पूर्णमासी का चन्द्रमा शीश पर आकर झिलमिलाया और राजहंसों की टोली मान-सरोवर के प्रवास पर निकल पड़ी । हंस-शिरोमणि श्वेताक्ष दल का नेतृत्व सम्भाल कर आगे आगे उड़ रहे थे ओर भल्लाक्ष सबसे पीछे संरक्षक के रूप में । नीरव निशा का यह मौन-प्रवास ऐसा लग रहा था मानो विधाता की कोमल भावनाएं पर्यटन के लिये निकली हो और संसार के सुख-दुख का सर्वेक्षण कर रही हो ।
“श्वेताक्ष ! भल्लाक्ष ने निस्तब्धता तोड़ते हुए कहा-महामहिम जनश्रुति पौत्रायण की कीर्ति पताका भी विश्व इतिहास के आकाश में आज के चन्द्रमा के समान ही दमक रही है। उन्होंने अपना सारा जीवन प्रजा की भलाई में लगा दिया है । उनके राज्य में कोई भी दुःखी नहीं है-तुम सम्भवतः नहीं जानते होगे कि इस समय हम उन्हीं की राजधानी के ऊपर उड़ रहे है यह जो गगनचुम्बी अट्टालिकायें दीख रही है यह उन्हीं का प्रासाद है सचमुच वे बड़े ब्रह्मा ज्ञानी है।
श्वेताक्ष ने हँसकर कहा सच कहते हैं तात ! जनश्रुति पौत्रायाण एक महान आत्मा है। उनके गुणों की जितनी प्रशंसा की जाये उतनी कम है किन्तु वक ब्रह्मज्ञानी है इसमें अभी सन्देह है वित्तेषणा , पुत्रेषणा का त्याग ही नहीं करता जब तक योगी यश की कामना का भी परित्याग नहीं करता तब तक वह ब्रह्माविद नहीं हो सकता । ब्राह्मण तो सारे राष्ट्र में एक रैक्व मुनि ही है जो धन-निर्धन , यश, अपयश , मान , अपमान में सदैव एक समान निर्लिप्त जीवनयापन करते हैं।
महाराज जनश्रुति पक्षियों की भाषा समझते थे। पहले तो उन्हें राजहंसों की वार्ता कौतूहल वर्धक लगी पर जब उन्होंने अपने ही राज्य में रैक्व नामक किसी अन्य साधु की श्रेष्ठता की चर्चा सुनी तो उनका स्वाभिमानी अन्तःकरण मर्माहत हो उठा । आज तक उन्होंने प्रशंसा सुनी थी , यशोगान सुने थे किसी और को उनसे बड़ा बताया गया हो ऐसा वाक्य उन्हें पहली बार सुनने को मिला था सो उन्होंने महामुनि रैक्व का पता लगाने और सच्चे ब्रह्मा ज्ञानी की पहचान करने का निश्चय कर लिया ।
प्रातःकाल हेम, गज-रथ लेकर रैक्व मुनि से भेंट के लिये प्रस्थान किया । दिन भर यात्रा करने के उपरांत एक गाँव के किनारे मिले । एक छोटी सी बैलगाड़ी के सामने एक साधारण से बिस्तर पर बैठे रैक्व ग्रामवासियों को सुखी जीवन के स्वर्ण सूत्र समझा रहे थे । महाराज के सम्मुख आता हुआ देखकर उन्होंने वार्ता स्थगित कर उनका स्वागत किया बैठाया और जहाँ से प्रवचन छोड़ा था आगे की बात कहनी प्रारम्भ करदी । महाराज को संक्षिप्त स्वागत से सन्तोष न हुआ पर वे उस समय कुछ बोले नहीं ।
सभा विसर्जित हुई महाराज ने अपार धन महात्मा रैक्व को समर्पित करते हुये कहा-भगवान आप इतने विद्वान् होकर भी गाड़ी में भ्रमण करते हैं यह धन ले और अपनी दरिद्रता दूर करे ।
रैक्व ने उसे अस्वीकार करते हुए कहा-राजन् ! धन से लोगों की स्थूल सेवा हो सकती है आत्म-कल्याण का मार्ग दर्शन नहीं मुझे यह गाड़ी ही सर्वोत्तम धन है कहकर उन्होंने राजा की भी परवाह न करते हुए भी अपनी गाड़ी जोती और वहाँ से आगे के लिये चल पड़े । महाराज ने निर्लिप्त भाव से , यश अपयश की चिन्ता किये बिना एक लक्ष्य की ओर बढ़ता है वही आत्म-ज्ञानी तथा वही सच्चा ब्रह्मवेत्ता है।