परम योगी शुकदेव को आश्चर्य हुआ कि वैभव पूर्ण जीवन बिताने वाले राजा जनक को लोग विदेह और परम ज्ञानी क्यों मानते है? शुकदेव ने महाराज जनक का आतिथ्य स्वीकार किया उन्होंने जनक को रत्न जटित पात्रों में स्वादिष्ट भोजन करते देखा और वस्त्र भी वे एक से एक बढ़कर कीमती पहने थे। शुकदेव को घोर निराशा हुई उन्हें विदेह का जीवन क्रम इन्द्रिय लोलुप व्यक्ति जैसा प्रतीत हुआ । अपार वैभव विलास के बीच रहकर भी कोई योगी रह सकता है वे इस बात की कल्पना तक भी स्वीकार नहीं कर पाये।
प्रातःकाल होते ही महाराज जलन ने सरयू स्नान का प्रस्ताव रखा। दोनों ही स्नान करने गये। जनक ने बहुमूल्य वस्त्र उतार कर नदी के किनारे पर रख दिये और स्नान के लिए जल में उतरे। शुकदेव ने भी वल्कल वस्त्र उतार दिये। स्नान के बाद दोनों ही संध्या पूजा में मग्न हो गये। अभी संध्या प्रारम्भ किये कुछ ही समय हुआ था कि किनारे पर खड़े अनेक व्यक्तियों ने चिल्लाना शुरू किया “आग-आग “ सचमुच समीपवर्ती भवन पूरी तरह आग की लपेट में आ गये थे। घाट पर भी आग फैलने की पूरी आशंका थी।
शुकदेव का ध्यान टूटा उन्होंने देखा कि किनारे का भवन धू-धू कर जल रहा है। वह अपने विकलन वसन लेने तट की ओर दौड़े । पर सम्राट को कोई चिन्ता नहीं । ध्यान में मग्न । सम्राट पूजा करके उठे तो तपस्वी शुकदेव ने अग्निकाँड की सारी घटना सुनाई।
विदेह ने मुस्कराते हुए कहा- मैं क्या? सभी मिथिला ही जल जाती । पर उसमें मेरा कुछ न जलता।
जनक के निर्लिप्त भाव ने तपस्वी की शंका का समाधान कर दिया।