मत गीत रचो दरबारों के (Kavita)

December 1971

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>


   ओ गीतों के सौदागर साहित्य विधाता, युगु पथ निर्माताओं, विश्व जगाने वालों।

   अलख जगाने के बदले शृंगार सजाकर, खुद तो नहीं मगर पीढ़ी को लजा रहे हो॥

माना तुमने प्यार किया है, ठीक किया है, वह पानी ही क्या है जिसमें लहर नआये।

लेकिन इसका अर्थ नहीं उन हीर कणों को, यूँ चौराहे पर लाकर बिखराया जाये।

    प्यार बहुत पावन है, शबनम है, चंदन है, सिर्फ हृदय का नहीं, आत्मा का बंधन है।

    उस निर्गुण को सगुण बनाकर यूँ महफिल में, गाना,गाना नहीं बेसुरा सा कन्दन है॥

हमने भी अवने जीवन में प्यार किया है, केवल तट ही नहीं लहर को पार किया है।

इसीलिए मँझधारों की बल्कल के ऊपर, कूलों की रेशम चूनर को वार दिया है॥

    हमने भी चाँदनी रात का नशा पिया है, ऊषा की किरणों से हम भी गरमायें हैं।

    लेकिन वह अनुभूति हमें इतनी प्यारी है,, कभी हृदय में नहीं जुवाँ पर भी लाये हैं।

और एक तुम हो कि उसी को लक्ष्य बनाकर,अपनी बहादुरी की डंका पीट रहें हों॥

हमको तो लगता है जैसे लाश प्यार की, गीतों की रस्सी में बाँध घसीट रहें हो।

    इन जलती सांसों को शबनम नहीं चाहिये, इनका लक्ष्य भस्म करदे वह फूँक चाहिये।

    स्वाभिमान की आग जलादे जो रग-रग में, इन्हें बाँसुरी नहीं हृदय की हूक चाहिए॥

गलबहियों की बाते इन पीड़ित कंठों को, लगती होंगी जैसे कि लगादी-हो फाँसी।

सुनकर पायल की खनक याद आती होगी, टूटी खटिया पर लेटी बिटिया की खाँसी॥

    जब तिरछी चितवन घायल करती है तुमको, मेंहदी रचवाती शरमीली नवल अलबेली।

    तब गरीब कोई कराहता होगा बैठा, करके याद बहिन की क्वारी युवा हथेली॥

बहिन कि जिसका कल सुहाग ही रूठ गया है, उसे सुनाते हो तुम बात प्रिया अनबन की।

उस ठिठुरे आँचल वाली ममता के सन्मुख, शरमाई तस्वीर खींचते रे यौवन की॥

    धिक्कार तुम्हें सो बार, कलम घिसने वालो, तुम कलम छोड़कर हार बनाओ कलियों के।

     फिर उन्हें सजाने को प्रेयसि के जूड़े में, तुम जाकर चक्कर काटो उसकी गलियों के॥

यह कवि होने का बहुरुपियापन बन्द करो, साहित्य साधना का यह धंधा छोड़ो तुम ।

किस तरह मिले सपनों की रानी के दर्शन, नरगिसी कुञ्ज में बैठ कुलाबे जोड़ो तुम ॥

    साहित्य सरोवर नहीं, असीम समुन्दर है, इसमें मोती तो है पर जल भी खारी हैं।

    कवि होना बात गर्व की नहीं, मुसीबत है, लिखना न शौक है जीवन की लाचारी हैं॥

पोथी की पोथी हैं बेकार जिन्हें पढ़कर केवल जुबान से कोरी ‘वाह’ निकल जाये।

वह एक शब्द भी महाकाव्य से बढ़कर हैं, जिसको सुनकर भीतर से आह निकल जाये॥

    इसलिये अगर कवि होने का दावा है तो, ये किस्से छोड़ो इकरारों-मनुहारों के।

    युग-दर्पण रचने वालो कुछ तो शर्म करो, मत प्रजातन्त्र में गीत रचो दरबारों के॥

कलमों की नोकें पंख नहीं, सकींन करो, स्याही पानी में नहीं, पसीने में घोलो।

कल्पना फूल पर नहीं, धूल पर भी टाँको, आंखें सपनों में नहीं हकीकत में खोलो॥

    तब जो साहित्य रचोगे तुम, शाश्वत होगा, जो भी स्वर निकलेगा वह होगी युगवाणी।

    कविता न मंच की केवल कठपुतली होगी, साधना स्वयं हो जायगी भु-कल्याणी॥

-शशिनाथ मिश्रा 'शशि'


*समाप्त*




<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles