विन्घ्य प्रदेश को जीतकर हैहृय वंशी सम्राट कीर्तवीर्य अर्जुन वापस लौट रहे थे। विजय का अहंकार उनके अंग प्रत्यंग से फूट रहा था। आज उन्हें अपने सम्मुख प्रत्येक व्यक्ति तुच्छ और नगण्य लग रहा था - अहंकार जो सवार था उनके सिर पर।
विजय-वाहिनी नर्मदा तट पर रुकी। उल्लास पूर्वक सभी ने स्नान किया। नव-वस्त्र धारण कर सभी ने भोजन ग्रहण किया। इस बीच परिचारकों ने आम्र कुंज से घिरा हुआ पास ही एक आश्रम देखा। आश्रम महर्षि जमदग्ति का था। बहुत ही सुन्दर शुद्ध और संस्कार पूत स्थान पाकर महाराज ने वहीं मध्याह्न विश्राम का निश्चय किया।
कीर्तवीर्य अर्जुन ने जैसे ही आश्रम में प्रवेश किया महर्षि जमदग्नि ने उनका सादर स्वागत किया। स्वागत ग्रहण करते हुए भी कार्तवीर्य की वाणी और व्यवहार से उसका अहंकार स्पष्ट झलकता था। महर्षि को यह बात बुरी लगी। उसके मस्तिष्क में यह भाव भी आया कि देश, शासक और प्रजा के मार्गदर्शन का उत्तरदायित्व ब्राह्मण पर होता है। पुरोहित होने के नाते यह मेरा कर्तव्य है कि अहंकार के गर्त में डूबते हुए सम्राट को बचाया और उन्हें कल्याण का सुपथ दिखाया जाय।
कार्तवीर्य के विश्राम की सारी व्यवस्था उनके निजी परिचारकों ने ही जुटाई थी। मध्याह्न वेला सानन्द बिताई उन्होंने। अपराह्न वे राजधानी प्रस्थान की तैयारी कर रहे थे, तभी महर्षि आकर बोले - राजन् ! आज आप यहीं रह कर हमारा आतिथ्य ग्रहण करें तो यह हमारे और समस्त आश्रम के लिए बड़ी प्रसन्नता की बात होगी ?
कार्तवीर्य ऋद्धि सिद्धि की बातें तो बहुत सुना करते थे किन्तु उन पर उनका कोई विश्वास नहीं था। अहंकार पहले से ही था, महर्षि की बात कुछ उपहासास्पद सी लगी। कार्तवीर्य ने उत्तर दिया - आर्य श्रेष्ठ ! आप जानते हैं मेरे साथ मेरे मित्र अन्य देशों के शासनाध्यक्ष भी है सभासद और विशाल वाहिनी भी। आप ठहरे तपस्वी रूखे सूखे आहार पर जीवनयापन करने वाले। मेरी केवल अपनी बात होती तो आपका आतिथ्य ग्रहण कर कृतार्थ होता पर इतनी विशाल सेना और इन मित्रों को देखते हुए असमंजस होता है अतएव अभी तो आप क्षमा करें फिर कभी आयेंगे।
महर्षि कार्तवीर्य का अहंकार ताड़ गये। क्षात्र-शक्ति की ब्रह्म तेज से स्पष्ट प्रतिद्वंद्विता थी यह और उसमें ब्रह्म वर्चस्व को पराजित नहीं देख सकते थे महर्षि। कहीं ऐसा न हो कि क्षात्र-बल ब्राह्मी शक्ति से ऊपर उठ जाये अतएव उन्होंने अपनी सिद्धियों को भी प्रयोग में लाने का निश्चय कर लिया। और तभी जिस उदासीनता से महाराज ने निमन्त्रण ठुकराया था उससे अधिक आत्म-विश्वास के साथ उन्होंने कहा- राजन् ! आप इसकी चिन्ता न करें। हम आपके साथ समस्त सेना, सभासद और मित्रों का भी स्वागत करेंगे आप आज की रात्रि यहीं विश्राम करें।
कार्तवीर्य ठहर गये। दृश्य बदला। दूसरे ही क्षण आश्रम ने अपना रूप बदला। मंदार, करवीर, यूथिका, लौध्र, कुन्द, चंपक आदि नाना प्रकार के फूलों से सुसज्जित हो गया आश्रम। भोज्य, भक्ष्य, पेय, लेह्म तथा चोष्य सभी प्रकार के सुस्वाद युक्त व्यंजन, हर अतिथि के लिए राज महलों को भी कान्तिहत करने वाले सुन्दर भवन और राजसी वेष धारण किये परिचारक। यह सब देखकर कार्तवीर्य स्तब्ध रह गये। उन्हें सहसा विश्वास नहीं हुआ कि यह सब कोई सम्मोहन है अथवा स्वप्न या सचमुच ही महर्षि की योग सिद्धि।
विशाल चमू आतिथ्य पाकर कृतकृत्य हुई। कल तक कार्तवीर्य की प्रशंसा के स्वर गूँज रहे थे पर आज हर व्यक्ति के मुख में गुणानुवाद था, महर्षि की ब्राह्मी शक्ति का। स्वयं महाराज कह रहे थे - भगवान् आज क्षात्र - बल ब्रह्म-बल के सम्मुख हार मानता है और श्रद्धा विनत शीश झुकाता है।