अन्ध विश्वास जो विज्ञान बन रहा है औरविज्ञान अन्ध विश्वास

July 1971

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सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ॰ एहरन वर्ग अपनी कमर में एक तुलसी की लकड़ी का टुकड़ा बाँधे रहते थे। तुलसी की लकड़ी की ही एक कन्ठी कण्ठ में भी धारण किये रहते थे। एक बार उनके एक मित्र ने उनसे कहा-आप भी लगता है भारतवर्ष हो आये है,वहाँ के लोग बड़े अन्ध विश्वासी होते हैं छोटे छोटे बच्चों से लेकर बूढ़े तक कोई कंठी धारण किये रहते हैं तो कोई धातुओं के आभूषण, पूछो तो कहेंगे-इससे भूतो से रक्षा होती है, नजर ही लगती।

विचारशील वैज्ञानिक ने हँसकर कहा-अशिक्षा के कारण वहाँ के लोग सही बात का स्पष्ट विश्लेषण कर पाते हो वह अलग बात है पर इन बातों को मात्र अन्ध विश्वास न कहकर यह मानना चाहिये कि उनके पीछे कोई ठोस वैज्ञानिक आधार छिपे हुये है यदि उन्हें खोजा जाये तो उनसे नई वैज्ञानिक स्थापनाएं प्रकाश में आ सकती है। मैं तुलसी की लकड़ी पहने रखता हूँ आप नहीं जानते यह छोटी सी लकड़ी मुझे सैकड़ों रोग-कीटाणुओं से बचाती है। बीमारियों से रक्षा करती है।

एक मुट्ठी हवा में जितने सूक्ष्म कीटाणु होते हैं यदि वह सब मनुष्यों जितने बड़े आकार के हो जाये तो सारी धरती भी उनके रहने के लिये कम पड़ जाये।(1) फेयरी श्रिम्प (2)प्लैनेरिया (3)हाइड्रोजन (4) नेमाटोड नेक्टील्यूका (5) प्रोटोमिक्सा (6) डाइनोफलैजेलेट (7) हैलोस्फीरा आदि कीटाणु ऐसे है जिन्हें देखना चाहे तो इलेक्ट्रानिक माइक्रोस्कोप से कम ताकत का सूक्ष्मदर्शी काम नहीं देगा। इन अदृश्य जीवों से उत्पन्न विकृतियों और बीमारियों से बचने के लिये कुछ कवकरण वाली धातुएं और जड़ी-बूटियाँ पहनी जाती हो और इन रोग कृमियों को भूत जैसा अदृश्य हानिकारक कहा जाये तो उसे अन्ध विश्वास नहीं कहा जाना चाहिए।

कही प्रस्थान करने से पूर्व बड़ा के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेना पढ़े लिखो की दृष्टि में अन्ध विश्वास हो सकता है कई स्थानों में आज भी मंगल कलश रखकर और स्वस्ति वाचन के साथ यात्रायें प्रारम्भ करने के विधान है कन्या की विदा,तीर्थयात्रा जैसे धार्मिक अवसरों पर ऐसा अनिवार्य रूप से किया जाता है उसे अन्ध विश्वास कहा जाता है पर किसी”ध्वनि-विद्या” के वैज्ञानिक को यह बात मालूम हो जाये तो उसे विज्ञान की शोध की नई दिशा मिल जाये । शब्द की सामर्थ्य से आज सारा विज्ञान जगत प्रभावित है। अमेरिका के राष्ट्रपति कैनेडी की एक असाध्य बीमारी मंत्र से ठीक हुई यह कहा जाये तो लोग अन्ध विश्वास कहेंगे पर यदि उसे ही यह कहा जाये कि राष्ट्रपति कैनेडी की चिकित्सा “अल्ट्रासाउण्ड” द्वारा की गई तो उसे प्रामाणिक माना जायेगा। अल्ट्रासाउण्ड और मन्त्र दोनों समानार्थी है दोनों के उच्चारण और प्रयोग के तरीके भिन्न है यदि हमें मनुष्य शरीर यन्त्र की वास्तविकता और इसमें भरी आध्यात्मिक सामर्थ्य का पता होता तो मानते कि आशीर्वादवाची शब्द से लेकर स्वस्तिवाचन तथा मंत्र भी अन्ध विश्वास नहीं विज्ञान भूल तथ्य है केवल उन्हें आज के युग के संदर्भ में प्रस्तुत करने भर की कमी है यदि उसे वैज्ञानिक धरातल पर रखा जा सके तो यह मंत्र विद्या,शब्द विद्या अणुबम से भी आश्चर्यजनक चमत्कार उत्पन्न करती है, कर सकती है।

यह बीसवीं शताब्दी है इसमें किसी स्वर्गीय आत्मा द्वारा संस्कारित भूमि के महत्व

,तीर्थयात्रा, मंत्र जन्त्र पर विश्वास को अंध श्रद्धा कहा जाये तो एक नहीं लाख शिक्षित व्यक्ति उसका समर्थन करने लग जायेंगे सिद्धि के नाम पर ठगी और ढा़ग की निन्दा ही नहीं की जानी चाहिये उसकी उपेक्षा और प्रतिवाद भी आवश्यक है किंतु वहाँ यह भी आवश्यक है कि संस्कारों के सूक्ष्म अस्तित्व और मन्त्रविद्या कि वैज्ञानिक रहस्यों की भी जाँच हो। उनमें सत्यता का प्रतिपादन करने वाली घटनायें आज भी देखी जा सकती है। राजकोट से छपने वाला गुजराती जयहिन्द अखबार अपने 16-5-71 के संस्करण में “हाथ की उँगली से 3 मन वजन का पत्थर उठ सकता है क्या ?” शीर्षक से श्री नगेन्द्र पारेख का लेख छपा है “बीसवीं शताब्दी का विस्मय”।पूना से 16 मील दूर शिवपुर गाँव में “करम अली दरगाह “ में 3 मन का पत्थर पड़ा है।उस पत्थर को 11 आदमी दाहिने हाथ की उँगली लगाकर करम अली दरवेश बोले पत्थर अपने आप उठ जाता है।भगवान् राम का नाम लेकर उनकी शक्ति का विश्वास करके बन्दरों ने समुद्र में पत्थर तैरा दिये थे यह पौराणिक गल्प हो सकता है पर इस कथानक में सगिहित विश्वास की शक्ति का एक प्रतीक आज भी शिवपुर गाँव में देखा जा सकता है।धूल के एक लघुतम टुकड़े शक्ति की तुलना “मीथेन गैस” से तुलना की जाती है।एक चिंगारी से आग लगा दी जाये तो 68 पौंड आटे का बोरा 4000 वर्ग फीट कमरे में धूल के रूप में बदल जायेगा।इसके धमाके की शक्ति इतनी प्रचंड होगी कि उससे 24000 टन वजन को 100 फीट ऊपर उठा दिया। बुफैलो अमरीका में एक वार एक कारखाने में धूल के एक कण का धोखे से विस्फोट हो गया उससे 33 व्यक्ति तत्काल मर गये 80 व्यक्ति घायल हो गये सारी फैक्टरी धराशायी हो गयी और आस पास की इमारतोँ कंपन आ गया दराज पड़ गये।धूल के कण की महत्ता वैज्ञानिकों के सामने है। शब्दशक्ति की प्रचण्डता वे उससे भी अधिक मान चुके है पर भावनाओं द्वारा शक्ति और पदार्थ के संचालन में कही जाती है तो उसे अन्ध विश्वास कह दिया जाता है जबकी विज्ञान पदार्थ के साथ अपदार्थ का अस्तित्व और उसकी गणितीय शक्ति का भी अनुमान कर लिया है।फिर मंत्र शक्ति को भी विज्ञान भूत तथ्य मानने में किसी पदार्थवादी को संकोच क्यों होना चाहियें?

“वेधक दृष्टि” नाटक या ध्यान साधनायें-तथाकथित बुद्धिवादियों के लिये अन्ध विश्वास है।और समय की बर्बादी तो डॉ॰ मेस्मर के मैस्मरेजम और डॉ॰ क्लैरीगटन की “इविल आई” को क्या कहा जायेगा? जिन्होंने अपनी अन आध्यात्मिक साधनात्मक सिद्धांतों की शोध के आधार पर न केवल विज्ञान को चमत्कृत कर दिखाया वरन् यह भी सिद्ध कर दिया कि ध्यान अपने आप में प्रकाश,विद्युत और चुम्बक से भी शक्तिशाली विज्ञान है। डॉ॰चार्ल्स बाइडिन ने कई प्रयोग और प्रदर्शन करके ध्यान की एकाग्रता की सामर्थ्य को प्रमाणित किया था।वे एकान्त अंधेरे में बैठकर हजारों मील दूर हो कही घटनाओं के चित्रण अक्षर -ब अक्षर ऐसे का दिया काते थे जैसे टेलीविजन और बेतार का तार काम कंता हसंइतवने पर भी लाँ ध्यान के महत्व को नहीं मानें तो उनका अन्ध विश्वास; न कि धर्म और दर्शन का।

भूतों का भ्रम फैलाने के मनगढ़ंत प्रयोगों की निन्दा की जानी चाहियें और इस के कारनामों द्वारा लोगों को ठगने वाले ओझाओं,झाड़-फूँक करने वालो की उपेक्षा की जानी चाहिये किन्तु “सोसायटी फॉर आईफिकल रिसर्च “के अध्यक्ष-डॉ॰जी.एन.एम टीरेल की भूत सम्बंधी खोजों को भी अमान्य नहीं करना चाहियें क्योंकि उसमें मनुष्य जीवन के एक कठोर सत्य “कर्मफल”का विज्ञान छिपा हुआ है उसे न जानने के कारण ही आज संसार दिग्भ्रांत हो रहा है तथा पापात्माओं का जमघट बोलता जा रहा है।

डॉ॰ टीर्यन एडवर्ड्स ने एक वार कहा था कि--अन्धविश्वास किसी न किसी की छाया होती है छाया की उपेक्षा करें पर सत्य को भी प्रकाश में आने दें अन्ध विश्वास हानिकारक बना रहेगा जबकी वह वैज्ञानिक सत्य की छाया होता है सत्य की उपेक्षा से लोग दिग्भ्रांत होते और जीवन के वास्तविक लक्ष्य से वंचित रह जाते हैं।

विज्ञान को ही पूर्ण सत्य मानना भी अन्ध विश्वास है। विज्ञान सामयिक विश्लेषण है अंतिम सत्य नहीं ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार अन्ध विश्वास सामयिक भ्रम हो सकता है पर आधारभूत असत्य नहीं।”टालेमी” के सिद्धान्त किसी समय खगोल विद्या के अंतिम सत्य माने थे पर आज के वैज्ञानिक डॉ॰ फ्रेड हायल और पालोमोर जैसी वेदशालाओं ने उसे झूठा कर दिया।विज्ञान की पुस्तकों में “डाल्टन की एटामिक” थ्योरी पढ़ाते समय बेचारे विज्ञान के लेक्चरार भी अनुभव करते हैं कि हम विद्यार्थियों को एक गलत हो गया सिद्धान्त केवल इसी लिये पढ़ाते हैं कि वह पाठ्यक्रम में शामिल है।परमाणु सिद्धान्त अब अ-पदार्थ एण्टी एलीमेंट सिद्धान्त तक जा पहुँचा फिर भी वही पुरानी पढ़ाई थ्या उसे वैज्ञानिक अंधविश्वास नहीं कहा जायेगा।

विकास शास्त्री मनुष्य को एक कोशीय जीव का विकसित जन्तु मानते हैं। “दि ओल्ड राइडिल एण्ड दि न्यूएस्ट एन्सर”पुस्तक के पेज 64 में डॉ॰ जे हक्सले ने कुछ अस्थिपंजरों द्वारा सिद्ध किया है कि यह घोड़े के जातियों वाले मनुष्य के पूर्वज है। उसकी यह प्रतिस्थपना ही मनुष्य के विकास का सिद्धांत बन गया।और उसके बाद सर. जं. डब्ल्यू. डासन ने एक पुस्तक लिखी-”मार्डन आइडिया आफ इवोलेशन” नामक इस पुस्तक के पेज 116 में उन्होंने प्रमाण देकर हक्सले की प्रतिस्थापना को गलत सिद्ध कर दिया।उसे वैज्ञानिकों ने माना भी किन्तु हक्सले का सिद्धान्त अभी भी अपने स्थान पर टिका है।इससे चलता है कि आज का विज्ञान वस्तुतः अन्ध विश्वास और इस कम्युनिस्ट मान्यता पर टिका हुआ है कि बात कुछ भी हो प्रचार इतना अधिक करो कि झूठ भी सच हो जाये।

विख्यात वैज्ञानिक और महान् लेखक डॉ॰ विलियम ली हावर्ड ने एक “रोगमुक्त करने की क्षमता” पुस्तक लिखी है उसमें उन्होंने ऐलोपैथिक चिकित्सा विज्ञान को-अन्धा-बहरा-लूला और लंगड़ा बनाने वाला लिखा है कि यह औषधियां सन्देशवाहक तंत्रिकाओं तथा उनके प्रमुख स्टेशनों को नष्ट कर डालती है उन्होंने उसके सैकड़ों उदाहरण देकर इस दावे को सिद्ध किया है। “एनसाइक्लोपीडिया अमेरिकाना” कि लेखक डॉ॰ ओस्लर ने भी एलोपैथी के सिद्धांतों का खंडन करते हुये लिखा है कि रोग को औषधियां नहीं उपवास, व्यायाम, स्नान मालिश आदि विजातीय द्रव्य हटाने वाले साधन ठीक करते हैं तो भी आज का बुद्धिवादी अन्ध विश्वास ही करना चाहिये कि दिनों दिन उसी हानिकारक चिकित्सा पद्धति अपंगु और अन्धा बनाने वाला है फिर भी उसे लाँ मानते नहीं। आज के इस अन्ध विश्वास जिसने सभ्यता का रूप ले लिया उस पर रोना आता है उधर प्राचीन अंधविश्वासों के पीछे खड़ा सत्य व्यक्त होने के लिये रो रहा है। इस धमा चौकड़ी में अंतिम विजय किसकी हो यह निश्चित करना आज के विचारशील लोगों पर है वही इस समस्या का कुछ निंदा प्रस्तुत करे। अन्यथा वैज्ञानिक अन्ध विश्वास, धार्मिक अन्ध विश्वास से कही अधिक पतन और संकट का कारण हो सकता है।


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