कर्त्ता बिना कर्म कैसे हो सकता है ?

December 1971

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ऋषियों जैसी जिज्ञासा एक बार अमेरिकन काँग्रेस के रिपब्लिनि सीनेटर एवरेट डीर्कसन के भी मन में उत्पन्न हुई थी। डीर्कसेन ने रूहों का आवाहन करने लाले क्रिस्टेन डोम से लेकर बड़े दार्शनिकों तक से जो भी मिला एक ही प्रश्न-पूछा- क्या मृत्यु के बाद जीवन है ? क्या जीवन का नियमन करने वाली कोई सत्ता-सृष्टा भी संसार में है ? या यह केवल श्रद्धा भूत विषय मात्र है।

अपनी-अपनी तरह से सभी ने उन्हें बताया, समझाया और कई लोगों ने चमत्कारिक प्रयोग भी करके दिखाया किन्तु उन सबसे एवरेट डीर्कसेन का अन्तःकरण सन्तुष्ट न हुआ।

रात के घने अन्धकार में जब डीर्कसेन अकेले होते तब भी यही प्रश्न उनके मस्तिष्क में बार-बार उतरता और वे उसका समाधान खोजने का प्रयत्न करते किन्तु किसी निष्कर्ष पर पहुँचना सम्भव न हुआ। उन्होंने इस प्रश्न का हल अपने अन्दर से ढूंढ़ निकालने का निश्चय किया। पहला प्रश्न उन्होंने अपने आप से ही किया-”क्या कर्म बिना कर्त्ता के हो सकता है ?” अंतःकरण से आवाज आई हम जिस संसार में रहते हैं वह एक व्यवस्थित रचना है तो उसका रचनाकार भी अवश्य होना चाहिये। संसार के अवर्णनीय आश्चर्यों को बिना यह विश्वास किये कि “सारी कला-बौद्धिक निमार्ण या गणित की तरह है और उसका कलाकार भी अवश्य हैं,” उसे कौन देख सकता है।

(If there be a design in this. Universe and in this world in which we live, there must be a designer. Who can behold the in explicable mysteries of universe without be living that there in design and a designer)

आगरे का ताज महल संसार आश्चर्यों में से एक है जिसके निमार्ण में प्रतिदिन 20 हजार मजदूर काम करते थे इतिहासकारों का अनुमान हैं कि ताज महल के निमार्ण में लगभग 6 करोड़ रुपये लगे उसमें बनी मुमताज महल समाधि पर 30 गाँवों की आमदनी निश्चित थी जो प्रतिवर्ष 30 लाख रुपये से कम न थी जबकि सम्पूर्ण ताज महल का निर्माण साढ़े अठारह वर्ष में हुआ। ताज महल बाहर से एक बिल्डिंग भर दिखाई देता है किन्तु उसमें राजस्थान से आया संगमरमर, तिब्बत की नीलम मणि, सिंहल की सिपास्लाजूली मणि, पंजाब के हीरे, बगदाद के पथराग रत्न लगे हैं यह सब कृति एक व्यक्ति की इच्छा और भावना भर थी पीछे तो हजारों व्यक्तियों का योगदान उसमें हुआ किन्तु सारे निर्माण की रूपरेखा, व्यवस्था आदि का श्रेय शाहजहां को है जिसने अपनी प्रेयसी पत्नी की यादगार को अमरत्व प्रदान करने भर के लिए इतना सारा बखेड़ा खड़ा किया।

(हैलीकारनेसस) - कोरिया का “ मैलोलियम” संसार का दूसरा आश्चर्य। 62 हाथ लम्बी 62 हाथ चौड़ी चहारदीवारी के मध्य 40-40 हाथ ऊँचे 36 स्तम्भ वे भी नीचे से मोटे और ऊपर जाकर पतले हो गये हैं। सीढ़ियों पर नीचे से ऊपर तक संगमरमर की बहुमूल्य मूर्तियों से सजावट इसमें केवल संगमरमर में लाखों रुपये लगे। प्रसिद्ध कलाकार पाइथिस और माटीराम द्वारा बनाये गये इस समाधि मन्दिर का निर्माण भी एक व्यक्ति वहाँ रानी - “आर्टीमिसिया” की इच्छा पर हुआ।

ओलम्पिया की जुपिटर प्रतिमा बनवाने के लिए सुप्रसिद्ध कलाकार फिडियास की सहायता ली गई थी 20 लाख रुपये से बनी और 25 हाथ ऊँची जुपिटर की यह प्रतिमा भी एक व्यक्ति एथेन्स के सम्राट पैराक्लीज की हार्दिक इच्छा का अभिव्यक्त रूप थी।

इतिहासकार अभी तक यह निश्चय नहीं कर सके कि आया कुतुबमीनार पृथ्वीराज चौहान का विजय स्तम्भ थी अथवा कुतुबुदीन ऐबक निशान; पर यह निश्चित है कि 233 फुट 8 इंच लम्बे इस गगनचुम्बी टावर का निर्माण एक व्यक्ति की इच्छा का ही परिणाम है।

डायना देवी का मन्दिर (इफिसास में बना हुआ) चाँदफिन की कल्पना थी। अजन्ता के गुफा मन्दिर जिनमें 29 गुफायें, 5 मन्दिर, 24 बौद्ध विहार सम्मिलित हैं। यह गुफायें हैदराबाद में स्थित है और सारे संसार के लोग उसे देखने आते हैं इसमें पैसा भले ही कुछ न लगा हो पर यह भी सम्राट प्रवरसेन युग के कुलपति आचार्य सुनन्द की कलाकृति है जिसे देखने के लिए सारे संसार के लोग प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में भारत आते हैं इन गुफाओं में मानव-मन के अध्यात्मिक संस्कारों को जिस ढंग से व्यक्त किया गया है उसे देखकर कोई भी व्यक्ति रोमाँचित हुये बिना नहीं रहता।

सिकन्दरिया का विशाल काय प्रकाश स्तम्भ समुद्र में आने-जाने वाले सैकड़ों नाविकों को मार्ग दिखाता है वह सिकन्दर महान् के ही एक संकल्प का मूर्तिमान प्रतीक है। बैबिलोन में बने हुए लटकते बाग देखकर तो ऐसा लगता है कि मनुष्य को पर्याप्त सुविधायें मिल जायें तो वह चाँद सितारों तक पक्की सड़कें बनवाकर सारे संसार को एक सूत्र में जोड़ सकता है। लटकता हुआ बाग 263 हाथ के घेरे में और 22 फुट ऊँचे एक ठोस फर्श के ऊपर खड़ा किया गया है। बड़े-बड़े खम्भों के ऊपर दुनिया भर के विशाल काम और छोटे से छोटे वृक्ष और फूल-पौधों से लेकर दुनिया भर की चिड़ियां तक उसमें है, हवा में लटक रहे इस बगीचे को देखकर अधर शून्य में लटक रही पृथ्वी का अनुमान होता है वह भी वहाँ रानी की इच्छा का निर्माण है।

रोम का कोलोसियम पीसा की मीनार, रोडस की पीतल की मूर्ति और मिश्र के पिरामिड किसी न किसी व्यक्ति की इच्छा के परिणाम हैं भले ही उनके निर्माण में हजारों सहायक शक्तियों का योगदान दीखता हो। चार्टेज गिरजाघर, डेकवड, मोजेज, सिस्टाइन चैपिल पियेटा की प्रतिमायें भी किन्हीं कलाकारों की कृतियाँ हैं। एफिल टावर (पेरिस), व्हाइट हाउस (अमेरिका) लाल किला (दिल्ली) सब किसी न किसी रचनाकार के निर्माण हैं जो देखने में अलौकिक आश्चर्य जैसे लगते हैं यह सब वस्तुतः व्यक्ति के नहीं बुद्धि के व्यापार हैं। इसलिए यहाँ से आगे यह कहना चाहिये कि कला मनुष्य शरीर का नहीं बौद्धिक चेतना का गुण है यदि शरीर में रचना की शक्ति रही होती तो मृत्यु के बाद भी लाश काम करती।

परमाणु की ताकत के आगे दुनिया थर्राती है किन्तु क्या वह अपनी इच्छा से संसार का विनाश, क्रोध या दया के भाव प्रकट कर सकती है यह बुद्धि के वरदान है और वह केवल आत्मिक चेतना को ही प्राप्त है। इस चेतना का वास्तविक स्वरूप क्या है - हवा - मनुष्य साँस लेना बन्द करदे तो वह क्षण भी जीवित नहीं रह सकता। इसी प्रकार (2) जन भी उसकी एक प्रधान आवश्यकता है (3) गर्मी - (भारतीय दर्शन में इसे प्राण कहते है) इसी के अभाव में शरीर की गतिशीलता समाप्त हो जाती है। (4) प्रकाश - गर्मी का स्त्रोत और प्रभाव प्रकाश ही है। प्रकाश रूप में स्फुरित ऊर्जा ही जड़ जगत में चेतन का निर्माण कर रही है। स्पष्ट है कि बुद्धि या ज्ञान शरीर में रहते हुये भी वायु तत्व, जल तत्व, अग्नि तत्व और आकाश तत्व का सूक्ष्म- सार है पृथ्वी तत्व शरीर इनको धारण करने में मदद भर दे रहा है। इन्हीं पाँचों तत्वों से विनिर्मित संसार की एक सार्वभौमिक (यूनिवर्सल) चेतना (मनुष्य शरीर की चेतना के समान है) न होती तो पृथ्वी आश्चर्यों की तरह आश्चर्यजनक सृष्टि की उत्पत्ति कौन करता ?

हमें धरती पर जो सृष्टि दिखाई देती है वह सूर्य का उपादान है देखने में लगता है कि वृक्ष धरती से जीवन प्राप्त कर रहा है, देखने में लगता है कि भाप समुद्र से बनती है, हवायें उड़ाकर उसे आकाश में फैलाती है, जंगल बरसात कराते हैं, ऊँचाई की शीतलता उसे बर्फ में बदल देती है। यह सारी की सारी रचना, सारा का सारा क्रिया व्यापार एक मात्र सूर्य के अस्तित्व पर निर्भर है यदि सूर्य भस्म (फ्यूज) हो जाये तो सृष्टि का अस्तित्व नष्ट हो जायेगा सूर्य भी जा जल, (हाइड्रोजन या वैदिक भाषा में आपः) वायु, अग्नि और प्रकाश का सम्मिश्रण है तभी तो उसकी रचना ठीक पृथ्वी के आश्चर्यों जैसी आश्चर्यजनक किन्तु गणित जैसे बुद्धि कौशल पर आधारित है।

किन्तु सूर्य अपने आप में पूर्ण नहीं। वह शक्ति संस्थान हो सकता है, आत्मा हो सकता है, परमात्मा तो उससे भी विराट होना चाहिये क्योंकि रचना का अन्त सौर मंडल नहीं अनन्त आकाश है। यह सूर्य जिस आकाश गंगा से प्रकाश और शक्ति प्राप्त करता है केवल मात्र उसी से सम्बद्ध 30000000000 सितारों की खोज हो चुकी है अनुमान है इनकी कुल संख्या 200000000000 है। यह आकाश गंगा 600000000000000000000000 मील से लेकर 1200000000000000000000000 मील तक लम्बी हो सकती है।

हमारी आकाश गंगा भी अन्तिम नहीं और भी आकाश गंगायें है हमारे पास की आकाश गंगा देवयानी (एँड्रोमेडा) है उसमें भी इतने ही सितारे हो सकते हैं पता नहीं ऐसे कितने ब्रह्मांड मिलकर अखिल ब्रह्मांड अन्योन्याश्रित है अर्थात् उसका कहीं न कहीं एक ऐसा बिन्दु अवश्य है जहाँ से मस्तिष्क की तरह से विचार और योजनायें संचालित होकर काल और ब्रह्मांड की शक्तियों का नियमन करती अवश्य होनी चाहिये।

इस विश्वास ने एवरेट डीर्कसेन को ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास करा दिया उन्होंने अनुभव किया कि आत्मिक चेतना न नष्ट होकर अदृश्य होती रहती है जिस प्रकार अदृश्य आकाश में प्रकाश और ऊर्जा के कारण उन्हीं की अंतःभूमिका बुद्धि व्यापार की तरह काम करती है इस बुद्धि का सार्वभौमिक रूप - परमात्मा का ही होना



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