व्यर्थ का उलाहना

December 1971

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हे प्रभु ! हे जगत्-पिता, जगन्नियन्ता कैसे आप मौन, मन्दिर में बैठे हैं। क्या आप देख नहीं रहे हैं कि बाहर संसार में अन्याय और अनीति फैली हुई है। अत्याचारियों के आतंक और त्रास से संसार त्राहि-त्राहि कर रहा है। आप उठिये और बाहर आकर अत्याचारियों का विनाश करिये, संसार को त्रास और उत्पीड़न से बचाइये। देखिये, मैं कब से आपको पुकार रहा हूँ, विनय और प्रार्थना कर रहा हूँ। किन्तु आप अनसुनी करते जा रहे हैं। हे प्रभु, हे जगन्नियन्ता न जाने आप जल्दी क्यों नहीं सुनते। पुकारते-पुकारते मेरी वाणी शिथिल हो रही है किन्तु अभी तक आपने मेरी पुकार नहीं, सुनी कहते-कहते, प्रार्थी करुणा से रो पड़ा !

तभी मूर्ति ने गम्भीरता के साथ कहा- ‘मनुष्य मुझे संसार में आने के लिये न कहे- मैं मनुष्यों से बहुत डरता हूँ। प्रार्थी ने विस्मय पूर्वक पूछा- भगवान् ! आप मनुष्य से डरते हैं- यह क्यों !

मूर्ति पुनः बोली- इसलिये कि यदि मैं संसार में सशरीर ईश्वर के रूप में आ जाऊँ तो मनुष्य मेरी दुर्गति बना डालें। क्योंकि हर मनुष्य को मुझ से कुछ न कुछ शिकायत है, हर मनुष्य मुझ से कुछ न कुछ सेवा चाहता है। अपनी शिकायतों को ढूँढ़ने और उन्हें दूर करने की अपेक्षा वह दोष मुझे देता है। पुरुष अपनी समस्यायें आप हल करने की अपेक्षा मुझे से सारे काम कराना चाहता है और मूल्य चुकाये बिना वैभव पाने की याचना करता है।

अब तुम्हीं बताओ ऐसी स्थिति में मैं सशरीर ईश्वर के रूप में कैसे आ सकता हूँ ? मूर्ति मौन हो गई !


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