सिद्धे बिन्दु महायत्ने, किंन सिद्धयति भूतले

December 1971

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अपने पिता आशुतोष शिवाजी को प्रसन्न चित जानकर कुमार सम्भव ने उनके पास जाकर पूछा - तात ! आपने जिस प्रकार दुर्लभ साधनायें की वैसा साहस किसी में न हो और वह सिद्धियों का स्वामित्व तथा ब्रह्म को प्राप्त करना चाहता हो तो उसे क्या करना चाहिए वह सरल उपाय आप हमें बताने की कृपा करें। लोक कल्याण की इच्छा रखने वाले भगवान शंकर ने बताया-


सिद्धे विन्दु महायत्ने किं न सिद्धयति भूतले।

यस्य प्रसादान्महिमा, ममाप्येतादृशो भवेत॥


वत्स ! उसका उपाय है अखण्ड ब्रह्मचर्य अर्थात् “जिसने यत्न पूर्वक अपने वीर्य को सिद्ध कर लिया है उसके लिये इस पृथ्वी में कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता सिद्ध वीर्य पुरुष तो मेरे समान समर्थ हो सकता है।

वीर्य तत्व के बारे में इन पंक्तियों में जो कुछ कहा गया है उसकी यथार्थता का अनुमान तो ब्रह्मचर्य व्रती जीवन बिताकर ही किया जा सकता है पर अब उसकी यथार्थता वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं और कहते हैं कि वीर्य कीट जिस सुरक्षित घोल में रखे जाते हैं उसी से अनुमान किया जा सकता है कि सृष्टि का कितना महत्वपूर्ण तत्व है। वीर्य एक प्रकार का रसायन है। वीर्य कीट उसमें रहने वाले जीवाणु होते हैं। वीर्य कीट उसमें रहने वाले जीवाणु होते हैं। तरल पदार्थ 75 प्रतिशत जल 5 प्रतिशत फास्फेट आफ लाइम, 4 प्रतिशत चिकनाई, 3 प्रतिशत प्रोटीन - आक्साइड शेष भाग फास्फेट, फास्फोरस, सोडियम क्लोराइड आदि पदार्थ होते हैं। पुरुष के शुक्र कीट स्पर्श तथा स्त्री के डिम्ब आवम का उत्पादन पुरुष के अण्ड तथा स्त्री के अण्डाशय में होता है। यहाँ से एक प्रकार का रस जो कि वीर्य रसायन का एक प्रकार का “प्लाज्मा” होता है जो सारे शरीर में ओज और तेजस की भाँति छाया रहता है। यह तेजस ही परसार आकर्षण का कारण होता है। जिस शरीर में वीर्य की प्रचुर मात्रा होती है वह काले - कुबड़े होने पर भी आकर्षक लगते हैं। कहते हैं - अष्टावक्र जो शरीर में आठ स्थानों से टेढ़ा होता था ने अपनी संयम शक्ति द्वारा मुख मंडल पर वह तेजस्विता अर्जित करली थी कि महाराज जनक भी उसकी ओर देखकर हतप्रभ हो उठते थे।

पुरुषों के शरीर में पौरुष और स्त्रियों के शरीर में स्त्रीत्व के लक्षणों का कारण यह वीर्य ही होता है जिसे आयुर्वेद की भाषा में अन्तवीर्य की संज्ञा दी है।

आधुनिक विज्ञान इतना विकसित हो जाने पर भी वीर्य की उत्पत्ति का कोई सिद्धान्त निश्चित नहीं कर पाया सामान्य रासायनिक रचना के अतिरिक्त उन्हें इतना ही पता है कि वीर्य का एक कोश स्पर्श स्त्री के डिम्ब ओवम से मिल जाता है। यह वीर्य कोश पुनउत्पादन प्रारम्भ कर देता है और अपनी तरह के तमाम कोश माँ के आहार से प्राप्त आहार द्वारा कोश विभाजन प्रक्रिया एक से दो, दो से चार, चार से आठ के अनुसार विभक्त होता चला जाता है। कहना न होगा कि विन्द वीर्य का परमाणु चेतना का सर्वाधिक सूक्ष्म अंश है उनकी लम्बाई 1/1600 में 1/1700 इंच तक होती है जिसमें न केवल मनुष्य शरीर वरन् विराट् विश्व के शक्ति बीज छिपे होते हैं। सृष्टि की परम्परा की क्षमता भी इन्हीं बीजों में होती है उसकी शक्ति का अनुमान किया जाना कठिन है।

प्राचीन काल के योगियों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से बिना किसी वैज्ञानिक यन्त्र के महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त की थी आज वह विज्ञान द्वारा सही सिद्ध होती हैं। उदाहरण के लिए वही वीर्य-कोश जो स्त्री के अण्ड में पहुँचा था गर्भ धारण के बाद जब विकसित होना प्रारम्भ करता है तब वह बीज कोश मस्तिष्क में ही संचय होते हैं क्योंकि गर्भ में सन्तान का सिर नीचे की ओर होता है। जन्म के समय 10 रत्ती वीर्य बालक के ललाट में होता है ऐसा भारतीय तत्व दर्शियों का मत है। यही कारण है कि बच्चा विशुद्ध परमहंस जैसी प्रकृति का विशुद्ध आनन्दवादी, निश्चिन्त और केवलोन्हं होता है। यह वीर्य शक्ति और दृढ़ता प्राप्त करे इसके लिए बालक को नितान्त शुद्ध, सात्विक और भाव भरे आहार की आवश्यकता होती है ऐसा दूध माता के दूध के अतिरिक्त दूसरा नहीं होता पर कदाचित आयु बढ़ने के साथ माँ उतना दूध न पिला सके तो दूध की आवश्यकता गौ दुग्ध, बकरी अथवा भैंस के दूध को हलका करके पूरा करना चाहिये। इसके बाद जैसे जैसे शरीर में शक्ति का संचार होता है क्रमशः आहार पद्धति में सावधानी बरतने की आवश्यकता भी बढ़ती जाती है 10 वर्ष की आयु तक वीर्य दोनों भौहों के बीच वाले स्थान में आ जाता है इस समय बच्चे को अधिकाँश अलोना आहार फल फूल दूध आदि ही देना चाहिये। गुरुकुल में 5 वर्ष में ही बालक पहुँचा देने का प्राचीन उद्देश्य बच्चे को गृहस्थों के अनुचित आहार से बचाये रखना ही होता था। इस आयु में बच्चे में अनुकरण की प्रवृत्ति रहती है तीखा, कड़ुवा भोजन वह यह समझते हुए भी इसलिए करने का इच्छुक रहने लगता है क्योंकि घर के सदस्य उसका उपभोग करते हैं।

नौ से 12 वर्ष तक वीर्य शक्ति भौहों से उतर कर कण्ठ में आ जाती है प्रायः इसी समय बच्चे के स्वर में भारीपन और कन्याओं के स्वर में सुरीलापन आता है अभी तक लगभग दोनों की ही ध्वनि एक जैसी होती है थी अब बच्चे  के स्वर में पुरुषोचित लक्षण झलकने लगते हैं। इस आयु में वीर्य में विपरीत लिंग का आकर्षण पैदा होने लगता है अतएव बालक बालिकाओं का संपर्क अलग अलग कर दिया जाना चाहिये। आज की सहशिक्षा तो इस दृष्टि से बच्चों के जीवन में कुठाराघात जैसा है। परस्पर समीपता से कच्चा वीर्य मंथन प्रारम्भ कर सकता है जिसके कारण युवकों को जीवन भर स्वप्न दोष, वीर्यपात और शीघ्र-स्खलन की बीमारियाँ लद जाती है जो न केवल उसे स्वास्थ्य की दृष्टि से वरन् मानसिक दृष्टि से भी हीन बना देती है। ऐसे बच्चे बौद्धिक दृष्टि से बिलकुल कमजोर होते हैं। नास्तिकता कोई सिद्धान्त नहीं एक प्रकार का रोग है जो मानसिक कमजोरी के कारण होता है। प्राचीन काल में बालक की वीर्य रक्षा पर ध्यान रखा जाता था इससे उसकी विचार क्षमता ऊर्ध्वमुखी बनी रहती थी। ऊर्ध्वमुखी चिन्तन ही जीवन के यथार्थ लक्ष्य और ब्रह्म की विराटता की अनुभूति कर सकता है।

11 से 16 वर्ष तक की आयु में वीर्य मेरुदण्ड से होता उपस्थ की ओर बढ़ता है और धीरे धीरे मूलाधार चक्र में अपना स्थान बना लेता है। काम विकार पहले मन में आता है उसके बाद तुरन्त ही मूलाधार चक्र उत्तेजित हो उठता है उसके उत्तेजित होने से वह सारा ही क्षेत्र जिसमें कि कामेन्द्रिय भी सम्मिलित होती है उत्तेजित हो उठती है ऐसी स्थिति में ब्रह्मचर्य को सम्भालना कठिन हो जाता है 24 वर्ष तक की आयु में यह वीर्य मूलाधार चक्र में से सारे शरीर में इस प्रकार व्याप्त हो जाता है जैसे -

यथा पयसि सर्पिस्तु, गूढश्चेक्षौ रसो यथा।

   एवं हि सकले काले शुक्र तिष्ठति देहिनाम॥


अर्थात् जिस प्रकार दुग्ध में घी, तिल में तेल ईख में मीठापन तथा काष्ठ में अग्नि तत्व सर्वत्र विद्यमान रहता है उसी प्रकार वीर्य सारे शरीर में व्याप्त हो जाता है।

यदि 25 वर्ष की आयु तक आहार विहार को दूषित नहीं होने दिया गया और ब्रह्मचर्य खंडित न हुआ तो इस आयु में शक्ति की मस्ती और विचारों की प्रफुल्लता देखते ही बनती है। ऐसे बच्चे प्रायः जीवन भर स्वस्थ रहते हैं। काम विकार से घिरे बच्चों को दमित वासना का संकट हो सकता है जिस बालक के मस्तिष्क में मातृ भाव रहा काम वासना प्रदीप्त नहीं होने पाई उसे दमित वासना की तो कल्पना भी नहीं आयेगी वरन् ऐसा सोचने वाले उसके सम्मुख कीट तत्व जैसे हीन बुद्धि लगेंगे। विनोद अपने आप में उतना आनन्द है जितना संभोग में। सम्भोग का आनन्द तो थोड़ी देर का है पर यदि वीर्य अच्छी तरह शरीर में पच गया है तो चह आनन्द जीवन के हर क्षेत्र में उत्साह और सफलता के रूप में सर्वत्र लिया जा सकता है।

उपस्थ में आये स्थूल वीर्य को ऊर्ध्वरेता बनाकर पुनः उसी ललाट में लाना जहाँ से मूलाधार तक आया था ले जाना योग विधा का काम है। कुण्डलिनी साधना में विभिन्न प्राणायाम साधनाओं द्वारा सूर्य चक्र की ऊष्मा को व्रज्वलित का ईंधन बनाकर इस वीर्य को पकाया जाता है और उसे सूक्ष्म शक्ति का रूप दिया जाता है तब यह फिर उसकी प्रवृत्ति ऊर्ध्वगामी होकर मेरुदण्ड से ऊपर चढ़ने लगती है साधक उसे क्रमशः अन्य चक्रों में ले जाता हुआ फिर से ललाट में पहुँचता है। शक्ति बीज का मस्तिष्क में पहुँच जाना और सहचार चक्र की अनुभूति कर लेना ही ब्रह्म निर्वाण है। ऐसे व्यक्ति के लिये ही भगवान् शिव ने अपने समान सिद्ध और पूर्ण योगी बताया है।

कठिन योग साधनायें न करने पर भी जो लोग वीर्य को अखंड रख लेते हैं वे अपने अन्दर शक्ति का अक्षय भंडार अनुभव करते हैं और कुछ भी कर सकने की क्षमता रखते है। प्रज्ञावान् आत्मायें उसके लिए गर्भ धारण के समय से ही सचेष्ट रहती हैं और वीर्य को अधोमुखी नहीं होने देकर उसे ऊर्ध्वगामी बनाने का प्रयत्न करती रहती है। सामाजिक कर्तव्यों के पालन द्वारा भी ऐसा सम्भव है पर उसके लिए आज की पारिवारिक परिस्थितियों से लेकर शिक्षा पद्धति तक में परिवर्तन करना पड़ेगा। वीर्य सृष्टि का मूल उपादान है उसकी सामर्थ्य को समझा जाना चाहिए, उसकी रक्षा की जानी चाहिये तथा ऊर्ध्वरेता के लाभों से लाभान्वित होकर मनुष्य जीवन की यथार्थता को समझना और पाना चाहिये। जो अपने वीर्य की रक्षा कर लेते हैं एक बूँद बरबाद नहीं होने देते वे कोई भी इच्छा करे कभी अधूरी नहीं रह सकती भले ही उसे लोग योग सिद्धि समझें पर है यह सब सिद्धु विन्दु का ही चमत्कार। यह शक्ति और सिद्धी ही हमें समर्थ और अपराजेय बना सकती है और कोई दूसरी शक्ति नहीं।



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