निःस्वार्थ पद्मनाभ

December 1971

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पद्मनाभ बहुत गरीब ब्राह्मण थे किन्तु ब्राह्मण होने के नाते हर समय यह बातें उनके मस्तिष्क में रहा करती थी कि उनका कर्त्तव्य जन-जन को ज्ञान प्रदान करना है। बिना स्वयं ज्ञान प्राप्त किये अन्य को ज्ञान किस प्रकार दिया जा सकता है। यही सोचकर भूखे नंगे रहकर किसी प्रकार संस्कृत का ज्ञान प्राप्त कर लिया।

पद्मनाभ जब अपना अध्ययन पूरा कर चुके तो जनता को ज्ञान देने का माध्यम कथा बाँचना बनाया। वे जन-स्थानों पर जाते और स्वयं कथा बाँचना प्रारम्भ कर दिया करते थे। वे निरन्तर निष्काम भाव से भगवान् की भक्ति जन-मानस में जागृत करने के लिए सुन्दर से सुन्दर अर्थ और विवेचना किया करते थे। लोग उनकी ओर आकर्षित होकर कथा सुनने लगे। कथा में जो कुछ थोड़ा बहुत चढ़ावा आता उसी से वे अपना और अपने परिवार का पोषण करते हुए ज्ञान का प्रसार करते रहे। एकबार उन्होंने यह सिद्धान्त वाक्य कि “ज्ञान-दान का प्रतिफल धन के रूप में नहीं ग्रहण करना चाहिये।” एक पुस्तक में देख लिया। वे बड़े दुःखी होने लगे। उन्होंने सोचा कि अब तक जो कथा कह कर उसमें प्राप्त धन को ग्रहण करता रहा हूँ वह एक तरह से ज्ञान का प्रतिदान ही लेता रहा हूँ अतएव गुरुकुल आदि जन-संस्थाओं को देना शुरू कर दिया और अपने व अपने परिवार के जीवन निर्वाह के लिये जंगल से लकड़ी काट कर बेचना शुरू कर दिया। इस प्रकार निःस्वार्थ होकर पद्यनाभ आजीवन ज्ञान प्रसार का अपना कर्त्तव्य पूरा करते रहे।




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