जलवायु के आधार पर भी जीवित रहा जा सकता है।

December 1971

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जापान के मूर्धन्य दैनिक पत्र “जापान टाइम्स” के 20 अप्रैल अंक में एक समाचार प्रकाशित हुआ कि भारतवर्ष में पटना शहर के समीप एक ऐसे सज्जन निवास करते हैं जो पिछले दो वर्ष से सर्वथा निराहार रहते हैं। उनका जीवन निर्वाह जल और वायु पर ही हो जाता है।

समाचार अद्भुत और आश्चर्यजनक ही नहीं अविश्वसनीय भी था। क्योंकि इन दिनों जबकि आहार को ही जीवन का आधार माना जा रहा है और स्वास्थ्य के लिये विभिन्न प्रकार के खनिज, लवण, प्रोटीन, चिकनाई, कार्बन आदि की तालिकाएं प्रकाशित करके आहार को ही सब कुछ बताया जा रहा है, तब यह कैसे सम्भव है कि कोई व्यक्ति बिना आहार के जीवित रह सके और दो वर्ष जैसी लम्बी अवधि तक जीवित भी रहे तो स्वस्थ भी बना रहे ? आहार के बिना अनशन करने वाले कई व्यक्ति मृत्यु के मुख में जा चुके हैं फिर बिना भोजन किये कोई व्यक्ति इतने समय तक जी ले, जीवित ही नहीं स्वस्थ भी बना रहे और स्वस्थ ही नहीं, इसी बिना आहार वाली पद्धति को अपना कर भविष्य में लम्बा जीवन जी सकने की घोषणा करे तो यह बात साधारणतया न तो समझ में आती है और न उस पर भरोसा करने को जी करता है।

इस समाचार ने अनेकों को आश्चर्यचकित किया। उन्हीं दिनों कनाडा के एक पाल स्टट वैक नाम सज्जन विश्व भ्रमण के लिए निकले हुए थे। वे जिन दिनों यह समाचार छपा तब तक अमेरिका, मैक्सिको, हनोई, जापान, कोरिया, ताइवान, बेंकोक आदि की यात्रा कर चुके थे। उन्होंने अपना कार्यक्रम रद्द करके इन निराहार जीवनयापन करने वाले सज्जन से भेंट करने और तथ्यों का पता लगाने का निश्चय किया और वे भारतवर्ष आकर सीधे पटना जा पहुँचे स्थान का पता लगाया और उन सज्जन के समीप जा पहुँचे जिनके बारे में समाचार छपा था।

पाया गया कि पटना जंक्शन से कुछ आगे चिड़िया रोड़ पर ओवर ब्रज के दक्षिण में कंकड़ बाग की तरफ जाने वाले रास्ते पर एक प्राकृतिक चिकित्सालय बना हुआ है वहाँ श्री भगवान आर्य नामक एक सज्जन निवास करते हैं, वे प्राकृतिक चिकित्सा प्रेमी है। केवल वे स्वयं ही प्राकृतिक जीवन पर विश्वास नहीं करते वरन् अपने परिवार को भी वैसी ही जीवन पद्धति अपनाने पर सहमत किये हुए है। वे रोगियों की प्राकृतिक विधि से चिकित्सा भी करते हैं और स्वस्थ रहने के लिए किस प्रकार का जीवनयापन करना चाहिए यह भी समझाते हैं।

कनाडा के विश्व यात्री श्री स्टट वैक को तब और भी आश्चर्य हुआ जब उन्हें पता लगा कि न केवल उपरोक्त सज्जन दो वर्ष से स्वयं ही निराहार रहते हैं वरन् उनके परिवार के सभी लोग-जिसमें उनकी पत्नी, दो लड़कियाँ और एक लड़का है। यह सब भी करीब एक वर्ष से इसी प्रकार बिना आहार का जीवनयापन कर रहे हैं और सभी सकुशल है।

इस संदर्भ में दिल्ली के साप्ताहिक हिन्दुस्तान के 25 जुलाई 71 के अंक में श्री कृष्ण नन्दन ठाकुर की उपरोक्त सज्जन से एक भेंट वार्ता छपी है जिसमें प्रश्नों के उत्तर देते हुए डॉ. भगवान आर्य ने बताया कि-

“हर मनुष्य चाहे वह कुर्सी पर बैठकर काम करने वाला हो, चाहे कृषक हो, चाहे पहलवान हो, सभी को पूरा पूरा पोषण मिलता है-हवा और पानी से न कि अन्य खाद्य पदार्थों से। हवा पानी के अलावा सभी खाद्य पदार्थ ताकत पैदा करने में रुकावट डालते हैं। रोग पैदा करते हैं। बुढ़ापा लाते हैं, स्वास्थ्य खराब करते हैं। मन को विकारमय बनाते हैं।”

“निराहार जीवन पर्यन्त रहा जा सकता है। इससे मनुष्य कभी बुढ़ापा महसूस भी नहीं करेगा। जितनी लम्बी अवधि तक मनुष्य हवा पानी पर रहेगा उसके शरीर में सभी तरह की ताकत और अच्छाइयाँ आने लगेंगी। बुढ़ापा ऐसे व्यक्ति के दरवाजे पर आवेगा ही नहीं। मानव प्राणी को प्रथम श्रेणी का इंजन मिला है। जिसमें खाने की कोई आवश्यकता नहीं पशु-पक्षियों को द्वितीय श्रेणी की मशीन मिली है इसलिये उन्हें खाने की आवश्यकता पड़ती है।”

श्री भगवान जी का प्रयोग अधिक गहराई तक समझा जाने योग्य है। इस संदर्भ में अधिक खोज होने चाहिए। यह कोई सिद्धि चमत्कार जैसी बात नहीं वरन् मनुष्य शरीर का निर्वाह किन मूल भूत आधारों पर अवलम्बित है उसकी जड़ तक पहुँचने वाली बात है। यदि आहार को गौण और जलवायु को जीवन निर्वाह का प्रधान आधार सिद्ध किया जा सके तो इस प्रतिपादन के दूरगामी परिणाम होंगे। फिर आहार से स्वास्थ्य संरक्षण के नाम पर इन दिनों जो भक्ष्य अभक्ष्य, ईंट पत्थर, आग अंगार सब कुछ खाया जा रहा है। और खाद्य उत्पादन के लिए इतना कुहराम मच रहा है उस संदर्भ में नई दिशा मिलती है। यह पूर्ण निराहार सर्व साधारण के लिए सम्भव न हो तो भी यदि स्वल्पाहार से काम चल सकता हो और उसके लिए शाकाहार जैसी सरल सात्विक वस्तुओं को पर्याप्त माना जा सकता हो तो उस प्रतिपादन का मानव जीवन की एक मुख्य समस्या ‘आहार’ का आशाजनक समाधान निकल सकता है। विशेषतया प्रोटीन के नाम पर जिन करोड़ों निरीह पशु पक्षियों के माँस के नाम पर वध किया जाता है उनकी निरर्थकता समझने में सुविधा मिल सकती है।

स्वामी विवेकानन्द ने “पौहारी बाबा” नामक ऐ योगी का ऐसा ही वर्णन किया था कि वे बिना आहार रहते थे। वह विवरण उनकी एक “पौहरी बाब” नामक पुस्तक में भी है पर तब उसका कारण योगाभ्यास बताया गया था। तब लोगों को उस कठिन कार्य का अनुकरण करने का साहस नहीं हुआ। पर श्री भगवान जी का प्रयोग तो प्राकृतिक विज्ञान के अनुरूप होने से सभी के लिए सरल एवं उपयोगी हो सकता है। आवश्यकता इस संदर्भ में अधिक गहरे अन्वेषण और विस्तृत प्रयोग किये जाने की है। ताकि सर्व साधारण के लिए किन्हीं सर्व मान्य निष्कर्षों पर पहुंचा जा सके।

योग विद्या के अंतर्गत ऐसे विधान है जिनमें अन्न की आवश्यकता प्राण वायु से पूरी हो सकती है। जल पर भी निर्वाह हो सकता है। तपस्वियों की कितनी ही तपश्चर्या इस आधार पर संपन्न हुई है। पार्वती जी की शिव विवाह के लिये की गई तपश्चर्या की बात तो देवताओं के वर्ग में चली जाती है। ऋषियों की बातें भी पुरानी हो गई पर अभी भी ऐसे उदाहरण विद्यमान है जो प्राण तत्व के माध्यम से इस निखिल जगत में संव्याप्त शक्ति को खींचने और उससे शारीरिक, मानसिक स्तर की व्यक्तिगत सशक्तता उत्पन्न करने से लेकर-दूसरों की सहायताएं करने तथा लोक मंगल के अगणित प्रयोजन पूरे करने की व्यवस्था है। वह मार्ग कठिन है और सबके लिए सम्भव नहीं। पर उपरोक्त प्रयोग तो सर्व साधारण के लिए एक नई दिशा प्रस्तुत करता है इसलिए उसका महत्व विशेष है।


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