औषधियों का अन्धाधुन्ध प्रयोग और उसका दुष्परिणाम

December 1971

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स्वास्थ्य संरक्षण का सीधा और सरल उपाय यह है कि आहार विहार को संयत रखा जाय। मस्तिष्क को संतुलित रखा जाय और पाप कर्मों से बचा जाय। सौम्य सरल और हँसी खुशी का निर्मम निश्चल जीवन निरोग भी रहता है और लम्बी आयुष्य भी प्राप्त करता है। इसके विपरीत आचरण करने पर प्रकृति समुचित दण्ड देती और प्रतिशोध लेती है। उसके कानूनों का - मर्यादाओं का उल्लंघन करके कोई चैन से नहीं बैठ सकता, वेदाग नहीं छूट सकता। दुर्बलता और अस्वस्थता वे दण्ड हैं जो प्रकृति के नियमों को तोड़कर उच्छृंखलता की रीति नीति अपनाने के कारण हमें बरबस भुगतने पड़ते हैं।

जिन्हें रोगों का भय है उन्हें चाहिए कि पहले से ही सावधानी बरतें और ऐसी रीति नीति न अपनायें जिससे बीमार होना पड़े। यह सुरक्षा बहुत ही सरल है। प्रकृति के संपर्क में रहने वाले पशु पक्षी कहाँ बीमार पड़ते हैं। बीमारी तो उद्धत आचरण करने वाले और तरह तरह की कृत्रिमता अपनाने वाले मनुष्य के हिस्से में आई हैं। अथवा उन निरीह पशु पक्षियों को यह रुग्णता का उपहार मिला है जो मनुष्य के पालतू बन गये है और जिन्हें अपनी स्वाभाविक जीवन परम्परा छोड़कर उसकी मर्जी पर निर्वाह करना पड़ रहा है।

रोग होने पर प्रकृति की सहायता के लिए उपवास, विश्राम, अधिक जल सेवन, स्वच्छता जैसी व्यवस्था बनानी चाहिए और औषधियों की जरूरत पड़े तो वनस्पतियों से विनिर्मित इस स्तर की लेनी चाहिए जिनमें शामक गुण तो हो पर मारक तत्व न हो। पर विज्ञान की उपलब्धियों के आवेश में प्रकृति को चुनौती देकर चिकित्सा की ऐसी अद्भुत प्रणाली अपनाई जा रही है जो ‘मर्ज को मारने के साथ साथ मरीज को भी मारने’ की उक्ति चरितार्थ कर रही है। ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में रोगाणुओं को मारने के लिए ऐसी मारक एवं विषाक्त औषधियों का आविष्कार किया जा रहा है जो तत्काल तो थोड़ा चमत्कार दिखा हैं और रोगों को लगता है तुरन्त फायदा हुआ। पर उस थोड़ी देर के थोड़े लाभ के फलस्वरूप पीछे कितनी हानि उठानी पड़ती है और जीवनी शक्ति का कितना ह्रास होता है इसकी हानि का कुछ अनुमान नहीं लगाया जाता। कुनैन जैसी औषधियाँ तुरन्त बुखार भगाने का चमत्कार दिखती है पर पीछे कान बहरे हो जाने जैसे अनेक ऐसे उपद्रव उठ खड़े होते हैं जिनसे छुटकारा पाने में वर्षों लगते हैं।

आवश्यकता इस बात की है कि वर्तमान चिकित्सा पद्धतियों के गुण दोषों का गहराई तक विवेचन किया जाय और रोग के सामयिक समाधान के साथ साथ इस बात का भी ध्यान रखा जाय कि उस जल्दबाजी में ऐसा तरीका न अपनाया जाय जो रोगी को आजीवन संकट ग्रस्त बनादे। इस संदर्भ में ऐलोपैथिक चिकित्सा की उपयोगिता संदिग्ध होती चली जा रही है और उसी वर्ग के प्रख्यात चिकित्सक चौका देने वाली आलोचना कर रहे है।

रसायन शास्त्र की शोध पर नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले डाक्टर लुई पोंलिग ने कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में एक भाषण देते हुए कहा था - “मनुष्य के निरोधक और विधायक जीवाणु अपनी क्षति और आवश्यकता की पूर्ति स्वयं करते रहते हैं। यदि मनुष्य व्यसन और असंयम से बचते हुए प्राकृतिक जीवन जिये तो निस्सन्देह लम्बी और निरोग जिन्दगी जी सकता है। तब न उसे रोगी बनना पड़ेगा न चिकित्सा की जरूरत रहेगी।”

कर्निल युनिवर्सिटी आफ अमेरिका में दीर्घ जीवन सम्बन्धी प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि यदि व्यक्ति अपने आहार की मात्रा घटा दे और सीधा सादा सुपाच्य भोजन करे तथा संयमित दिनचर्या के साथ हँसी खुशी की जिन्दगी बिताये तो वह बिना अधिक प्रयत्न के लम्बा और निरोग जीवन जी सकता है।

एकैडमी आफ मेडीशन के वैज्ञानिकों का एक संयुक्त वक्तव्य कुछ दिन पूर्व न्यूयार्क टाइम्स में छापा था जिसमें कहा गया था कि कम भोजन से नहीं वरन् अधिकाँश लोग अधिक भोजन करने के कारण बीमार पड़ते हैं। उत्तेजक पदार्थों का सेवन अस्वस्थता का सबसे बड़ा कारण है। यदि लोग सादा और सरल जीवन बितायें तो उन्हें तीन चौथाई बीमारियों से स्वयमेव छुटकारा मिल जाय। साठ वर्ष से अधिक आयु के लोगों को बुढ़ापे के कारण जिन शारीरिक कष्टों से पीड़ित रहना पड़ता है उसका कारण वृद्धावस्था नहीं वरन् पिछले दिनों का अनियमित एवं अव्यवस्थित जीवन ही मुख्य कारण होता है। स्विटजर लैण्ड के प्रसिद्ध डॉ. कोरेन्जेस्की का कथन है ढलती आयु का कष्ट कर होना युवावस्था के असंयम का परिणाम है अन्यथा पके हुए फल की तरह वृद्धावस्था अधिक मधुर और सरस होनी चाहिए। आक्सफोर्ड और डवलिन में स्वास्थ्य के रहस्य बताते हुए भी उन्होंने यही कहा - आवेश ग्रस्त अशांत मनोभूमि और उत्तेजक आहार ही हमारी आयु घटते जाने का एकमात्र कारण है।

लन्दन टाइम्स के मतानुसार उस देश में पुरानी खाँसी, फेफड़े का केन्सर हृदय रोग और मस्तिष्कीय तनाव की बीमारियाँ बहुत तेजी से बढ़ रही है इसका कारण पौष्टिक पदार्थों का अभाव नहीं वरन् कृत्रिम जीवन और दवाओं की बढ़ती हुई निर्भरता ही पाया गया है।

अमेरिका की फिशर सांइटिफिक कम्पनी द्वारा प्रकाशित ‘लैबोरेटरी’ पत्रिका के लेख में विस्तार से बताया गया है कि बीमारों के शरीर में हानिकारक कीटाणु मात्र एक प्रतिशत होते हैं। उन्हें ही सब कुछ मानकर 99 प्रतिशत स्वस्थ कीटाणुओं का लाभ लेने से इन मारक दवाओं के कारण वंचित हो जाना कहाँ की बुद्धिमानी हैं।

विश्व विख्यात सुप्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी डाक्टर जोशिया ओलफील्ड ने अपने ग्रन्थ दुःख दर्द पर चिकित्सा और विजय (हैलिंग एण्ड कान्कउ आफ पेन) में लिखा है - ऐलोपैथिक पद्धति की अपेक्षा पुरानी चिकित्सा पद्धतियों का दृष्टिकोण तथा आधार अधिक स्पष्ट है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति से रोगों के लक्षण दबते, बदलते, पुराने होते और असाध्य बनते जाते हैं। इससे मात्र नई शोधों, नई दवाओं और नये सिद्धान्तों के गढ़ने में माथापच्ची करके मात्र का द्वार खुलता है। रोग निरोध के नाम पर रक्त में नकली बीमारी पैदा करदी जाती है, जिसे देखकर असली बीमारी चले जाने का धोखा भर हो जाय।

अनेक रोगों के अनेक रोग कीटाणु प्रथक प्रथक होते हैं और उनके निवारण के लिए प्रथक प्रथक दवाएं होनी चाहिए आज के चिकित्सा शास्त्री यह मानकर चलते हैं पर यदि गहराई से शोध की जाय तो पता चलेगा कि अपच एक ही रोग है और उसी की विकृतियाँ प्रकारान्तर से भिन्न भिन्न आकार प्रकार के रोग कीटाणुओं के रूप में दिखाई देती तथा बदलती रहती है। जीवाणु विशेषज्ञ डाक्टर जे.ई.मेकडोनाफ ने बताया है - रोगों का मूल स्त्रोत आँतों में है। बिना पचा और विकृत आहार वहाँ पड़ा सड़ता रहता है और उस सड़न से उत्पन्न हुए कृमि अनेक प्रकार के रंग रूप आकार प्रकार बदलते रहते हैं। वस्तुतः वे सब एक ही पेड़ के प्रथक दीखने वाले पत्ते मात्र हैं।

इन रोग कीटाणुओं से कैसे बचा जाय यह किसी की समझ में नहीं आता। आपरेशन करने वाले डाक्टरों तक के शरीर में यह कीटाणु होते हैं और उनकी साँस आदि से हवा में उड़ते रहते हैं एक–सी दशा में आपरेशन के समय वे उड़कर रोगी को लग सकते हैं। अमेरिका के ‘टाइम’ पत्रिका में बोस्टन षहर के ‘व्रिगन हास्पिटल’ की शोध का परिणाम प्रकाशित हुआ है - जिसमें बताया गया है कि एक पेट के आपरेशन के समय कमरे को पूर्ण कीटाणु रहित कर दिया गया था, पर थोड़ी ही देर में वहाँ असंख्य खतरनाक कीटाणु उड़ते पाये गये। तलाश करने पर मालूम हुआ कि वे असिस्टेण्ट सर्जन की साँस से निकल रहे थे। यह तो तब हुआ जब कि वे मुँह पर आपरेशन के समय लगाया जाने वाला नकाब नाक और मुँह पर भली प्रकार बाँधे हुए थे।

फिलडेल्फिया के डाक्टर राबर्ट वाइज का कथन है कि रोगियों की तरह डाक्टरों और नर्सों में भी रोग कीटाणु पाये जाते हैं और उनसे भी रोगियों को छूत लग सकती है जो इलाज करने का जिम्मा शिर पर उठाये हुए है। पर उनका कथन है कि कई बार तो कीटाणुओं का अनुपात मरीजों से भी ज्यादा उन चिकित्सकों में होता है।

डेली रिकार्ड में एक समाचार छपा है - जिसमें लन्दन के विशेषज्ञ डाक्टर ऐवरी जोन्स द्वारा ब्रिटिश मेडिकल ऐसोसिएशन नारविच में दिये गये एक भाषण की चर्चा है - डाक्टर जोन्स ने बताया कि अस्पतालों में सफाई का उचित प्रबन्ध न होने से लोगों में बीमारियों के कीटाणुओं का आपसी परिवर्तन होता है और बीमारियाँ फैलती है।

रोग कीटाणुओं को बाघ या अजगर मानकर चलने से और उनके पीछे बन्दूक लिए फिरने से काम न चलेगा। वे इतने अधिक हैं कि उनसे बचाव कर सकना सम्भव नहीं सम्भव यही है कि हम अपने रक्त को शुद्ध और जीवनी शक्ति को इतना समर्थ बनाये जिससे कोई हानिकारक जीवाणु शरीर में प्रवेश पाने पर जीवित ही न रह सके। सामान्य स्वास्थ्य और समर्थता की वृद्धि के लिए उपयुक्त जीवन-क्रम अपनाने के स्थान पर तीक्ष्ण औषधियों के सेवन का और फाड़ चीर का जो फैशन चल पड़ा है। उससे जन-साधारण का हित नहीं हो रहा है और स्वास्थ्य की समस्या सुलझ नहीं रही है। लोगों कर औषधि श्रद्धा को देखते हुए डाक्टर लोग अति उत्साह से काम लेने लगे है और मानव शरीर जैसे बहुमूल्य माध्यम के प्रति उतनी सावधानी नहीं बरत रहे है जितनी बरती जानी चाहिए। अन्धाधुन्ध चिकित्सा का परिणाम और भी अधिक भयानक हो रहा है और कई बार तो लोग यहाँ तक सोचने लगते हैं कि इस इलाज की अपेक्षा यदि बिना इलाज कराये, रहते तो आदि वासियों की तरह अपेक्षाकृत कम समय, कम खर्च और कम कष्ट में अच्छे हो जाते।

मेडिकल सोसाइटी आफ इण्डिविजुअल साइकोलॉजी के एक एक अवेशन में प्लेस आफ साइकोलॉजी इन मेडिकल पैरिकुलम शीर्षक अपना लेख सुनाते हुए कैंब्रिज विश्व विद्यालय के प्रोफेसर सर वाल्टर लेग्डन ब्राडन ने बताया कि - ‘अपने निष्कर्ष के अनुसार मैं पूरी ईमानदारी के साथ कह सकता हूँ कि हम डाक्टर लोग जनता के लिए सबसे अधिक खतरनाक है जो काल्पनिक आधारों पर ऐसी चिकित्सा करने लग पड़ते हैं जो काल्पनिक आधारों पर ऐसी चिकित्सा करने लग पड़ते हैं जो अन्ततः रोगी के लिए लाभ दायक नहीं हानिकारक ही सिद्ध होती है। इसी से मिलता जुलता समर्थन मेडिकल वर्ल्ड पत्रिका में ‘पारटिंग आफ दी वे’ शीर्षक में छपा है। वेल्स युनिवर्सिटी को मटीरिया मेडिका के प्रोफेसर डाक्टर स्टीवन्स ने भी वर्तमान अपूर्ण चिकित्सा पद्धति और उसके अनाड़ी चिकित्सकों की ऐसी ही खबर ली है। और रोष भरी खरी खोटी सुनाई है।

गाई हास्पिटल के चिकित्साधिकारी ने अपने कटु अनुभवों का निष्कर्ष बताते हुए लिखा है - “रोगियों में से 67 प्रतिशत का निदान गलत होता है और उनकी चिकित्सा ऐसे ही अनुमान के आधार पर चलती रहती है। मरे हुए रोगियों का शवच्छेद करने से जो पता चलता है उससे विदित होता है कि कितने ही ऐसे है जिनके रोग तथा कारण को ठीक तरह समझा ही नहीं जा सका और वे बेचारे गलत इलाज के शिकार बन गये।

लन्दन के सन्डे पिक्टोरियल में ‘दूरी सक मुखी’ शीर्षक से संसार प्रसिद्ध सर्जन के दुःख पूर्ण अनुभव छपे है कि उसने नासमझी में कितने गलत आपरेशन किये और उनसे कितनों को कितनी हानि उठानी पड़ी।

अमेरिका की चिकित्सा पत्रिका ‘जनरल आफ अमेरिकन आष्टियोपैथिक ऐसोसिएशन’ में छपे एक विवरण में कहा गया है कि - सर्जनों के द्वारा बेकार या रुग्ण समझ कर काटकर निकाल दिये गये अंगों में से 20 हजार के टुकड़ों को विशेषज्ञों द्वारा जाँचा गया तो पता चला कि उनमें से अधिकाँश अंग निरोग थे और उन्हें काटने की जरूरत नहीं थी।

‘अमेरिका कालेज आफ सर्जन’ के डायरेक्टर डॉ. पाल हाली का कथन है कि आजकल जितने आपरेशन होते हैं उनमें से अधिकाँश अकुशल द्वारा अनुमान मात्र आधार पर किये हुए होते हैं। उससे रोगियों के हित की अपेक्षा अहित ही अधिक होता है।

‘लासेन्ट’ पत्रिका में एकबार मरने वाले डाक्टरों की आयु के सम्बन्ध में एक शोध का निष्कर्ष लम्बी तालिका के रूप में छपा है, उससे पता चलता है कि डाक्टरों की औसत उम्र पचास से भी नीचे रह जाती है जबकि अन्य धन्धे करने वाले लोग इससे कहीं अधिक जीवित रहते हैं। जो स्वयं अपना इलाज नहीं कर पा रहे, जिनकी चिकित्सा पद्धति एवं दवायें स्वयं के लिए उपयोगी सिद्ध न हो सकी वे भला दूसरों का क्या लाभ कर सकेंगे। इस तथ्य के देखते हुए यही उचित है कि हम दवाओं के अन्ध भक्त न बनें और डाक्टरों की केवल आवश्यक सहायता ही उपलब्ध करे।


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