प्रणीवीर्यरसान्तस्था संविज्ज्गंममानतम्। तनोति लतिकान्तस्थो रसः पुश्पफलं यथा॥
चिच्छक्तिर्वासना बजरुपिणी स्वापधर्मिणी। स्थिता रसतया नित्यं स्थावरादिशु वस्तुशु॥
अर्थात्- जिस प्रकार प्राणियों के वीर्य में वास करने वाली चेतना शरीर के रूप में होती और चेतन वस्तुओं का विकास करती है उसी प्रकार वृक्ष लताओं के रस में चेतना होती है वह अपना आनंद फूल और फलों के रस रूप में व्यक्त करती है। बीज रूप चेतना जड़
या चेतन दोनों में एक ही हैं। एक अपनी जड़ता के कारण जड़ रूप में आ जाती है दूसरी सक्रियता के कारण जड़ रूप में।
इस सिद्धांत के आधार पर ही भारतीय तत्वदर्शी यह बताते हैं कि मनुष्य को अपनी चेतना का परिष्कार इस हद तक करना चाहिये कि वह शरीर के तुच्छ भोगो ते ही सीमित न रहकर विश्व-व्यापी विराट चेतना तक पहुँच जाये। यदि वह ऐसा नहीं करता, इन्द्रिय भोगो की ओर आकृष्ट होकर अपनी चेतना को शिथिल और निष्क्रिय बनाता है तो उसे जड़ योनियों में जन्म लेना पड़ता है।
इन तथ्यों की पुष्टि के लिये जीव चेतना को प्रमुख आधार मानकर वैज्ञानिक व्यवस्थायें की जाये तो जो बाते भारतीय तत्व दर्शियों ने बहुत पहले कही थी उनकी पुष्टि आज नितान्त सम्भव है। पर यदि विज्ञान उन बातों को नहीं मानता , तो ऐसी घटनायें प्रस्तुत की जा सकती है जो इन बातों की पुष्टि करे। उदाहरण के लिए जीव विज्ञान कस एक उदाहरण नीचे दिया जा रहा है जो यह सिद्ध करता है कि वृक्षों में भी वैसी ही सुख-दुःख अनुभव करने वाली चेतना विद्यमान है जिस तरह मनुष्य शरीर में ।