलिस्कोप द्वारा जाँच करने पर एस्ट्रानामिस्ट श्री ग्राहम स्मिथ ने पल्सर की रेडियो तरंगों को पोलराइज्ड पाया अर्थात् वे चुम्बकीय क्षेत्र द्वारा प्रभावित थी और यही वह सबसे बड़ा प्रमाण है जिससे यह पुष्टि होती है कि यह पल्सर संकेत जीवधारियों द्वारा भेजे जा रहे हैं।

एक बार वैज्ञानिक चार्ल्स फ्रास ने एक सुझाव दिया था कि आकाश के जीवन धारियों को पृथ्वी से गणितीय संकेत भेजे जायें। फ्राँस की योजना अत्यधिक विकिरण वाले क्षेत्र साइबेरिया अथवा सहारा रेगिस्तान में ऐसी चिताये बनाने की थी जो पाइथागोरस की बनावट कि हों। उनके द्वारा गणित सम्बन्धी रेडियो संकेत भेजे जाने की बात थी पर संकट यह था कि यदि ऐसे संकेत सन् 1670 में भेजे जाये तो 11 प्रकाश वर्ष की दूरी वाले तारे में वे (कम से कम दूरी का पल्सर प्रकाश वर्ष का है।)11 वर्ष बाद पहुंचेंगे। यदि माना जाये कि वहाँ से उसका उत्तर तुरन्त भेज दिया जायेगा तो भी उसके पृथ्वी पर पहुंचने तक यहाँ सन् 1662 चल रहा होगा तब तक वैज्ञानिक या तो मर चुका होगा या बूढ़ा चारपाई में पड़ा होगा।

यह एक निराशाजनक कल्पना थी जिसने फ्रास के सुझाव को अमान्य कर दिया किन्तु पीछे मैरिनर-2 उपग्रह जो शुक्र को भेजा गया था उसके द्वारा भेजे संकेत और क्वासार-तथा लेसर किरणों के अस्तित्व में आ जाने से यह कठिनाइयाँ दूर होती प्रतीत हो रही हैं। एक कठिनाई यह भी है कि नक्षत्रों से आने वाले संकेत वायु, मंडल की ऊपरी सतह में आकर घुल जाते हैं या दूसरी तरफ बाहर ही बाहर बह जाते हैं और ध्रुवों में रहकर परीक्षण के अभी उपयुक्त साधन नहीं हैं पर चन्द्रमा आदि ग्रहों की खोज और वहाँ लेसर व क्वासार यन्त्रों की स्थापना से सम्भव है लेसर किरणें 100 करोड़ वाट प्रति वर्ग सेंटीमीटर तीव्र प्रकाश उत्पन्न कर सकती हैं जो सूर्य प्रकाश से 10 लाख गुना प्रखर होता है। यह कठिनाई शीघ्र दूर हो जाये और अंतरिक्ष में विकसित सभ्यता का पता लगाना सुगम हो जाये। ऐसा दिन दूर नहीं हैं। पुराण की बात को भले ही लोग अतिरंजित कल्पना मानें पर यह वैज्ञानिक तथ्य तो गलत नहीं हो सकते। यदि वैज्ञानिक उपलब्धियां सच निकलीं तो आज न सही कल तो लोगों को भारतीय परलोकवाद का आश्रय लेना ही पड़ेगा यदि ऐसा हुआ तो आज का विज्ञान अध्यात्मवाद से निश्चित ही प्रभावित होगा, वह दिन अब अधिक दूर भी नहीं है जब यह सब कुछ सच होकर ही रहेगा।


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