विद्यावान् जयते कामः

July 1971

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भद्रे!-आचार्य द्रुमत उपकौशन ने अपनी पत्नी के देदीप्यमान ललाट की ओर प्रश्न वाचक दृष्टि डाली और बोले-मनुष्य जतीवन की सम्पूर्णता सफलता और तेजस्विता का आधार विद्या है-भगवती ! जिस प्रकार मेरी कन्या गृहकार्य निपुणा सुशीला और विदुषी है उसी प्रकार का बौद्धिक प्रतिभा संपन्न वी भी मिलता तो सोने में सुहागे को प्रसंग चरितार्थ हो जाता।

आचार्य माता ने कहा-ऐसे युवक की खोज करना आपके लिये तो कठिन नहीं है आर्य श्रेष्ठ ! आपके विद्यालय में तो न केवल सामान्य नागरिकों के बच्चे वरन् कौशल,कुरु, काँची,मगध, ऊरु, अर्यमारण्य, उदीच्यायनीय कावोज, वाराणसी और अंगिरा द्वीप तक के छात्र विद्याध्ययन करते हैं क्या उनमें से एक भी बालक आपकी कल्पना को साकार नहीं करता।

विद्या का अर्थ बौद्धिक प्रतिभा ही नहीं होता प्रिये! वरन् उसका व्यावहारिक जीवन में नीति निपुण समावेश भी होता है। पवित्र बाह्मचरण का भी अन्तःकरण कलुषित हो सकता है ऐसा व्यक्ति कितना ही शिक्षित हो विद्वान नहीं कहा जा सकता । विद्वता विराट् ब्रह्म की उस आभ्सान्तरिक अनुभूति का नाम है जो उसे विश्वात्मा के विद्वान्तो का नैष्ठिक अनुगामी बना देती है। ऐसा व्यक्ति घोर विशम परिस्थितियों में भी आत्मा को प्रतारित नहीं कर सकता अपने स्वार्थ के लिये एक कीड़े को भी न छला जाये जिसमें यह भाव हो वही सच्चा विद्वान है। मुझे सन्देह होता है कि इस परीक्षा में कही समस्त गुरुकुल असफल न हो जाये इसीलिये उसका साहस नहीं होता तथापि एक और उपाय कर देखता हूँ सम्भव है योग्य युवक की प्राप्ति यही हो जाये।

आचार्य प्रवर ने अपने समस्त स्नातकों को एकत्रित किया और बोले तात! टाप सब जानते हैं मेरी कन्या विवाह योग्य हो चुकी है, मेरे पास धन का अभाव है आप लोग अपने घरों में जाये और एक एक आभूषण मेरी कन्या के लिये लाये जो सर्वश्रेष्ठ आभूषण लायेगा उसी के साथ अपनी कन्या का विवाह कर देंगे। किन्तु यह बात गुप्त रहनी चाहिये, माता पिता तो क्या यदि दाहिना हाथ आभूषण लाये तो बाँये हाथ को भी पता न चले।

द्रुमुत उपकौशलाचार्य की कन्या असाधारण विदुषी, सुशीला और सौन्दर्यवर्ती थी, हर स्नातक का हृदय उसे पाने के लिए बेचैन हाउ उठा। वे सबके सब आतुरता पूर्वक घरों को गये और आभूषण चुरा चुराकर लाने लगे । जो भी स्नातक कैसा भी आभूषण लाता आचार्य उसे उसके नाम के सामने लिखकर एक ओर सुरक्षित रख देते कुछ ही दिनों में आभूषणों के अम्बार लग गये पर जिस आभूषण की खोज थी आचार्य प्रवर को वह अभी तक भी लाकर कोई न दे सका।

वाराणसी के राजकुमार ब्रह्मदत्त सबसे पीछे लौटे निराश और खाली हाथ । उत्सुकता पूर्वक आचार्य ने पूछा वत्स ! तुम कुछ नहीं लाये ? हाँ गुरुदेव ! यों कि आपने कहा था कि आभूषण इस तरह लाया जाये कि कोई देख भी न पाये वह शर्त पूरी करना असम्भव है-क्योंकि मैंने बहुत उपाय किये तो भी एकान्त तो मिल ही नहीं पाया।

क्या तुम्हारे माता पिता और अन्य कुटुम्बीजन सोते नहीं -रात में निकाल लेते आभूषण-आचार्य ने विरुमय दृष्टि डालते हुये पूछा। ब्रह्मदत्त ने उत्तर दिया तात! मनुष्यों से सूनापन मिल सकना सरल है पर वहाँ से मेरे अतिरिक्त मेरी आत्मा , सर्वव्यापी परमात्मा की उपस्थिति तो टाली नहीं जा सकती थी फिर आपकी शर्त कैसे पूरी होती।

आचार्य की आंखें चमक उठी, वह जो आभूषण चाहते थे मिल गया । ब्रह्मदत्त को उन्होंने हृदय से लगा लिया। सभी के आभूषण लौटा दिये उन्होंने और कन्या के पाणिग्रहण की तैयारी में जुट गये।


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