मनुष्य महान है और उससे भी महान उसका भगवान

December 1971

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सच कहा जाय तो इस संसार में दो वस्तु बड़ी अद्भुत और महत्वपूर्ण हैं। एक हमारा परमेश्वर और एक हम स्वयं। इन दो से बढ़कर और कुछ आश्चर्यजनक और सामर्थ्य सम्पन्न तत्व इस दुनिया में हमारे लिये हो ही नहीं सकते। यदि अपनी महिमा, महत्ता और क्षमता को समझ लिया जाय और उसका बुद्धिमत्ता एवं व्यवस्था के साथ उपयोग किया जाय तो उसका परिणाम इतना बड़ा हो सकता है कि संसार के साथ ही वह स्वयं उसे देखकर दंग रह जायँ मनुष्य देखने में जितना तुच्छ और हेय लगता है वस्तुतः वैसा है नहीं। उसकी सम्भावनाएं अनन्त हैं। गड़बड़ इतनी भर पड़ जाती है कि वह अपने स्वरूप को समझ नहीं पाता और जितना कुछ समझा है उसका सदुपयोग करने के लिये जो प्रचलित ढर्रा बदलना चाहिए उसके लिये मनोबल और भावनात्मक साहस एकत्रित नहीं कर पाता। यदि इस छोटी सी त्रुटि को सँभाल सुधार लिया जाय तो उसके अद्भुत विकास की सारी सम्भावनायें खुल जाती हैं। जिस भी दिशा में उसे बढ़ना हो-उस पथ के समस्त अवरोध हट जाते हैं।

देवताओं की चर्चा कही सुनी बहुत जाती है पर किसी ने उन्हें देखा नहीं हैं। यदि देव दर्शन करने हों तो अपने परिष्कृत स्वरूप में अपने आप का दर्शन करना चाहिये। इस छोटे से कलेवर में समस्त देव शक्तियाँ एक ही स्थान पर केन्द्रीभूत मिल सकती हैं। स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीरों में भूः भुवः स्वः, पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग तीनों लोक सन्निहित हैं। ब्रह्म, विष्णु, रुद्र की तीनों शक्तियाँ इसी में भरी पड़ी हैं। दसों इन्द्रियों में दस दिग्पाल बसते हैं। मनुष्य जीवन एक समुद्र है जिसके आस-पास शेष सर्प, सुमेरु पर्वत, देव, असुर और कच्छा भगवान चिरकाल से विराजमान हैं और यह प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कोई आत्मबल का धनी उनका सदुपयोग करे और इस समुद्र में से रत्न निकाले। समुद्र मंथन की पौराणिक कथा पुरानी हो गई। इस कथन की पुनरावृत्ति हममें से कोई भी कर सकता है यदि जीवन संघर्ष और जीवन के सदुपयोग की विधि व्यवस्था और पद्धति समझ में आ जाय। समुद्र मंथन से 14 रत्न निकले थे हमारे लिये सिद्धियाँ और विभूतियाँ 1400 उपहार लेकर सामने प्रस्तुत हो सकती हैं। सचमुच हम स्वयं एक आश्चर्य हैं काश, हमने अपने को समझ पाया होता और उसका श्रेष्ठतम उपयोग क्या हो सकता है इसका विनियोग समझ पाया होता तो इन परिस्थितियों में कदापि न पड़े होते जिनमें आज पड़े हुए है।

अपने आपे से भी बड़ा आश्चर्य है अपना भगवान। उसके एक दिन विनोद कल्लोल भर का प्रयोजन पूरा करने के लिये यह इतना बड़ा विश्व बनकर खड़ा हो गया है जिसकी विशालता की कल्पना तक कर सकना कठिन है। वह अकेला था, उसकी इच्छा अपना विस्तार देखने की - अपने आप में मण करने की हुई सो इस इच्छा मात्र ने इतने विशाल विश्व का सृजन खड़ा कर दिया। यह तो उसकी इच्छा का चमत्कार हुआ। उसकी सामर्थ्य और क्रिया का परिचय तो प्राप्त करना अभी शेष ही रह गया। मनुष्य मुद्दतों से प्रकृति के रहस्य जानने और उसकी ईथर, विद्युत, आणविक आदि शक्तियों के उपयोग का मर्म समझने के लिये चिरकाल से प्रयत्न कर रहा है। इस पुरुषार्थ से उसे कुछ मिला भी है। उसका परिणाम इतना भी है कि छोटा बच्चा इस गुब्बारे को पाकर उछल-कूद भी सके। पर प्रकृति के जितने रहस्य अभी जानने को शेष हैं उसकी तुलना में प्राप्त उपलब्धियाँ उतनी ही कम हैं जितनी कि पर्वत की तुलना में धूलि का एक कण। भगवान की अगणित कृतियों से अति तुच्छ इच्छा और कल्पना से असंख्य गुना वैभव उसमें भरा पड़ा है। फिर समस्त ब्रह्मांडों से मिलकर बने हुये इस महान सृजन में भरी विभूतियों की बात सोची ही कैसे जाय ?

इतने विशाल वैभव से भरे हुए विश्व को एक विनोद उल्लास की तरह बनाने और चलाने वाला परमेश्वर यदि समग्र रूप से मनुष्य की कल्पना में आ सका होता तो कितना सुखद होता। पर कहाँ मनुष्य कहाँ उसकी कल्पना इनकी तुच्छता और भगवान की - विशालता की आपस में कोई संगति नहीं बैठती। उसका समग्र स्वरूप तो सत् चित आनन्द से - सत्यं शिवं सुन्दरम् में इतना ओत-प्रोत है कि उसकी एक बूँद पाकर भी मनुष्य कृतकृत्य हो सकता है।

निस्सन्देह हमारा ‘आपा महान है। और निश्चय ही हमारा परमेश्वर अत्यन्त ही महान है। इन दोनों के अतिरिक्त एक तीसरा आश्चर्य और शेष रह जाता है वह है इन दोनों के मिलन से उत्पन्न होने वाली वह धारा जिसमें सन्तोष और शान्ति की- आनन्द और उल्लास की- सुख और साधनों की असीम तरंगें निरन्तर उद्भूत होती रहती है। यों जब भी श्रेष्ठताएं मिलती हैं तब उनके सुखद परिणाम ही होते हैं। ऋण और धन विद्युत धाराएं मिलकर रोमाँचकारी शक्ति प्रवाह में परिणत हो जाती हैं और उनके द्वारा अनोखे काम सम्पन्न होते हैं। स्त्री और पुरुष का मिलन न केवल हृदय की - कली को खिला देता है वरन् एक नये परिवार, नये समाज, का सृजन ही आरंभ कर देता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन कितना सुखद, कितना समक्ष और कितना अद्भुत हो सकता है, इसकी कल्पना भी कर सकना यदि हमारे लिये सम्भव रहा होता तो तृष्णा वासना की जिस फूहड़ परितृप्ति के लिये मृग मरीचिका में भटकते फिर रहे है उसे छोड़कर अपनी गतिविधियाँ इस दिशा में बदलते जिसमें उस परम मिलन से उत्पन्न होने वाली अजस्र शांति की सम्भावना प्रत्यक्ष प्रस्तुत है।

आत्मा और परमात्मा की दो परम सत्ताओं के परस्पर मिलन के प्रयत्न को ही योग कहते हैं। योग शब्द का अर्थ ही जोड़ना या मिलना है। किसका जोड़- किससे जोड़ - इसका एक ही उत्तर है आत्मा से परमात्मा का मिलन। यह प्रक्रिया सम्पन्न की जा सके तो उसके परिणाम और फलितार्थ भी उतने ही अद्भुत हो सकते हैं जितने कि ये दोनों तत्व स्वयं में अद्भुत में अद्भुत है। बूँद समुद्र में चल जाये तो वह खोती कुछ नहीं अपनी व्यापकता बढ़ाकर स्वयं समुद्र बन जाती है। पानी दूध में मिलकर कुछ खोता नहीं, अपना मूल्य ही बढ़ा लेता है। लोहा पारस को छूकर घाटे में थोड़े ही रहता है। यह स्पर्श उसके सम्मान की वृद्धि ही करता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन निस्संदेह आत्मा के लिये बहुत ही श्रेयस्कर है पर इसके योगदान से परमात्मा भी कम प्रसन्न नहीं होता, इस व्यक्त विश्व में उसकी - अव्यक्त सत्ता रहस्यमय ही बनी रहती है, जो हो रहा है वह पर्दे के पीछे अदृश्य ही तो है। उसे मूर्ति मान दृश्य बनाने के लिये ही तो यह विश्व सृजा गया था। जड़ पदार्थों से वह प्रयोजन पूरा कहाँ होता है। चैतन्य जीवधारी के बिना इस धरती का समस्त वैभव सूना अनजाना ही पड़ा रहेगा। पदार्थों का मूल्य तभी है जब उनका उपयोग संभव हो। और उपयोग चेतन आत्मा ही कर सकती है। इस विश्व में चेतन समाया हुआ है उसका प्रतीक प्रतिनिधि मनुष्य है। मनुष्य के सहयोग के बिना परमात्मा का वह प्रयोजन पूरा नहीं होता जिसके निमित्त इस सृष्टि को सृजा गया था, परमेश्वर अकेला था, उसने बहुत होने की इच्छा की। बहुत बने तो जरूर पर यदि उसके अनुरूप, उस जैसे न हुए तो उस सृजन का उद्देश्य कहाँ पूरा हुआ ? आनन्द तो समान स्तर की उपलब्धि में होता है। बन्दर और सुअर का साथ कहाँ जमेगा। आदमी की शादी कुतिया से कैसे होगी। पानी में लोहा कैसे घुलेगा। बच्चों का खेल बच्चों में और विद्वानों की गोष्ठी विद्वानों में जमती है। हलवाई और पहलवान का संग कब चलेगा। कसाई और पंडित की दिशा अलग है। मनुष्यों में ऐसे भी कम नहीं है जो परमेश्वर की इच्छा और दिशा से बिलकुल विमुख होकर चलते हैं। असुरता को पसन्द और वरण करने वाले लोगों की कमी कहाँ है ? सच पूछा जाय तो माया ने सभी की बुद्धि को तमसाच्छन्न बनाकर अज्ञानान्धकार में भटका दिया है और वे सुख की तलाश आत्म तत्व में करने की अपेक्षा उन जड़ पदार्थों में करते हैं जहाँ उनके मिलन की कोई सद्भावना नहीं है। मृग तृष्णा में भटकने को दोष बेचारे नासमझ हिरन पर ही लगाया जाता है। वस्तुतः हम सब समझदार कहलाने पर भी नासमझ की भूमिका ही प्रस्तुत कर रहे है और आत्मानुभूतियों का द्वार खोलने की अपेक्षा जड़ पदार्थों में सुख पाने की - बालू में से तेल निकालने जैसी विडंबना में उलझ पड़े है। जिस उपहासास्पद स्थिति में हमारा चेतन उलझ गया है उसमें न उसे सुख मिलता है न शान्ति उलटी शोक-सन्ताप भरी उलझनें ही सामने आकर खिन्नता उत्पन्न करती है।

इन परिस्थितियों में उलझे हुए ईश्वर की अभीप्सित दिशा में चलने और उसके विनोद में सहचर बनने वाले व्यक्ति बनते ही कहाँ है ? अन्धी भेड़ों की तरह हम सब तो शैतान के बाड़े में जा धँसे। ईश्वर का विनोद प्रयोजन पूरा कहाँ हुआ ? उसे साथी सहचर कहाँ मिले ? सृष्टि बनी तो सही जड़ चेतन भी उपजे पर भगवान का खेल जिसमें विनोद और उल्लास का निर्झर निरंतर करना चाहिए था अवरुद्ध और शुष्क ही हो गया। शैतान ने भगवान का खेल ही बिगाड़ दिया। यों यह भी एक खेल है पर वैसा नहीं जैसा कि चाहा गया था। इस व्यवधान को हटा सकने में समर्थ जो आत्माएं परमात्मा की विनोद मंडली में सम्मिलित हो जाती है वे उसकी प्रसन्नता का कारण भी बनती है। अपने को जो परमेश्वर के समीप ले पहुँचते हैं इस विश्व को अधिक सुन्दर बनाने के भगवान प्रयोजन में साथी बनते हैं निस्सन्देह वे परमात्मा की प्रसन्नता बढ़ाते हैं और उसके इस संसार की गरिमा को प्रखर बनाते हैं। ऐसी आत्माओं का मिलना परमात्मा को भी प्रिय एवं सन्तोषजनक ही लगता है।

भक्त भगवान को तलाशता है और भगवान भक्त को ढूंढ़ते हैं। कैसी आँख मिचौली है कि कोई किसी को मिल नहीं पाता। तथाकथित भक्तों की कमी नहीं वे तलाशते भी हैं पर मिल नहीं पाते। इसलिये कि उन्हें न तो भगवान का स्वरूप मालूम है न प्रयोजन, न मिलने का मार्ग। खुशामद और रिश्वत का मनुष्यों को आकर्षित करने वाला फूहड़ तरीका ही लोगों के अभ्यास में रहता है सो वे उसे भी भगवान वर भी प्रयुक्त करते हैं। लम्बी-चौड़ी शब्दावली का उच्चारण करके भगवान को इस प्रकार बहकाने का प्रयत्न करते हैं मानो वह उच्चारण को ही यथार्थ समझता हो और मानो अन्तरंग की स्थिति का उसका पता ही नहीं। स्तोत्र, पाठ और कीर्तनों की बवडम्बर हमें सुनाई पड़ता है यदि उसके मूल में मिलन की भावना भी सन्निहित रही होती ता कितना अच्छा होता। पर मिलन का तो अर्थ ही नहीं समझा जा सका। मिलन का अर्थ होता है समर्पण - समर्पण का अर्थ है विलीन होना। बूँद जब समुद्र में मिलती है तो अपना स्वरूप, स्वभाव, स्वभाव सभी खे देती है और समुद्र की तरह ही लहराने लगती है। चूँकि समुद्र खारा है इसलिये बूँद अपने में भी खारापन ही भर लेती है। कोई ऐसा चिन्ह शेष नहीं रहने देती, जिससे उसका अस्तित्व अलग से पहचाना जा सके। ईश्वर से मिलन का अर्थ अपने आप को गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से ईश्वर जैसा बना लेना और अपनी आकाँक्षाओं तथा गतिविधियों को वैसा बना लेना जैसा कि ईश्वर की है अथवा उसे हमसे अभीष्ट हैं। मिलन का इतना दायरा जो समझ सकता है उसी की चेष्टाएं तद्नुरूप हो सकती है। जिसने वस्तु स्थिति को समझा नहीं, वह चापलूसी का खुशामद खोरी का धन्धा अपनाकर वैसे ही ईश्वर को भी अपने वाक् जाल में बाँधना चाहता है जैसे कि अहंकारी और मूर्ख लोगों को चापलूस अपने जाल में फँसा कर अपना उल्लू सीधा करते हैं।

दूसरा तरीका ओछे लोगों का कुछ प्रलोभन या रिश्वत देकर किसी को अपने पक्ष में करने का रहता है। वे इस हथियार से ही लोगों से अपना मतलब निकालते हैं। थोड़ी देकर बड़ा फायदा उठाने की कला उन्हें मालूम रहती हैं। ऐसे ही ईश्वर को भी थोड़ा प्रसाद, वरुत्र, छत्र, मन्दिर आदि के प्रलोभन देकर उससे अपनी भौतिक आकांक्षाएं उनके पुरुषार्थ के अनुरूप हैं या नहीं, उन्हें सँभालने सदुपयोग कर सकते की क्षमता भी है या नहीं, इतना सोचने की किसे फुरसत। ईश्वर हमारी कामनाएं पूरी करे और बदले में थोड़ा सा उपहार रिश्वत के रूप में ले लें। इतनी ही बात बुद्धि इस तथाकथित भक्तों के काम करती है और वे शब्दाडम्बर तथा उपहार प्रलोभन के तुच्छ आधारों से ऊँची बात सोच ही नहीं पाते। फलस्वरूप उन्हें खाली हाथ ही रखना पड़ता है। इन तथाकथित भक्तों में से किसी को भी भगवान नहीं मिलता और उनके सारे क्रिया कृत्य निष्फल चले जाते हैं।

भगवान को भी भक्त नहीं मिलते और उसे भी इस उपलब्धि के आनन्द से वंचित रहना पड़ता है। माता बच्चे को गोद में तब उठाती है जब उसकी टट्टी से सनी हुई देह की सफाई हो जाती है। बच्चा भले ही रोता रहे पर जब तक वह गन्दगी से सना है गोदी में नहीं ही उठाया जायगा। उसे माता की निष्ठुरता कहा जाय- कहते रहें पर बात तो उसी तरह बनेगी जो उचित हैं। सफाई आवश्यक हैं। उसके बिना गाड़ी आगे नहीं बढ़ेगी। मनुष्य को अपने काषाय कल्मषों की मलीनता धोनी ही पड़ेगी। अंतःकरण को निर्मल और निश्चल बनाना ही पड़ेगा इसके बिना उसकी गणना उन भक्तों में न हो सकेगी जो प्रभु से मिलन का लाभ उठा सकने के अधिकारी होते हैं।

दूसरा कदम है ईश्वर की इच्छानुरूप अपने को ढाल लेने का साहस। पतिव्रता स्त्री अपने स्वभाव आचरण एवं क्रिया-कलाप को पति की इच्छानुरूप ढाल लेती हैं। इसके बिना दाम्पत्य जीवन कैसा ? मिलन का आनन्द कहाँ ? समर्पण के आधार पर ही द्वैत को अद्वैत के रूप में परिणत किया जाता है। ईश्वर की इच्छा को अपनी इच्छा बनाकर-उसके संकेत और निर्देशों को ही अपनी आकांक्षा और क्रिया में जोड़ देना, इसी का नाम समर्पण है, मिलन की साधना इसी से पूरी होती है। अपनी इच्छाओं को पूरी करने के लिए ईश्वर के आगे गिड़गिड़ाना और नाक रगड़ना, भला यह भी कोई भक्ति हैं। लोभ और मोह की पूर्ति के लिए दाँत निपोरना भला यह भी कोई प्रार्थना हैं ? इस प्रकार की भक्ति को वेश्यावृत्ति ही कहा जा सकता है। भौतिक स्वार्थ के लिये किए गए क्रिया-कलापों को ईश्वर के दरबार में भक्ति संज्ञा में नहीं गिना जा सकता। वहाँ तो भक्त की कसौटी यह है कि किसने अपनी कामनाओं और वासनाओं को तिलाँजलि देकर ईश्वर की इच्छा को अपनी इच्छा बनाया और उसकी मर्जी के अनुरूप चलने के लिए कठपुतली की तरह कौन तैयार हो गया ? जो इस कसौटी पर खरा उतरता है- वही भक्त हैं। भक्त भगवान को अपनी मर्जी पर चलाने के लिए विवश नहीं करता वरन् उसकी इच्छा से अपनी इच्छा मिलाकर अपनी विचार प्रणाली एवं कार्य पद्धति का पुनर्निर्माण करता है। तब उसके सामने इस विश्व को अधिक सुन्दर, अधिक समुन्नत और अधिक श्रेष्ठ बनाने की ही एकमात्र इच्छा शेष रह जाती है। अपने आपको काया के तथा परिवार की तुच्छता में आबद्ध नहीं करता वरन् सबसे अपनी आत्मा को अपनी आत्मा में सबको समाया हुआ समझ कर लोक-मंडल के लिए जीता है और वसुधैव कुटुम्बकम् के अनुरूप अपनेपन की परिधि अति व्यापक बना लेता है। तब उसे अपनी काया ईश्वर के देव मन्दिर जैसी दीखता है और अपनी सम्पदा ईश्वर की पवित्र अमानत जैसी। जिसका उपयोग ईश्वरीय प्रयोजन के लिए ही किया जाना है।

इन मान्यताओं को अन्तःकरण में गहन श्रद्धा की तरह प्रतिष्ठापित कर लेने वाला व्यक्ति भक्त है। उसे ईश्वर दर्शन के रूप में किसी अवतार या देवता की काल्पनिक छवि की आँख से दीख पड़ने की बाल बुद्धि उठती ही नहीं। वह इसे दिवास्वप्न मात्र मानता और निरर्थक समझता है। उसका ईश्वर दर्शन अधिक वास्तविक और बुद्धि संगत होता है। जो अपनी विचारणा और प्रक्रिया में ईश्वर की प्रेरणा को चरितार्थ होते देखता है जिसकी आत्मा ईश्वर की सत्पथ पर चलने की पुकार सुनाई पड़ती है समझना चाहिए उसमें ईश्वर बोलता है-बात करता है- साथ रहता है और अपनी गोदी में उठाने का उपक्रम करता है। भक्ति की सार्थकता इसी स्थिति में है।

हमारा आपा महान है। निस्सन्देह परमेश्वर भी महान है। पर इन दोनों सत्ताओं का मिलन और भी महान है। यदि यह सम्भव हो सके तो उसे व्यक्ति का महान सौभाग्य और ईश्वर का महान सन्तोष ही कहा जायगा। इस मिलन के कितने महान परिणाम होते हैं उसकी झाँकी इस प्रयोजन को पूरा कर सकने वाला अपने निजी जीवन में अनुभव करते हैं और समीपवर्ती संसार में भी।


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