मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।

July 1971

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सुख-दुख, सफलता-असफलता, उत्थान-पतन का हेतु “भाग्य” को मानने वालो को यह भी समझ लेना चाहिए कि भाग्य क्या है और उसका निर्माण किस प्रकार होता है ?यह विश्वास कर लेना कि परमात्मा स्वयं अपनी मर्जी से जिसके भाग्य में जो कुछ चाहता है लिख देता है , ठीक नहीं । ऐसा मानना परमात्मा की न्यायशीलता पर लाँछन लगाना है। किसी के भाग्य में सुख और किसी के के भाग्य में दुख लिख देने में परमात्मा की क्या अभिरुचि हो सकती है? वह क्यों तो अपनी ओर से सुखी बनाएगा । किसी को दुःखी बनाएगा। सुखी व्यक्ति से उसे कोई लोभ नहीं होता और दुखी व्यक्तियों से कोई शत्रुता नहीं होती । वह तो सबका पिता है। सारे प्राणी उस समान रूप से प्यारे होते हैं। सबके प्रति उसका समान भाव रहता है। वह न किसी का पक्ष करता है और न किसी का विरोध।

भाग्य अथवा प्रारब्ध मनुष्य के अपने कर्मों का फल होता है। जो मनुष्य करने योग्य शुभ कार्य करता है उसका परिपाक सौभाग्य के रूप में उसे प्राप्त होता है और जो अपना जीवन अशुभ कर्मों में लगाता है वह उसके परिपाक के रूप में दुर्भाग्य का भागी बनता है। इसमें भगवान को भला बुरा भला कहने का न तो कोई औचित्य है और न लाभ । मनुष्य के भाग्य निर्माण से परमात्मा की अपनी इच्छा अथवा मर्जी का कोई सम्बन्ध नहीं है। अपने भाग्य के साथ परमात्मा की कृपा अथवा अकृपा को जोड़ लेना अज्ञान सूचक विचार है।

ऐसे अज्ञानपूर्ण विचार रखने वालो को एक बड़ी हानि होती है कि वे भाग्य निर्माण के लिए अपने कर्मों की ओर ध्यान न देकर परमात्मा की ओर ही देखा करते हैं इसी भ्रम के आधार पर वे भाग्यवादी कर्मों से विरत रहकर परमात्मा को मनाने और उसे प्रसन्न करने का उपक्रम करते रहते हैं और चाहते हैं कि उनकी पूजा अर्चना से प्रसन्न होकर परमात्मा कर्मफलों का अपना अडिग नियम बदल दे और उनके दुर्भाग्य के स्थान पर सौभाग्य को लेख लिख दे।

वह कुछ ऐसा चमत्कार कर दे कि वे बिना कुछ किये जिधर हाथ फैला दे उधर सारी सम्पत्तियाँ और सारी विभूतियां भागकर उनके पास आ जाये। परमात्मा उन्हें ऐसा भाग्यवान बना दे कि वे जिस वस्तु को छू दे वह सोना हो जाये। कदम रखते ही सफलता । किन्तु निश्चय मानिये ऐसा कभी नहीं हो सकता।जो बात जिस नियम के अंतर्गत होगी वह उसी नियम के अनुसार चलेगी । ईश्वरीय नियमों को अपवाद बना सकने की आशा कभी पूरी नहीं हो सकती। भाग्य मनुष्य के कर्मों का फल होता है । वह उसके शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार ही बनता-बिगड़ता है।

भाग्य का निर्माण न तो कोई आकस्मिक संयोग है और न उसका बनना बिगड़ना किसी अन्य व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर है। यह कर्म फलों का एक विधान है और इसका निर्माता स्वयं मनुष्य ही होता है।यदि मनुष्य चाहता है कि उसके भाग्य में श्री-समृद्धि, वैभव, ऐश्वर्य और सुख सुविधाओं का समावेश हो तो उसे सत्कर्मों में प्रवृत्त होना होगा । अच्छे विचार रखने और अच्छे कर्म करने होगे।

इस प्रतिपादन के साथ ही यहाँ पर यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि संसार में ऐसे बहुत से लोग देखे जोते हैं जो कर्मों के नाम पर असत्कर्म करते रहते हैं और भाग्य के नाम पर सौभाग्य भोगते हैं। निःसन्देह यह एक विचित्र और भ्रम में डालने वाला संयोग है। अनीति , अन्याय और अनाचार का फल तो दुःख तथा दण्ड होना चाहिये लेकिन बहुत से लोग इस आधार पर लाभ उठाते देखे जाते हैं। सौभाग्य सुख भोगते दीखते हैं। लेकिन दुःख और दण्ड आहरी ही तो नहीं होते । उनका एक भोग मानसिक और आध्यात्मिक भी तो होता है, जो प्रायः ऊपर से दिखलाई नहीं देता । कौन कह सकता है कि जिन अनीतिवानों को हम बाहर से प्रसन्न और सुखी देख रहे हों

उनके हृदय में शोक संतापों का दावानल जल रहा हो। उन्हें रेशमी गद्दों पर पड़े पड़े चिन्ता और आशंकाओं से करवटें बदलनी पड़ती हैं यह सर्वथा सम्भव है कि उनकी अनीति उनकी आत्मा को दिन दिन नरक के द्वार की ओर खींच रही हो । यह तो वह भुक्त भोगी ही जान सकता है जो ऊपर से तो प्रसन्न तथा सुखी दीखता है और भीतर ही भीतर नरक की यातना भोग रहा हो।

पापियों और दुष्टों को सुविधापूर्ण स्थिति में देखकर कर्म फलों के परिपाक में अविश्वास करने की भूल न कर लेनी चाहिये। यह सर्वथा असम्भव है कि पाप कर्म करने पर भी कोई सुख सौभाग्य का अधिकारी बन सकता है। कर्मों का परिपाक किसी एक जन्म में ही नहीं होता । उनका मनुष्य के पूर्व जन्मों से भी सम्बन्ध होता है। जो वर्तमान में अशुभ कर्म करता हुआ भी भाग्यवान दिखलाई देता है वह वास्तव में अपने पूर्व जन्मों के शुभ कर्मों का भोग कर रहा होता है और वर्तमान कुकर्मों द्वारा आगामी जीवन में दुर्भाग्य भोगने की भूमिका तैयार करता है। भाग्य अभाग्य मनुष्य के कर्मों का ही फल होता है-इस सत्य के प्रति भ्रम में न आना चाहिए। यह एक अटल नियम है इसमें परिवर्तन सम्भव नहीं।

भाग्य मनुष्य के कर्मों के आधार पर बनता है और कर्मों के लिये वह स्वतन्त्र है। इस प्रकार मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता है वह जिस प्रकार के शुभ और अशुभ कर्म करता चलेगा उसी के अनुसार उसका अच्छा बुरा भी बनता जायेगा । जिसमें भाग्यवान बनने की इच्छा हो उसे चाहिए कि वह उनके अनुरूप कर्तव्य करने लगे। ईश्वर तो केवल भाग्य लिखने वाला लेखक मात्र है उसका निर्णायक नहीं । मनुष्य के कर्मों के अनुसार वह उसके भाग्य लिपि लिखते रहने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकता । अन्य देवी देवता तो दूर, ईश्वर ने स्वयं भी अपने पास यह अधिकार नहीं रक्खा है कि वह मनुष्य के कर्मों के विरुद्ध उसका शुभ या अशुभ भाग्य लिख सके। मनुष्य अपने सत्कर्मों के बल पर अपने भाग्य में मनोवाँछित बाते लिखने के लिए उसे विवश कर सकता है। तथापि वह किसी मिन्नत मनौती द्वारा अपकर्मों के बदले में भाग्य की शुभ लिपि लिखने के लिए उसे राजी नहीं कर सकता।

सत्कर्म करिये, सौभाग्यशाली बनिए। दुष्कर्म करिए और भाग्य को भयानक बना लीजिए-यह सर्वथा अपने हाथ की बात है। इसका सम्बन्ध अन्य किसी दृश्य अथवा अदृश्य शक्ति वंसयोग से नहीं है।

भाग्य निर्माण के लिए जिस कर्म पथ का निर्माण करना होता है वह भी मनुष्य को स्वयं ही बनाना होगा । उसका यह कार्य भी किसी दूसरे पर निर्भर होकर नहीं हो सकता । परमात्मा ने मनुष्य को इतनी स्वाधीनता, क्षमता और शक्ति देकर ही इस कर्मभूमि में भेजा है कि वह अपने लिये उपयोगी तथा अनुकूल परिस्थितियों का स्वयं सृजन कर सके मनुष्य अन्य जीव-जंतुओं की तरह इस विशय में न तो विवश है और न पराधीन ।

अपना कर्तव्य पथ बनाने और उस पर चल कर लक्ष्य तक पहुँचने के लिये मनुष्य को पूर्णतया आत्म निर्भर ही होना पड़ेगा। दूसरों पर निर्भर होकर वह अपने ध्येय की पूर्ति नहीं कर सकता। संसार में सभी के पास अपने अपने काम और अपनी अपनी समस्याएं है। उन्हें उनसे ही फुर्सत नहीं मिल पाती तब भला वे किसी दूसरे के ध्येय को पूरा करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर किस प्रकार ले सकता है। और यदि भावुकतावश ले भी लेगा तो उसे पूरा करने में असफल ही रहेगा।यदा कदा किन्हीं समस्याओं अथवा कामों में किन्हीं दूसरों की सहायता तथा परामर्श तो लिया जा सकता है पर उन निर्भर नहीं रहा जा सकता कोई बुद्धिमान और सज्जन व्यक्ति आवश्यकता पड़ने पर रास्ता तो बतला सकते हैं लेकिन किसी के बदले रास्ता तय नहीं कर सकते और न कन्धे पर बिठा कर लक्ष्य तक पहुँचा सकते हैं। वह रास्ते तो मनुष्य को स्वयं अपने पैरों से चलकर पूरा करना होगा। किसी के बलबूते पर उन्नति और प्रगति की आशा उसी प्रकार से उपहासास्पद है जिस प्रकार यह आशा करना कि किसी दूसरे का खाया अन्न हमारे स्वास्थ्य के लिये उपयोगी होगा। अपना खाया अन्न तो अपने पेट के पचाये ही काम आयेगा।

प्रशस्त कर्तव्य पथ का निर्माण स्वावलम्बन द्वारा ही हो सकता है। अपनी उन्नति और सफलता के लिये दूसरों का मुँह ताकने वाले संसार से कुछ नहीं कर सकते , सिवाय इसके कि दूसरों के पास जा जाकर उन्हें निराश ही होता रहना पड़े। नरावलम्बी व्यक्ति की वे सारी शक्तियाँ, क्षमताएं और विशेषतायें कुण्ठित हो जाती है जिन्हें देकर परमात्मा ने उसे संसार में स्वतन्त्र रूप से कर्म करने को भेजा होता है। परावलम्बन से आत्म हीनता , आत्म-विश्वास और साहसहीनता का भाव ओढ़ता है। ऐसा व्यक्ति अपनी रहता है। उसे अपनी समस्याओं पर आप विचार करने , उपयोगी निर्णय लेने और कठिनाइयों से टक्कर लेने का साहस नहीं रहता ।

परावलम्बी जहाँ अपनी सफलता के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है वहाँ वह बहुधा अपनी कठिनाइयों और प्रतिकूलताओं का कारण भी दूसरों को ही मानता है । वह सोचता है कि अमुक व्यक्ति के ईर्ष्या द्वेश अथवा विरोध असहयोग के कारण ही उस पर ये कठिनाइयाँ आई है। इसके विपरित स्वावलम्बी व्यक्ति सदैव अपने बल, अपनी योग्यता और अपने प्रयत्नों में विश्वास करता है। वह आत्मविश्वास से उत्पन्न साहस के साथ आगे बढ़ता है, परिश्रम तथा पुरुषार्थ पूर्वक अपना पथ प्रशस्त करता है और दृढ़तापूर्वक उस पर अग्रसर होता है। उसके मार्ग में जो कठिनाइयाँ और विपत्तियाँ आती है उनका डटकर मुकाबला करता और उन पर विजय पाता है।

पुरुषार्थी व्यक्ति , जोकि अपने बलबूते पर ही बढ़ने के विश्वास रखता है अपनी परिस्थितियों का दोष किसी दूसरे को नहीं देता वह उनका कारण अपनी किन्हीं कमियों अथवा असावधानियों को ही मानता है। वह जानता है कि यह संसार एक दर्पण की तरह है जिसमें अपना ही रूप दीखता है । इस जड़ तथा निरपेक्ष संसार में ऐसी शक्ति नहीं जो किसी के लिए अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थितियां निर्माण कर सके। जिसे प्रकार मकड़ी अपना जाला आप बुनती है और उसी में विचरण करती रहती है। उसी प्रकार मनुष्य अपने गुणों और दोषों के आधार पर अपनी भली बुरी परिस्थितियाँ स्वयं बनाता है और उनमें उलझता सुलझता रहता है।

स्वावलम्बी व्यक्ति अपनी परिस्थितियों का उत्तरदायी स्वयं को मानता है। इस कारण वह उनके निवारण के लिये अपने अन्दर ही सुधार और विकास लाता है। अपनी इस ठीक नीति के कारण वह जल्दी ही अपनी अवाँछित परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर लेता है ओर आगे की ओर बढ़ चलता है। चूँकि परावलम्बी अपनी प्रतिकूलताओं ओर कठिनाइयों का कारण दूसरों को मानता है इसलिये वह उनके निवारण के लिये भी परमुखापेक्षी बना रहता है। सोचता है कि दूसरे सुधरे अच्छे बने और उसके साथ सहयोग करे तो उसकी कठिनाइयाँ दूर हो और वह आगे बढ़ सके। इस परावलम्बन का फल यह होता है कि अपने को उत्तरदायी न समझने के कारण वह अपना सुधार नहीं करता और उन्हीं परिस्थितियों में उलझा पड़ा रहता है।

मनुष्य को चाहिये कि वह भाग्य का निर्माता स्वयं अपने को माने । सौभाग्य के लिये सत्कर्म करे और कर्तव्य पथ पर जो भी बाधायें तथा कठिनाइयाँ आवे उन्हें स्वावलम्बी भावना से दूर करता हुआ बो बढ़ता जाए। संसार में अपने किये ही अपने काम पूरे होते हैं, अपने चले ही यात्रा पूरी होती है और अपना पसीना बहाने पर ही उन्नति तथा श्रेय का सौभाग्य मिलता है यह कभी भी नहीं भूलना चाहिये । ईश्वर ने मनुष्य को सबसे योग्य और सर्व सक्षम बनाया है । वह अपना विकास किसी भी सीमा तक कर सकता है और उन्नति के कितने ही उच्च शिखर पर पहुँच सकता है।


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