मन एक सूक्ष्म प्राकृतिक शक्ति

December 1971

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इंग्लैंड के एक रसायन शास्त्री आहार सम्बन्धी परीक्षण कर रहे थे। चूहों के एक पिंजरे में से एक चूहे को निकाला गया और उसे सामान्य भोजन न देकर असामान्य मिर्च मसाले और माँस व शराब से बना आहार दिया गया। चूहा जिसकी प्रकृति अब तक शान्त और शीतल थी इस आहार को ग्रहण करने के बास से ही उद्दंड और आक्रामक बन गया। पिंजरे के दूसरे चूहों को उस अकेले ने बुरी तरह सताया और यह सिद्ध कर दिया कि लाग जैसा अन्न खाते हैं उनका मन सचमुच वैसा ही बनता है।

इसके बाद उस चूहे को फिर से सरल शुद्ध और सात्विक भोजन दिया गया अब वह फिर से दैनिक जीवन में विनीत और शाँत हो गया। इससे यह पता चलता है कि आज जो मानसिक जटिलता देखने में आ रही है, वह सब अन्न के दूषित होने, आहार के अप्राकृतिक और अपवित्र होने का ही परिणाम है। शास्त्रकार का कथन है सृष्टि के कण-कण में “मन” (चेतन विद्युत) विद्यमान है आहार ग्रहण करते समय तक तो यह निश्चित रूप से ध्यान रखना चाहिये कि कोई ऐसा पदार्थ न लिया जाये जिससे “मन” कलुषित और क्रूर हो। माँस जीवों को निर्दयता पूर्वक काट कर बनाया जाता है उसके अणुओं में उस जीव के प्रतिशोध और अभिशाप के भाव अवश्य भरे होंगे उस प्रकार का आहार ग्रहण करने वाला न तो उस प्रतिशोध की ज्वाला से बच सकेगा और न ही अभिशाप से। धीरे-धीरे यह बातें वैज्ञानिक ढंग से स्पष्ट होती जा रही हैं।

आत्म चेतना या ब्राह्मी चेतना मन से कहीं बहुत अधिक सूक्ष्म और पवित्र स्तर की चेतना है उसे पाने के लिए मन का भी वैसा ही सूक्ष्म और पवित्र होना आवश्यक है जिस “किलो साइकिल” पर रेडियो स्टेशन बोल रहा है रेडियो को उसी “किलो साइकिल” पर -उसी बेंड में लगाकर ही उसका प्रसारण सुना जा सकता है। मानसिक चेतना द्वारा ब्राह्मी चेतना की अनुभूति और उसके क्रिया कलापों के ज्ञान के लिए भी ठीक उसी प्रकार मन का पूर्ण पवित्र और प्राकृत होना आवश्यक हैं। यह तभी सम्भव है जब वैसा ही शुद्ध और सात्विक आहार भी लिया जाये। इसीलिये योग के दश लक्षणों में ध्यान धारण समाधि आदि के साथ “प्रत्याहार” को भी आवश्यक माना गया हैं।

आमतौर से लोग सांसारिकता में पड़े लड़ते झगड़ते रहते हैं उसका वैज्ञानिक कारण आहार का दूषण ही है। इस संबन्ध में फ्रांस के एक वैज्ञानिक द्वारा किये गये परीक्षण को मनुष्यों पर प्रयोग किया और पाया कि चिड़चिड़े और मानसिक दृष्टि से विक्षिप्त लोगों को विशेष प्रकार के आहार से ठीक किया जा सकता है। 10 सितम्बर 1970 के नवभारत टाइम्स में इन डाक्टर का हवाला देते हुये लिखा है कि एक चिड़चिड़े व्यक्ति को कार्बोहाइड्रेट पथ्य के साथ गाय का दूध ही पीने को दिया गया और उन्हें गहरी साँस लेने को कहा गया उससे उनका चिड़चिड़ापन ठीक हो गया। ईर्ष्या, द्वेष वृति वाले लोगों को हलका गरम पानी बार-बार पिलाया गया और खुले मैदान में घूमने और व्यायाम करने को कहा गया उससे वह ठीक हो गया। इसी प्रकार सोवियत वैज्ञानिक और एम.एम. अरब व ए. डव्लयू.अयूब नामक दो अरब वैज्ञानिक उपवास पर प्रयोग कर यह पा रहे हैं कि उपवास और एक खास प्रकार के आहार से जटिल से जटिल मानसिक रागों का इलाज हो सकता है। लगता है विश्व शाँति के वैज्ञानिक उपाय की कभी खोज हुई तो लोग उसका उपाय शुद्ध शाकाहार ही पायेंगे यह भारतीय आहार पद्धति की एक और विजय है, सफलता है।



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