बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला

December 1971

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बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला से उनकी माँ पूछ रही थी- ‘बेटा ! यदि तुम्हारा कोई शत्रु तलवार लेकर मेरी ही गरदन काटने आ जाये तो तुम क्या करोगे ?’

‘माँ आज ऐसी अनहोनी बात क्यों पूछ रही हो। भले ही मेरा अंग्रेजों से युद्ध चल रहा हो। पर आपने तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा है। आप पर हाथ उठाने का यदि किसी ने भी प्रयास किया तो उसका हाथ कलाई से तोड़ दिया जायेगा और मौत के घाट उतारा जायेगा।’ सिराज ने जोश में भरकर उत्तर दिया।

‘पर यह भी तो सम्भव है कि वह संख्या और शक्ति में तुम से अधिक हों, तब तो मेरा जीना हराम कर देंगे वह।’

‘नहीं माँ ! ऐसी बात नहीं। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आज आपको मेरी शक्ति पर अविश्वास क्यों हो रहा है। मुझे आपत्ति ग्रस्त देखकर मीर जाफर ने अवश्य मेरे विरुद्ध षडयन्त्र कर दिया है। और मुझे परास्त करना चाहता है पर मैं पारिवारिक जीवन के कर्त्तव्यों से उदासीन नहीं हूँ। विश्वास रखो माँ ! मुझसे कितना ही शक्तिशाली शत्रु क्यों न हो। पर मैं अन्तिम समय तक मौत के घाट उतारने में लगा रहूँगा। यह मेरा दृढ़ संकल्प है।’

सिराज की बात सुनकर माँ को सन्तोष हुआ। उसे अपना काम बनता दिखाई दिया। उसने कहा-’बेटा सिराज ! मैं तुमसे कई दिन से निराशा की भावना देखती आ रही हूँ। मीर जाफर के षडयन्त्र से तुम्हारे हौसले पस्त हो गये हैं और आत्म-समर्पण की बात सोच बैठे हो। तुम्हारी मातृभूमि पर शत्रु हथियार उठाये खड़ा है। वह मातृभूमि अकेले तुम्हारी ही नहीं मुझ जैसी सैंकड़ों माताओं की भी है।’ माँ की बात बेटे को चुभ गई। वह माँ का आशय समझ चुका था। शत्रुओं को पछाड़ने के लिए वह आतुर हो उठा।

अब एक क्षण की भी वह देर न करना चाहता था। वह उठा और तुरन्त बाहर चला गया। एक दिन उसका कवच ही उसके शव का आवरण बना।


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