अपनों से अपनी बात

December 1971

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यति और योद्धा का सम्मिश्रण कदाचित ही कहीं देखा जाता होगा। कारण कि यति की कोमलता, करुणा उसे दयालु क्षमा शील, उदार प्रकृति का बनाये रहती है। ईश्वर का विश्वासी अक्सर ईश्वर पर इतना निर्भर हो जाता है कि आपने कर्त्तव्य कर्मों का होना न होना भी ईश्वर इच्छा पर छोड़ देता है और जो कुछ हो रहा है सो ठीक मान लेता है, काम बड़े न बन पड़े तो क्या करें ? इस प्रकार अपने मन को समझा लेता है। वे न तो किसी से लड़ पाते हैं और न कोई लड़ा दुस्साहस करने लायक संकल्प ही कर पाते हैं। जब कि यह दोनों ही आधार आत्मिक विकास और लोक मंगल का व्यवस्था क्रम बनाये रहने के लिये नितान्त आवश्यक है।

आमतौर से यह माना जाता है कि जो आध्यात्मिकता के क्षेत्र में चला गया वह बाह्य क्षेत्र के लिए निरर्थक हो गया। क्योंकि संसार तो संघर्ष से चलता है, यहाँ हर किसी को हर कदम पर जीवन धारण किये रहने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। प्रगति के लिये तो वह अनिवार्य है। चाहे आत्मिक हो चाहे भौतिक हो दोनों ही दिशायें ऐसी है जो अपने-अपने ढंग से संघर्ष चाहती है। आत्मिक जीवन में अपने अपने दोष दुर्गुणों, कुसंस्कारों और प्रलोभनों-अवरोधों से लड़ना पड़ता है। गीता का प्रशिक्षण ही अन्तरंग जीवन, में पाँच प्राणों को सौ दोष दुरितों के कौरव पाण्डवों के रूप में लड़ा देने के लिए प्रादुर्भूत हुआ। आत्मिक साधना को भी समर कहा गया है। दुर्गा सप्तशती में महिषासुर मधु कैटभ और शुम्भ निशुम्भ के रूप में स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीर में घुसे बैठे असुरों को आत्म शक्ति द्वारा निरस्त करने की शिक्षा है। इस प्रकार संघर्ष आत्मिक प्रगति का भी प्रमुख आधार है। भौतिक जीवन का तो कहना ही क्या ? यहाँ प्रगति तो दूर अपने अस्तित्व को बनाये रह सकना भी बिना संघर्ष सम्भव नहीं। इस दुनिया में देवताओं से असुर अधिक है। वे हर घड़ी घात लगाये रहते हैं और जो दुर्बल गाफिल पाया जाता है उसे ही धर दबोचते हैं। आँख से न दीखने वाले रोग कीटाणुओं से लेकर-मक्खी, मच्छर, खटमल पिस्सुओं तक और साँप बिच्छुओं से लेकर व्याघ्रों तक अन्य जीव-जन्तु जब आक्रामक बने बैठे है तो मनुष्य वेशधारी असुरों का तो कहना ही क्या। वे कमजोर और गाफिल की तलाश करते फिरते हैं और जो संघर्ष करने से कतराता है उसे ही धर दबोचते हैं। प्रगति के लिये तो इंच-इंच रास्ता बनाना पड़ता है। सफलतायें उपहार में किसी को नहीं मिली। प्रचण्ड मनोबल और प्रखर पुरुषार्थ के मूल्य पर उन्हें खरीदा ही जाता है। इस संसार में आगे बढ़ने और जीवित रहने की राय यही है। पर यति लोग अपने दार्शनिक रुझान के कारण इन दोनों ही विशेषताओं से खाली हो जाते हैं। फलतः उनकी प्रगति रुकी ही पड़ी रहती है। न वे आत्मिक दिशा में आगे बढ़ पाते हैं और भौतिक क्षेत्र में। प्रगति के आधार ही जब गंवा दिये गये तो फिर उपलब्धि कैसी ?

विचारशील लोग वर्तमान अध्यात्म की चिन्तन शैली को इसलिए प्रतिगामी मानते हैं कि वह प्रगति का पथ अवरुद्ध करती है मिथ्या सन्तोष पैदा करके आशा की ज्योति ही बुझा देती है। “स्व” को खोकर एक प्रकार से ऐसे व्यक्ति परावलम्बी हो जाते हैं, जबकि होना ठीक उलटा चाहिए था। अध्यात्म का अर्थ ही आत्म निर्भरता और आत्मिक पूर्णता है। जहाँ अपूर्णताओं से समझौता कर लिया जाये, प्रगति को अनावश्यक माना जाये और आत्मोत्कर्ष के लिए अभीष्ट पुरुषार्थ को किसी दूसरे की-भगवान की कृपा के साथ बाँध दिया जाये तो निस्सन्देह ही लक्ष्य की दिशा में बढ़ चलना अवरुद्ध ही हो जायेगा। स्थिति यही है, जिसे तथाकथित अध्यात्मवादियों के जीवन क्रम का विश्लेषण करके सहज ही जाना जा सकता है। यही कारण है कि वर्तमान आध्यात्मिकता को विचारशील वर्ग नापसन्द करते हैं उसे अनुपयोगी मानते हैं और व्यक्ति तथा समाज के विकास क्रम में बाधा समझते हैं। जबकि वास्तविकता वैसी है नहीं। अध्यात्म के मूल सिद्धान्त जिन्हें आज एक तरह से भुला दिया गया है वस्तुतः ऐसे प्रखर है कि उनका अवलम्बन करने से प्रगति का मार्ग अवरुद्ध नहीं होता वरन् खुलता है। यदि ऐसा होता तो प्राचीनकाल में घर-घर महामानव उत्पन्न होने -अपने समाज को परिष्कृत करते हुए समस्त संसार का हर क्षेत्र में नेतृत्व कर सकने-के आधार कैसे बनते ? भारतीय समस्त विश्व में गौरवान्वित कैसे होती ? और आध्यात्मिकता को देव विद्या-संजीवनी विद्या-ब्रह्मविद्या के नाम से क्यों पुकारा जाता और क्या उसे प्राप्त करने के लिए सर्वत्र लालसा, आकाँक्षा उफनती फिरती ?

गुरुदेव भारत के प्राचीन अध्यात्म तत्व दर्शन एवं अध्यात्म का मूर्तिमान प्रतिनिधित्व करते हुए अवतरित हुए। वे जानते थे कि वाणी और लेखनी के माध्यम से प्रचार और शिक्षण का कुछ असर तो होता है और उसकी आवश्यकता भी रहती है, पर उतने भर से काम नहीं चल सकता। प्रभावशाली शिक्षण वह होता है जो मूर्तिमान हो। प्रत्यक्ष को देखे बिना प्रेरणा नहीं मिलती। विचार केवल हलचल उत्पन्न करते हैं, उन्हें कार्यान्वित कैसे किया जा सकता है। उसका उदाहरण जब तक सामने न आवे तब तक श्रेष्ठता के सन्मार्ग पर चलने की किसी को स्फुरणा ही नहीं मिलती, नमूना सामने है। किसी समय में केवल सात ऋषि थे और समस्त संसार के सातों द्वीपों का एक-एक करके समग्र नेतृत्व संभालते थे। कारण वे जो कहते थे सो करते भी थे। जो बताना चाहते थे, कराना चाहते थे, उसे उन्होंने अपने मन वचन और कर्म में अति गहराई तक समाविष्ट कर लिया था। यह समन्वय ही उनकी प्रभावशीलता का मात्र आधार था। विद्या और प्रतिभा का भी मूल्य है, जहाँ तक जीवन क्रम बदल देने जैसे घेर कर्म को कराने की व्यक्ति को पतन के गर्त से निकाल कर उत्कर्ष के शिखर पर पहुँचाने की आवश्यकता होती है वहाँ बाँस के डण्डे काम नहीं करते वहाँ मजबूत क्रेने ही काम करती है। प्राचीन काल में आत्म वेत्ता अपने को इतना समर्थ और प्रभावशाली बनाते थे कि लोक नेतृत्व कर सकें। इसके लिए वे बुद्धि या प्रतिभा को प्रखर करने में ही नहीं लगे रहते थे वरन् समग्र व्यक्तित्व को विचार एवं कर्म के समन्वय से प्रचण्ड बनाते थे। भारतीय तत्व ज्ञान की विश्वव्यापी गौरव गरिमा, प्रभावशीलता एवं सफलता का मूल कारण उसके व्याख्याओं द्वारा अपने जीवन प्रयोगशाला में अपने कथन की सार्थकता सिद्ध करना ही था। आज वह क्रम टूटा तो वह दर्शन भी बैठ गया, जिसकी अब केवल चर्चा ही शेष रह गई है।

सामान्य स्तर की जनता के मन में तथाकथित अध्यात्मवादियों के और धर्म धुरन्धरों के आचरणों को देखकर अरुचि उत्पन्न हुई है। दम्भ, छल, प्रपंच, भ्रान्ति और बहकावे के आधार पर कोई चीज देर तक खड़ी नहीं रहती ढोल की पोल आखिर तो विदित हो ही जाती है। दूसरों को त्याग का उपदेश स्वयं वैभव का संचय इस विडम्बना को जो भी देखता है मन खट्टा करता है। ईश्वर की दुहाई दिन रात देते रहने पर भी जिनके जीवन में कोई विशेषता न हुई उनका अनुगमन करके हमें क्या मिलने वाला है-उसमें भी सन्देह उत्पन्न होता है। मध्यम वर्गीय जनता का मन इन तथ्यों को जब देखता है तब उसकी रुचि इस ओर से घटती है। उच्च स्तर के विचारशील लोग थोड़ी और गहराई से देखते हैं उन्हें इस दर्शन में या उसकी व्याख्या में कहीं कोई भारी त्रुटि दिखाई देती है। ऊँचे स्तर की विचार सम्पदा के संपर्क में आने से व्यक्तियों में निखार आना चाहिए और प्रखरता उत्पन्न होनी चाहिए। यह कैसा दर्शन जो अपूर्णता को दूर करने के लिए तत्परता उत्पन्न करने की अपेक्षा उससे समझौता करले। यथा स्थिति से सन्तुष्ट रहने और परावलम्बन को उचित मानने को जो तैयार हो जाये वह कैसी उत्कृष्टता ? ऐसी आध्यात्मिकता को अपनाकर तो पुनः कमजोर और गाफिल लोगों की पंक्ति में ही जा खड़ा होगा जिन्हें आक्रामक तत्व जीवित नहीं रहने देते। भारत का पिछला इतिहास भी कुछ ऐसा ही है। पिछले एक हजार वर्ष में यहाँ धर्म की ध्वजाएं खूब उड़ाई गई। जितने भी पन्थ सम्प्रदाय इस देश में उभरे हैं वे सभी प्रायः इसी एक हजार वर्ष का उत्पादन है। सिद्ध महात्माओं की बाढ़ इन्हीं दिनों आई। और देश पददलित भी इन्हीं दिनों हुआ। सोचा जाता है कि इन भक्ति उत्पादनों की अपेक्षा यदि समर्थ गुरु रामदास, वन्दा वैरागी, गुरु गोविन्द सिंह जैसी प्रखरता को आन्दोलित किया गया होता तो देश का अधिक हित साधन होता। इस स्तर का चिन्तन जब विचारशील वर्ग के मन में चलता है तो वे इस प्रचलित धर्म-अध्यात्म की मान्यताओं को अवाँछनीय और अनावश्यक मान लेते हैं। और उसे कल्पनाओं का जंजाल मात्र समझकर उदासीनता धारण कर लेते हैं। इस प्रकार सामान्य और उच्च दोनों ही स्तर के लोग जब महान तत्व ज्ञान के प्रति उपेक्षा बरतने लगेंगे अपने मन में उसका मूल्य गिरा लेंगे तो उससे भारी हानि होगी। उच्च दर्शन की उपेक्षा करके कोई समाज अपनी उत्कृष्टता स्थिर नहीं रख सकता और उसके अभाव में उसे दुर्बल एवं पतित ही होना पड़ेगा। वर्तमान दार्शनिक अवसाद ने कुछ ऐसी स्थिति उत्पन्न करदी है कि जिसका सुधार बिना एक क्षण गंवाये अविलम्ब आरम्भ किया जाना चाहिए।

भारतीय तत्व दर्शन एवं अध्यात्म के सम्मुख प्रस्तुत इस जीवन मरण जैसे अवरोध का विश्लेषण और निराकरण सही रूप से प्रस्तुत करने के लिए गुरुदेव ने न केवल कहा और लिखा वरन् उसे अपने कर्त्तव्य का अविच्छिन्न अंग भी बनाया। उन्होंने यह प्रतिपादन किया कि यदित और योद्धा दोनों का एक साथ रह सकना सम्भव है। सम्भव ही नहीं -स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी। दयालुता का अर्थ अनाचार का संरक्षण नहीं और क्षमा का अर्थ पाप और अनीति को स्वच्छन्द रूप से कुहराम मचाते रहने की छूट देना नहीं है। रोगी पर दया की जानी चाहिए रोग पर नहीं। पापी को भी प्यार किया जा सकता है पर पाप के प्रति तो निष्ठुरता बरतनी ही पड़ेगी। सन्त की भी पूजा कसाई की भी पूजा। पुण्य की भी जय और पाप की भी जय। ऐसा सम दर्शन तो व्यक्ति को दार्शनिक भूल भुलैयों में उलझा कर संसार का सर्वनाश ही कर देगा। गुरुदेव ने अपने जीवन क्रम में उन तथ्यों को स्थान दिया जिनमें उनके यति तत्व के साथ योद्धा तत्व भी पूरी तरह जुड़ा हुआ है।

योद्धा के रूप में उन्हें देखा और परखा जाये तो लगेगा वे योद्धा पहले और यति पीछे थे। इसी प्रकार जब उनके यति गुणों को देखते हैं तो वे ही मुख्य मालूम पड़ते हैं। वस्तुतः दोनों तत्वों का विलक्षण समन्वय उनमें है, इसे संयोग नहीं मान लेना चाहिये वरन् यों समझना चाहिए कि उनकी हर क्रिया लोक शिक्षण के लिये थी और वे यह बताते थे कि यति और योद्धा के समन्वय से ही अध्यात्म की सर्वांग पूर्णता बनती है।

गुरुदेव के अबोध बचपन की बातों का तो ठीक से पता नहीं, पर जब से वे कुछ समझने समझाने लायक हुए तब से उनने अपनी साहसिक शूरवीरता को भी आगे ही रखा। जिस गाँव में जन्मे थे उस गाँव की एक बुढ़िया मेहतरानी के पैर में कीड़े पड़ गये थे। वह अकेली थी, इस स्थिति में कोई उसकी सेवा चिकित्सा करने को तैयार न होता था कीड़ों के कष्ट से बुढ़िया बेतरह रोती चिल्लाती, गुरुदेव से न रहा गया। वे चिकित्सक के पास गये। चिकित्सक उसे देखने जाने को तैयार न हुआ। तो पीठ पर लाद कर उसे ले गये। बारह वर्ष का बालक एक मन से अधिक भारी बुढ़िया को घोड़े की तरह चारों पैरों से चलता हुआ चिकित्सक के पास पहुँचा तो सब दंग रह गये। सुसम्पन्न घर का - उच्च ब्राह्मण कुल का अछूत मेहतरानी को इस प्रकार पीठ पर लाद कर चिकित्सक के पास पहुँचे यह एक बिलकुल अनहोनी बात थी चिकित्सक से विधि पूछी, दवा ली और जब तक बुढ़िया अच्छी न हो गई रोज ही उसकी मरहम पट्टी करने को ही नहीं उसकी भोजन व्यवस्था करने भी उसके घर जाते रहे।

अब से पचास वर्ष पूर्व का जमाना दूसरा था। उन दिनों छूतछात अब से अधिक थी। फिर पण्डित ब्राह्मण तो नहाने, छूने खाने में ही धर्म को समेटे बैठे थे। ऐसी परिस्थिति में उनके पूरे परिवार ने विरोध किया, गाँव के दूसरे लोगों ने भी उंगली उठाई। नतीजा यह हुआ के उनके घर में घुसने पर प्रतिबन्ध लग गया। बारह वर्ष का बालक आखिर करता ही क्या। घर से बाहर उन्हें हाथ पर रोटी दी जाती; कोई उन्हें छूता नहीं, घुड़साल में चारपाई डाल दी गई। यह सब हुआ पर मेहतरानी बुढ़िया की सेवा तब तक नहीं छटी जब तक कि वह पूरी तरह अच्छी नहीं हो गई। जब चिकित्सा क्रिया बन्द हो गई तब ब्राह्मणों की पंचायत ने दण्ड दिया कि इसे प्रायश्चित के लिये गंगा स्नान करने भेजा जाये और ब्रह्मभोज करने की व्यवस्था की जाये। बारह वर्ष के बालक का साहस तो देखिये, उनने यही कहा-मैंने ऐसा कोई पाप नहीं किया है, जिसका प्रायश्चित करना पड़े। गंगा स्नान जैसे शुभ कार्य में मुझे श्रद्धा है पर प्रायश्चित के रूप में तो उसके लिये भी तैयार नहीं हूँ। मुद्दतों यह झंझट चलता रहा। सारा परिवार, सारा गाँव, सारा समाज एक ओर और बारह वर्ष का बालक एक ओर। बालक प्रहलाद की तरह अड़ा ही रहा, समय ने वह बात पीछे डाल दी। बहिष्कार समाप्त हो गया। पर चर्चा बनी हरी कि जिसे मनुष्य सही समझे उसके लिये कितना कठोर और दृढ़ होना चाहिये इसका उदाहरण एक छोटे लड़के ने किस बहादुरी से प्रस्तुत किया।

सन् 30 का काँग्रेस संचालित सत्याग्रह आन्दोलन शुरू हुआ। तब तक वे 18 वर्ष के हो चुके थे। उन दिनों आतंक बहुत था। गोली चलने लम्बी जेल होने-घर जायदाद जब्त होने की चर्चा हर किसी के मुँह पर थी। गुरुदेव ने निश्चय किया कि अन्याय का प्रतिकार करने के लिये बड़े से बड़ा कष्ट सहना चाहिए। वे सत्याग्रहियों की सेना में भर्ती हुए। घर वाले चिन्तातुर हो उठे। जिस दिन उन्हें जाना था, उससे एक दिन पूर्व ही घर में बन्द कर लिया गया। न जाने के लिए समझाने से लेकर बल प्रयोग तक के सारे उपाय परिवार द्वारा काम में लाये जा रहे थे। पर जो उचित है उस पर से रत्ती भर टलने की बात स्वीकार नहीं हुई। रात को टट्टी जाने के लिए घर की कैद से छूटे नंगे पैर, एक बनियान और नेकर पहने, हाथ में लोटा। घने अंधेरे में रास्ता उलट कर चल दिये और घोर अंधियारी, वर्षा के बीच भेड़ियों से भरे घने खार बीहड़, नदी नाले पर करते हुए रातों रात लम्बी यात्रा करके आगरा पहुँचे । जब तक घर वाले पता लगाने पहुँचे उससे पहले ही जेल चले गये।

उग्र सत्याग्रहियों में उनकी गणना थी। एक-एक करके तीन बार उन्हें उस अवधि में जेल जाना पड़ा और कुल मिलाकर लगभग चार वर्ष जेल रहे। जुर्माना हुआ। घर का सामान जब्त और नीलाम हुआ कई बार बुरी तरह पिटे और एक बार तो घोड़े के पैरों के नीचे कुचले जाने पर इतनी चोट लगी कि जीवन संकट में पड़ गया। गैर कानूनी कलकत्ता काँग्रेस में उत्तर प्रदेश का जत्था लेकर पहुँचे तो वहाँ गोलियों की बौछार से जहाँ कितने ही साथी खेत रहे वहाँ से आश्चर्य की तरह ही बचे रहे। बंगाल की आसन सोल जेल में इन्हें फिर बंद रखा गया। उन दिनों की दुस्साहस पूर्ण चर्चाएं जिनमें सन 42 की और मरी आन्दोलन की रोमाँचकारी घटनायें भी हैं शामिल है ऐसी हैं जिन्हें सुनते ही पसीना छूटता है। ऐसी घटनाएं न केवल उनके द्वारा योजना बद्ध रूप से संचालित होती रही वरन् स्वयं भी बढ़ चढ़ कर उनमें भाग लेते रहे। ऐसा दुस्साहसी व्यक्ति यति भी हो सकता है और यति में मृत्यु से अठखेलियाँ करने वाला, इतना दुस्साहस भी हो सकता है, यह एक अनोखी बात लगती है। पर है सत्य। इन घटनाओं के संदर्भ में उनका कहना यही था-आत्मा की अमरता और मृत्यु को वस्त्र बदलने जैसी सामान्य घटना मानने की गीता की शिक्षा-सदुद्देश्य के लिये बड़े से बड़ा दुस्साहस कर गुजरने की ही तो शिक्षा देती है।

गायत्री यज्ञ आन्दोलन उनके द्वारा भारत के ऐतिहासिक आन्दोलनों में से एक है। उसकी विशालता का मूल्याँकन किया जाये तो दाँतों तले उंगली दबानी पड़ेगी कि किस प्रकार उसमें करोड़ों व्यक्तियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया और इन व्यवस्थाओं में किस प्रकार करोड़ों रुपयों की व्यवस्था सम्भव हुई उस अभियान के अनेक आध्यात्मिक पहलू भी है जो सूक्ष्म जगत को अनुप्रमाणित करने से सम्बन्ध रखते हैं। पर एक प्रत्यक्ष पहलू सामाजिक क्रान्ति भी थी। भारत की मूल समस्या सामाजिक है। राजनैतिक और आर्थिक समस्याएं तो उसे साथ जुड़ी हुई है। यदि देश में से ऊँच नीच, स्त्रियों को प्रतिबन्धित करना, विवाह शादियों में होने वाले अपव्यय जैसी सामाजिक बुराइयों को दूर न किया जा सका तो देश का पिछड़ापन कभी दूर न होगा और राजनैतिक एवं आर्थिक प्रगति के बावजूद विकास की कोई सम्भावना साकार न होगी। कारण कि इस प्रकार की बुराइयों से जो क्षति निरन्तर होती रहती है, उसे कितनी भी बड़ी विकास योजनायें पूरा नहीं कर सकती। जब क्षति पूर्ति तक हमारे समस्त प्रयासों से संभव नहीं तो प्रगति की बात ही कहाँ से बनेगी ? इस लक्ष्य को भलीभाँति समझते हुए गायत्री यज्ञ आन्दोलन के साथ उन्होंने सामाजिक क्रान्ति की व्यवस्था को गहराई तक जोड़ कर रखा है।

गायत्री मन्त्र का मनुष्य मात्र को अधिकार दिये जाने की घोषणा करने से जब अछूत भी उसका उपयोग करने लगे तो पुरातन पन्थियों में खलबली मच गई। जो मन्त्र ब्राह्मणों का था, कान में कहा सुना जाने वाला था, उसे सब लोग प्रकट रूप में कहें सुनें यह कैसा अनर्थ ? यज्ञों में केवल ब्राह्मण लोग दक्षिणा लेकर आहुतियाँ देते थे। स्त्रियों - को अन्य वर्णों को उसमें प्रवेश मिलता ही नहीं था। उसमें सम्मिलित होने के लिए सबका खुला प्रवेश ? यज्ञ आयोजनों में आने वाले आगन्तुकों को कच्ची (दाल भात, रोटी) का प्रबन्ध और बिना जाति पाँति के भेद-भाव के उनका बनाया और परोसा जाना, यह उन दिनों घोर आश्चर्य का विषय था। इस व्यवस्था को अनाध्यात्मिकता, नास्तिकता आदि न जाने किन किन नामों से पुकारा जाता रहा। पुरातन पन्थियों ने उसका घोर विरोध किया। सभायें हुई, लेख छपे, धर्म ध्वजियों ने भाषण वक्तव्य दिये, काले झण्डे निकाले, नाश के नारे लगाये और सही गलत जो कुछ भी हो सकता था सब कुछ कहा गया। चर्चा फैलाई आचार्य जी ब्राह्मण नहीं लकड़ी का काम करने वाले बढ़ई हैं और भी न जाने क्या-क्या कहा गया। कई बार तो उन्हें शारीरिक आघात पहुँचाने और अपशब्द कहने तक के अवसर आये। पर क्या मजाल कि चेहरे पर जरा भी उदासी आई हो। सामाजिक क्रान्ति का इतना बड़ा तूफानी अभियान खड़ा करने वाले में कितना दुस्साहस होना चाहिए उसे देखना नापना हो तो इस 110 पौंड भारी हाड़ माँस के पिंड में कितनी प्रचण्ड दृढ़ता विद्यमान है उसे उनके समीप ही जाकर जाना जा सकता है। यदि साहसी सैनिक की तरह उनके संघर्ष प्रवृत्तियों का लेखा-जोखा लिया जाये तो पता चलेगा कि अन्याय और अनाचारों के विरुद्ध उनका प्रत्येक दिन ही लड़ने में बीता है यदि वे संघर्षात्मक घटना को इकट्ठे किये जाये और उनमें मिली सफलता और असफलताओं, घावों और चोटों को गिना जाये तो लगेगा कि वे अनाचार से आजीवन कट-कट कर लड़ने वाले योद्धा के रूप में ही जन्मे और शायद अन्तिम साँस तक वे इस युद्ध में संलग्न रहते हुए प्राण त्यागेंगे।

संकल्प की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक खतरों को सिर पर उठा लेने का उनका सहज स्वभाव है। सन् 60 में जब ये एक वर्ष के लिये अज्ञातवास गये थे तब गंगोत्री की भागीरथी और उत्तर काशी के परशुराम आश्रम के समीप रहना पड़ा। उन क्षेत्रों में शीत की प्रचंडता कई बार तो असहाय हो जाती है। सर्प, रीछ, व्याघ्र और दूसरे हिंसक जन्तुओं ने जीवन का संकट भी। एकाकी जीवन में भोजन तक की अव्यवस्था तथा अनेक प्रकार की संभावित आशंका सूनेपन की नीरसता तथा ऊब। इन सब बाधाओं के रहते अपने मार्ग-दर्शक का बताया साधन क्रम करना ठहरा सो किया ही। डर तो उन्हें छू भी नहीं गया है। कठिनाइयों से अठखेलियाँ करने में न जाने कैसा मजा उन्हें आता है। आत्मवेत्ता सिद्ध पुरुषों के संपर्क में आने के लिये उन्होंने अति भयानक अगम्य वन पर्वतों में कितनी दुस्साहस भरी यात्रायें की हैं और किन संकटों का सामना करते हुए क्या पाया है इसकी चर्चा जब जब उनके मुख से सुनने को मिलते तो यह लगता-दुर्बल अस्थि पिंजर वाले नगण्य से दीखने वाले कलेवर में न जाने इतना अदम्य साहस किसने कहाँ से, कितना कूट-कूट कर भर दिया है। इन दिनों चल रही उनकी तपश्चर्या भी कम उग्र और कम रोमाँचकारी नहीं है।

जब से उन्होंने विज्ञान के आधार पर अध्यात्म के प्रतिपादन का विषय हाथ में लिया है और अखंड-ज्योति में उसकी लेख माला प्रस्तुत करनी आरम्भ की है तब से वैज्ञानिक क्षेत्र में घोर हलचल मची हुई है। विज्ञान सदा अध्यात्म की काट करता रहा हैं और अध्यात्म ने विज्ञान सदा से व्यंग कटाक्ष किये हैं। अब तक दोनों में कुत्ता बिल्ली का सा बैर रहा हैं। किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि विज्ञान के आधार पर अध्यात्म का प्रतिपादन सम्भव हो सकेगा और दोनों को एक दूसरे का पूरक सिद्ध किया जा सकेगा। ऐसी सम्भावना तो व्यक्त की जाती थी पर आशा रखी जाती थी कि शायद कभी ऐसा प्रतिपादन किया जाय पर अभी तक सम्भव नहीं दीखता था, पर जब गुरुदेव ने उसके प्रतिपादन को अपने हाथ में लिया तो चूहे बिल्ली के विवाह जैसी विसंगति सामने आई इस प्रतिपादन प्रसन्नता व्यक्त की गई वहाँ कट्टर पन्थियों ने इसका विरोध भी खूब किया, जो हो बात इन्हीं तीन वर्षों में आगे बढ़ गई कि यह प्रतिपादन समस्त विश्व के विचारकों, वैज्ञानिकों और दार्शनिकों के लिए एक अति वर्चक चर्चा का विषय बन गया। यह इसी के प्रकट होता है। केवल इसी विषय को लेकर औसतन 100 से अधिक प्रतिदिन मथुरा आते थे और तत्सम्बन्धी अनेक जिज्ञासायें व्यक्त की जाती थी। बात और बढ़ी और वह प्रतिपादन चुनौती के स्तर पर जा पहुँचा। कहा जाने लगा तर्क प्रमाणों की दृष्टि से आंकी बात समझ में आती हैं उसकी प्रमाणिकता प्रत्यक्ष पर निर्भर रहेगी सो अपने प्रतिपादनों को प्रत्यक्ष कीजिये। प्रायः एक वर्ष से संसार अनेक विज्ञान संस्थाओं द्वारा यह चुनौती दी जा रही हैं कि विचार और भावनाओं का स्थूल पदार्थों पर क्या प्रभाव पड़ सकता है तो उसे प्रत्यक्ष करके दिखाया जाय। इतना भर मानते थे कि विचारों का विचारों पर व पड़ सकता है पर उनका पदार्थों पर कैसे प्रभाव पड़ा ?

यह सिद्ध किये बिना अध्यात्म में प्रचण्ड शक्ति होने मान्यता लोगों के मनों में नहीं बिठाई जा सकती और जब तक उतना आकर्षण न हो लोग उसकी अधिक उप-- स्वीकार न करके। चूँकि अगला समय भौतिक के स्थान पर अध्यात्म विज्ञान को प्रतिष्ठापित करने को आयेगा। इसके लिये आधार बनना चाहिए और तरह तरह की प्रत्यक्ष प्रामाणिकता प्रस्तुत की जानी चाहिए जो कि प्रत्यक्ष वादियों द्वारा माँगी जा रही हैं। अपना चमत्कार दिखाने के लिये नहीं वरन् सर्व साधारण को आत्म विद्या की उत्कृष्टता समझाने की और उस ओर रुझान उत्पन्न करने के लिये ऐसा प्रतिपादन एवं प्रत्यक्षी करण आवश्यक हो गया है और चुनौती को स्वीकार कर लिया गया हैं। चूँकि गुरुदेव को पिछले दिनों युग निर्माण योजना के संदर्भ में संगठनात्मक प्रचारात्मक और आँदोलनात्मक कार्य मनोयोग उधर ही लगा रहा। अस्तु उस प्रकार से प्रत्यक्ष प्रमाणित कर सकने योग्य क्षमता में कमी मालूम पड़ी। इस कमी को परी करने के लिये ही इन दिनों उनके तप साधन आध्यात्मिक व्यायामों के रूप में चल रहें हैं। वे कितने जटिल और कठिन हैं इसकी चर्चा सर्वसाधारण का विषय नहीं हैं। पर यहाँ इसलिये यह बताना पड़ा चढ़ी है और वे इस आयु में भी कितने दुस्साहसपूर्ण कार्य कितनी उमंग और कितने उत्साह के साथ कर सकने में संलग्न तथा समर्थ हैं।

अध्यात्म पर लगाया जाने वाला लांछन सही नहीं है कि जो यति है वह योद्धा नहीं हो सकता। दोनों का समन्वय सम्भव ही नहीं स्वाभाविक भी हैं। विश्वमित्र, अगस्त्य, शृंगी, परशुराम, वशिष्ठ, द्रोणाचार्य, दधीचि आदि ऋषियों के कठोर कर्तृत्वों को देखकर इस निष्कर्ष पर सहज ही पहुँचा जा सकता है कि अध्यात्म व्यक्ति को अकर्मण्य कर सकने की क्षमता प्रदान करता है। उसी प्रकार यह मान्यता भी सही नहीं है कि मानसिक दृष्टि से व्यक्ति को दीन दुर्बल, कायर, समझौतावादी एवं परावलम्बी बनना अध्यात्म की प्रवृत्ति हैं। सही बात यह है कि उससे संकल्प शक्ति और अधिक तीव्र होती है तथा मानसिक एवं आत्मबल की आश्चर्यजनक बढ़ोतरी होती हैं। ब्रह्मचारी नपुंसक जैसा दीखता भर है उसका पौरुष कामुकों की अपेक्षा बढ़ा-चढ़ा होता है। यति यदि सच्चा हो तो न उसका कम होता है न शौर्य-पराक्रम।

व्यक्तिगत भौतिक प्रगति का जहाँ तक सम्बन्ध है यदि कोई इस और से उदासीन रहे और उपयोग की दृष्टि से न्यूनतम मात्रा अपने लिये प्रयोग करता है, सादगी और मितव्ययिता का जीवन जीता है तो यह ठीक हैं। यदि इसे ही गरीबी कहा जाता हो तो हर्ज नहीं। क्योंकि व्यक्तिगत आकाँक्षाओं और वासना तृष्णाओं से बचा रहे तो भी मनुष्य की विभूतियों का उपयोग परमार्थ एवं लोक मंगल में हो सकेगा। इसी प्रकार यह लाँछन भी सही है कि अपने में व्यक्तिगत दृष्टि रखने वाले और ठगने वालों से बदला नहीं लेता। यह इसलिए सही है कि उस प्रतिशोध में बहुत शक्ति खर्च होती हैं, उससे लाभ तो अकेले का ही पर हानि सबकी होती हैं-- जो सामाजिक अथवा अधिक बुरी तरह के अनाचारों का उत्पीड़न सह रहे थे। वस्तुतः सामूहिक दुष्प्रवृत्तियों से ही लड़ना अधिक उपयुक्त रहता है क्योंकि उनके मिटने से असंख्य लोगों को राहत मिलती हैं।

जहाँ तक व्यक्तिगत सुखोपभोग का सम्बन्ध है गुरुदेव ने अभावग्रस्त दरिद्री जैसी जीवन जिया। जहाँ तक व्यक्तिगत भौतिक उन्नति का सम्बन्ध है वे उसकी ओर सदा उपेक्षा की दृष्टि से देखते रहें। धन, यश और विलास इर्द-गिर्द इकट्ठा होने लगा तो ऐसी डुबकी लगाई कि यह मगर उन्हें ताकते ही रह गये और वे देखते-देखते उनकी पकड़ से बाहर। यदि उनने वैभव चाहा होता तो शासन में ऊंचे पर पहुँचे होते। राजनीति में उनका लोहा माना जाता, विद्वानों में मूर्धन्य गिने जाते और पैसा उनके पैरों में लोटा फिरता। फोटो छपने, अभिनन्दन ग्रन्थ मिलते और राज सम्मान की उपाधियों से विभूषित होते। और भी न जाने क्या-क्या होते। उनको हिमालय जितनी क्षमताओं की प्रतिक्रिया बड़े वैभव के रूप सामने खड़ी होती। पर इस सम्बन्ध में वे निस्पृह अवधूत की तरह ही बने रहे और अपनी बाल सुलभ सरलता को ही अपनी सर्वोत्तम संग्रहित संपत्ति मानते रहे। लोगों ने उन्हें कितना ठगा है, कुछ प्राप्त करने के लिये कितने-कितने प्रपंच रचे हैं और काम निकल जाने पर किस तरह तोता चस्मी दिखाते रहे हैं इसका कभी कोई-कोई चुटकुला उनके मुँह से सुनने को मिल जाता है। उन्हें उस पर तनिक भी क्षोभ नहीं, केवल लोगों का छोटापन समझकर विनोद मात्र करते हैं और कहते हैं, यह भोले लोग कुछ ऊँची चीज माँगने या पाने के इच्छुक होते तो हम जिस तरह एक समर्थ के दरवाजे पर जाकर अपनी झोली भर लाये थे उसी तरह यह लोग भी कुछ काम की और वजनदार चीज लेकर जा सकते थे पर ओछापन बेचारों को कृतज्ञता की सुखद अनुभूति तक का लाभ नहीं लेने देता है। जो बहुत पुराने परिचित हैं पर इस लम्बी अवधि में वे जहाँ के तहाँ रहे और गुरुदेव कहाँ से कहाँ पहुँचे हुए देख कुढ़ते हैं। और ईर्ष्या वश अनेक तरह की क्षति पहुँचाने की कोशिश करते हैं। ऐसे ईर्ष्यालु लोगों के कुकृत्यों में बेसिर पैर के लाँछन लगाने से लेकर विष देने तक की जघन्य घटनायें शामिल हैं उनमें प्रतिशोध लेने की बात मन में कभी नहीं आई केवल बेचारे ही कहकर सम्बोधित करते रहे और उलट कर इसका परिणाम उनके लिये क्या हो सकता है। इस प्रकार व्यक्तिगत लाभ और व्यक्तिगत प्रतिशोध की बात उन्हें सूझी ही नहीं। अपने आपको एक प्रकार से भूले ही रहे। अनुभव करते हैं कि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत सत्ता को किसी महान सत्ता में घुला ही दिया है और अपना कहने लायक उनके पास कुछ रह ही नहीं गया हैं। प्रत्यक्ष इसे हानि या अपकर्ष कहा जा सकता है। लोग व्यंग करते हैं कि जबकि उनसे पिछड़े हुए लोग मोटरों और हवाई जहाजों में उड़े फिरते हैं तब उनके पास साइकिल रिक्शा भी नहीं हैं। उस नजर से देखने वाले अध्यात्म को घाटे का सौदा कह सकते हैं, पर तब फिर गुरुदेव को ही नहीं, विश्वामित्र, भर्तृहरि, बुद्ध, महावीर, गान्धी आदि न जाने कितनों को घाटा उठाने वाले सौदागर कहा जायगा। जब इतने दिवालिये मौजूद हैं तो हमें ही क्यों शर्म आये-यह कहते हुए अपनी गरीबी पर हमने उन्हें विनोद भरा रस लेते ही देख गया।

पर यह निस्पृहता केवल व्यक्तिगत जीवन तक ही सीमित हैं। समाज की सम्पन्नता और सुविधा बढ़ाने की उन्हें उससे लाख करोड़ गुनी चिन्ता है जितना किसी लोभी को अपनी व्यक्तिगत तृष्णाओं की पूर्ति के लिये हो सकती हैं। समाज में फैले हुए अनाचार के प्रति उन्हें उससे लाख गुना रोष है जितना अपना सर्वस्व लूट ले जाने वाले के और हाथ-पैर जल जाने वाले डाकू के प्रति हो सकता है। विश्व वेदना से व्यथित उनकी अंतरात्मा का रुदन कदाचित् ही कोई देख पाया हो। पर जो देख सकता है देख ले कि इस अनुपम में व्यथा और आक्रोश का हिमाच्छादित ज्वालामुखी जैसा कैसा विचित्र संयोग सन्निहित हैं।

वे अपनी आग में हिमालय को पिघलाने गये हैं। लेखनी से विचार क्रान्ति, नैतिक क्रांति की उनकी निमार्ण योजना चल रही हैं। रचनात्मक और आकर्षक कार्यक्रमों को लेकर उनका विशाल परिवार व्यक्ति और समाज को बदलने के लिए लगा हुआ हैं। यह आन्दोलनात्मक अभियान है जो उपयोगी भी हैं और आवश्यक भी। लोगों को अपने कर्त्तव्य का बोध कराने के लिए किये बिना काम नहीं चल सकता था, सो किया भी है, हो भी रहा हैं। पर जो हो रहा है वह कम है। उसके लिये अभी बहुत शक्ति की आवश्यकता है और शक्ति को उत्पन्न करने वाली अणु भट्टी से उत्पन्न होने वाली ऊष्मा से भी अधिक प्रचण्ड तापमान की। सो उनकी वर्तमान तपश्चर्या का प्रयोजन यही हैं। दीपक अपने को लाकर प्रकाश करता है और वे अपने को जलाकर ऊष्मा पैदा करने चले हैं जो दावानल की तरह भड़के और पाप तथा पतन के इस दण्डकारण्य में छिपे हुए सुरों को जलाकर भस्म करदें।

बाहर से अति सरल अति सौम्य और अति शान्त रखने वाले इस महामानव में इतना रोष और इतना दर्द हो सकता है इसका पता उनके निकटवर्तियों छोड़कर और किसे होगा वे किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं लेते और न किसी को इंगित करते हैं पर समाज के 1.राजनेता 2. धर्मगुरु 3. बुद्धिजीवी 4. कलाकार और 5. सम्पत्तिवानों के प्रति यह कहते जरूर हैं कि इनके हाथ में जो शक्ति है उसका यदि उन्होंने सदुपयोग किया होता तो आज यह दुर्दिन न देखने को मिलते जो देखने पड़ रहे हैं। हो सकता है वे इन्हें ही पिघलाने के लिए तप कर रहें हों। हो सकता है उस तपश्चर्या की आग में पिघल कर इन पाँच पाषाणों में से शिलाजीत की धार बह निकले। हो सकता वे सर्वसाधारण में अपने करने गये हों। सम्भव है वे विस्मृतियों का दुरुपयोग करने बालक विभूतिवानों को पदच्युत करने वाली परिस्थितियाँ उत्पन्न करने गये हों।

यति और योद्धा की उभयपक्षीय वि`


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