जीत वही है जहाँ धर्म है

July 1971

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सिंहासन पर आरुढ होते ही सम्राट तारावलोक ने प्रजा जन की परिस्थितियों के अध्ययन का निश्चय किया। सामान्य नागरिक के वेश में सप्ताहान्त तक राज्य भ्रमण करते रहे। जहाँ भी गये उन्होंने प्रजा की दुर्गति ही पाई। कोश के नाम पर उनके परिश्रम की कमाई राज्य हड़प लिया करे और उसका लाभ थोड़े से सत्ताधारी सामन्त उठाया करे और यह बात उन्हें पसन्द न आई अतएव वापस आते ही उन्होंने राजकीय कोश का धन प्रजाजनों को बाँट दिया।

किन्तु दुनिया में भावनाओं का, सदाचार का शोषण करने वाले लोग कम नहीं, सम्राट तारावलोक की उदार वृति देखकर कुछ शत्रु भी छद्म वेश में आये और जिस हाथी के कारण राज्य अपराजेय था उस कुवलाया पीड गजराज को भी माँग ले गये।

सम्भ्रान्त नागरिकों को सम्राट की यह भावातिरेकता अच्छी न लगी। उन्होंने जाकर महाराज का समझाया राजन्! धर्म और भावना परायण एक सीमा तक ही अच्छे होते हैं यदि वे सीमा का अतिक्रमण करते हैं ते अपने वृति से बचाने का निश्चय किया गया है आप वह हाथी वापस लेले अन्यथा गणराज्य आपकी उपेक्षा करेगा और आपको शासन च्युत होना पड़ेगा।

चिन्ता नहीं-तात! महाराज तारावलोक ने उत्तर दिया,यदि दुष्ट व्यक्ति के लिये दुष्टता धर्म है तो संत सज्जन को असफलता और विपत्ति के भय से सज्जनता का परित्याग करना चाहिए। मैंने दान दिया है उसे वापस नहीं ले सकता हाँ यदि मुझसे अनुचित कार्य हुआ तो हम राष्ट्र का शासन सूत्र सहर्ष त्यागने को तैयार है। यह कह कर सम्राट ने गद्दी छोड़ दी । महानी माद्री ने कहा-तात ! आपका निर्णय धर्मसंगत है आपकी सहायिका आपका साथ उन्हीं छोड़ेगी । वह भी राज्य त्याग के लिये समुद्यत हो गई।

और महाराज के पुत्र-स्वाभिमानी पुत्र-उन्होंने पिता से कहा-तात! हम आर्यकुल की परंपराओं को नव जीवन देना चाहते हैं। आपको याद है सत्य हरिश्चन्द्र के साथ भार्या ने ही नहीं कुमार रोहित ने भी त्याग किया था हम सहर्ष समुद्यत है आपके धार्मिक पथ का समर्थन करने के लिये हम आपकी ही साथ राज्य का परित्याग करते हैं।

दूसरे दिन ही सम्राट तारावलोक ने एक सामान्य नागरिक के वेश में राज्य दिया सम्राट चन्द्रावलोक ने पुनः सत्ता सम्भाल ली। तारावलोक अभी कुछ ही दूर जा पाये थे कि एक श्रमिकने उनके पुत्रों को दान में माँग लिया। महाराज कुछ कहें इसके पूर्व बालकों ने मर्यादा का पालन किया । वे श्रमिक के साथ चले गये और महाराज के सामने ही कठोर जीवन का अभ्यास करने लगे किन्तु महाराज उससे विचलित न हुये। और तब इन्द्र ने भी उनकी निष्ठा परखने का निश्चय किया। ब्राह्मण का वेश रखकर उन्होंने सेविका के रूप में उनकी पत्नी की दान माँगा। माद्रील ने कहा तात! शरीर आज नहीं तो कल नष्ट हो ही जायेगा। आत्मा से मैं प्रलय पर्यन्त आपकी ही रहूँगी अन्तिम समय आप पथ-से विचलित न हो ?

महाराज ने स्वीकृति दे दा। ब्राह्मणदेव वहाँ से चले गये। महाराज चन्द्रावलोक ने अपने पौत्रों के कठोर जीवन की बात सुनी तो वक द्रवित हो उठे वे पैदल चलकर वहाँ पहुँचे जहाँ वन में तारावलोक निवास करते थे। पुत्र तारावलोक की धर्मनिष्ठा से प्रभावित होकर उन्हें हृदय से लगा लिया। उन्हें वापस राजधानी भी ले आये जहाँ उनके पुत्र और सौभाग्यवती माद्री पहले से ही स्वागत के लिये खड़े थे।


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