सत्तर लाख मौतें बच सकती है।

December 1971

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विश्व स्वास्थ्य संघ के डाक्टरों की रिपोर्ट के अनुसार संसार के रोगियों की मृत्यु में अन्य रोगियों तथा फेफड़ों के रोगियों का अनुपात पाँच और एक का है, हर पाँच रोगियों में एक क्षय या फेफड़े के कैंसर से मरता है 15 वर्ष की आयु के ऊपर की गणना करें तब तो फेफड़े के रोगों से मरने वालों की संख्या एक तिहाई हो जाती है।

फेफड़ों का स्वास्थ्य सीधे-सीधे वायु से सम्बन्ध रखता है। निसर्ग ने प्राणियों को वायु का अकूत भाण्डागार दिया है और पग पग पर उसको स्वच्छ रखने की व्यवस्था की है इतना होने पर भी यदि फेफड़े का रोग मानव जाति को इतना संत्रस्त कर रहा है तो समझना चाहिए मनुष्य कहीं कोई भयंकर भूल कर रहा है।

भारत वर्ष में प्रति मिनट एक रोगी क्षयरोग (फेफड़ा के रोग) से मरता है अर्थात् एक दिन में 1440 और प्रति वर्ष 231490 लोगों की मृत्यु टी.बी से होती है। यह आंकड़े कोई 26 वर्ष पुराने है जब कि इन दिनों अपराध, भ्रष्टाचार और महँगाई के साथ रोगों में भी असाधारण वृद्धि हुई है यों तो आज का मनुष्य बड़ा चालाक और सभ्य बनता है किन्तु जब इस दृष्टि से देखते हैं तो लगता है कि मनुष्य आज भौतिकता की चकाचौंध में अपने आपको बुरी तरह छल रहा है।

अनुमान है कि इस समय देश में 70-80 लाख व्यक्ति क्षय रोग से पीड़ित है 1965 में टी.बी की जाँच करने वाला बी.सी.जी टीका 86.3 लाख व्यक्तियों को लगाया गया। जाँच से 54.34 लाख व्यक्ति अर्थात् कुल आबादी का दो तिहाई भाग किसी न किसी रूप में क्षय ग्रस्त था। उस समय तक देश में 34517 रोग शैयाओं से युक्त 427 क्षय रोग अस्पताल थे अब उनकी संख्या तिगुनी चौगुनी बढ़ गई है। अस्पताल बढ़ने से रोगियों की संख्या कम होनी चाहिए थी किन्तु बात हुई उल्टी अर्थात् अस्पतालों की खपत के लिए रोगियों की संख्या भी बढ़ी जो इस बात का प्रमाण है कि संकट अत्यधिक गम्भीर है उसकी जड़ को ठीक किए बिना रोग पर नियन्त्रण पा सकना संभव नहीं।

फेफड़े के रोगों का क्षय रोग का सीधा सम्बन्ध प्राण वायु से है। वायु प्रदूषण भी उसका कारण हो सकता है पर यह बात अन्य देशों पर जहाँ मशीनी करण बहुत तेजी से हुआ लागू होती है भारतवर्ष जैसे देश में जहाँ कि आज भी प्रतिवर्ष यज्ञ हवन होते ही रहते हैं और मशीनीकरण भी अभी प्रारम्भिक अवस्था में है वायु प्रदूषण इतनी बड़ी क्षति का कारण नहीं हो सकता। यदि कुछ हो भी तो आकाश शुद्धि के लिए यज्ञीय कार्यक्रमों का जा प्रसार हो रहा है वह उसे पूरी तरह निरस्त कर देगा यह भी संभावना है कि यज्ञों का विस्तार इसी शताब्दी के अंत तक अन्य देशों में भी हो जायगा उससे वायु अशुद्धि का काफी हद तक निराकरण होना संभव है।

क्षय रोग फेफड़े के रोगों का मूल कारण श्वासोच्छवास क्रिया की वैज्ञानिक अनभिज्ञता और उसका सही ढंग से उपयोग न किया जाना ही है। मृत्यु के आँकड़ों से भी यह बात निर्विवाद सत्य सिद्ध हो जाती है। यह रोग 15 वर्ष की आयु से अधिक की आयु वालों को ही होता है। उससे कम आयु के किशोर और बच्चों में खेल, कूद, उछलने दौड़ने तेजी से चलते रहने पर भी सक्रिय होने गुणों के कारण श्वास भरी पूरी फेफड़ों में पहुँचती रहती है और फेफड़ों को भर पूर हवा मिलती रहे तो फिर उनके खराब होने का प्रश्न ही नहीं उठेगा।

स्पंज की तरह बने हुए फेफड़े प्रकृति की सूक्ष्मतम और गूढ़तम रचना हैं। उनमें 7 करोड़ 30 लाख के लगभग छोटी-छोटी छिद्रनुमा कोठरियाँ होती हैं शुद्ध रक्त शरीर में घूमते-घूमते अपना आक्सीजन अपनी तेजस्विता शरीर के अन्य अंगों को दे आता है और एक परोपकारी व्यक्ति के समान उन सब की बुराइयाँ लेकर स्वयं नीलवर्ण का होकर इन कोठरियों में आत्म-शुद्धि के लिए आ जमा होता है श्वाँस खींची जाती है तब वायु नासिका के रास्ते से होती हुई स्वर यंत्र में जाती और वहाँ से अपने अत्यन्त पतली श्वाँस नालियों में विभक्त होकर फेफड़े के हर छिद्र तक हर कोठरी तक जाती है। रक्त के साथ वायु का स्पर्श होने पर ज्वलन क्रिया होती है और रक्त का सारा दूषण कार्बनिक अम्ल वायु के साथ बाहर निकल आता है और रक्त वायु में से आक्सीजन चूस कर फिर सशक्त बन जाता है और शरीर को पुष्टि प्रदान करने के लिये वहाँ से प्रवास पर निकल पड़ता है।

15 वर्ष की आयु को अधिक आयु वालों से क्षयरोग क्यों होता है इसकी शोध करते समय डाक्टरों में पाया कि इस आयु और उससे आगे के वह लोग क्षय से पीड़ित होते हैं जिनके फेफड़ों को भर पेट वायु नहीं मिलती। 7 करोड़ 30 लाख कोठरियों में से कुल 2 करोड़ कोठरियों में वायु पहुँच पाता है शेष 5 करोड़ 30 लाख छिद्रों का अशुद्ध रक्त ज्यों का त्यों लौट जाता है और आलस्य, रक्तविकार तथा अन्य बिमारियों का कारण बनता है। जिन कोठरियों में वायु नहीं पहुँच पाता उनके गन्दगी और रोग के कीटाणु पैदा होकर बढ़ने लगते हैं। खाली पड़े मकान में जिस तरह मकड़ियां और तरह तरह के कीड़े अड्डा जमा लेते हैं उसी प्रकार वायु रिक्त फेफड़ों के इन छिद्रों में भी रोग कृमि और गन्दगी बढ़ने लगती है यदि उपचार नहीं होता तो यह कोमल फेफड़े सड़ने लगते हैं टी.बी. इसी अवस्था का नाम है।

स्पष्ट है कि फेफड़े के रोगों से मुक्त रहना हो तो श्वाँस-प्रश्वाँस क्रिया को गहरा होना चाहिये। डाक्टरों और वैज्ञानिकों का कथन है कि लोग एक मिनट में 12-20 बार साँस लेते हैं यदि एक मिनट में श्वाँस की संख्या इससे भी कम होने लगे तो हवा उतनी ही गहरी होगी और उतनी ही अधिक शक्ति फेफड़ों को मिलेगी। इससे स्पष्ट है फेफड़ों का स्वास्थ्य श्वांस क्रिया के नियन्त्रण पर आधारित है और उसका एक मात्र उपाय “प्राणायाम” ही है।

“प्राणायाम” यद्यपि एक महत्वपूर्ण विज्ञान है तथापि एक दृष्टि में वह स्वास्थ्य का भी प्रमुख आधार है। पात अंजली योग के अनुसार - “तस्मिन सति श्वास-प्रश्वास-योर्गति विच्छेछःप्राणायामः” (2149) अर्थात् आसन का अभ्यास हो जाने का श्वाँस और प्रश्वाँस की गति के विच्छेद का नाम ही प्राणायाम है। “प्रा” कहते हैं जीवनी-शक्ति को और “आयम” अर्थात् “फैलना” या “वैशवर्ती करना”। प्राणायाम का अर्थ हुआ श्वाँस प्रश्वाँस की वह क्रिया जो सारे शरीर में जीवनी-शक्ति का संचार करती है और प्राणों का नियन्त्रण करना सिखाती है। किसी समय इस विधा से न केवल लोग दीर्घजीवी हुआ करते थे अपितु प्राण-सत्ता पर नियन्त्रण कर ऐसी ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ प्राप्त करते थे जो आज के व्यक्तियों की कल्पना में भी नहीं आ सकते।

प्राणायाम की क्रिया द्वारा एक मिनट में 18 या 20 श्वाँस की गति को 1 मिनट में 1 श्वाँस की सामान्य गति तक लाया जा सकता है। इतनी गहरी साँस ली जायेगी जो स्पष्ट है कि फेफड़ों के जो 5 करोड़ 30 लाख छिद्र वायु संपर्क से रहित रह जाते हैं उन्हें भी, शुद्ध वायु मिल जायेगी जिससे रक्त की भी सफाई होगी और छिद्रों की भी तब फिर न तो शरीर में जीवनी शक्ति का अभाव रहेगा और न फेफड़ों के रोगी होने का कोई कारण शेष रहेगा।

प्राणायाम एक प्रकार का अन्तर व्यायाम है उसके द्वारा और लाभ चाहे लिये जायें या नहीं पर शरीर को शुद्ध और सशक्त रखने का लाभ तो लिया ही जा सकता है। फेफड़ों के रोगों से बचने के लिये तो हर किसी को आधे घण्टे प्राणायाम अवश्य करना चाहिये।


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