अंतः का शृंगार है मौन

January 2002

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मौन अन्तर का शृंगार है। यह आन्तरिक शक्तियों की अभिवृद्धि एवं अभिव्यक्ति का श्रेष्ठ साधन है। इसमें असीम एवं प्रबल सामर्थ्य है क्योंकि यह आन्तरिक ऊर्जा के क्षरण को रोकता है। अतः प्रत्येक श्रेष्ठ एवं महान् कार्य की सफलता में गहन, गम्भीर मौन सहायक रहा है। यही मानव चेतना का गूढ़ रहस्य है।

सामान्यतः वाणी को विराम देना मौन कहलाता है। परन्तु सार्थक मौन उसे कहते हैं, जब मन में सद्चिन्तन होता रहे। यूँ ही जिह्वा को बन्द रखकर मन में ईर्ष्या-द्वेष का बीज बोते रहने को मौन नहीं कहा जाता। यह तो और भी खतरनाक एवं हानिकारक सिद्ध हो सकता है। मौन के साथ श्रेष्ठ चिन्तन, ईश्वर स्मरण आवश्यक है तभी मौन की सार्थकता है। इस संदर्भ में श्री अरविन्द आश्रम की श्री माँ कहती हैं कि सात दिन के गम्भीर मौन के बाद ही एक घण्टा सार्थक बोला जा सकता है। और एक वर्ष का मौन एक दिन बोलने की अनुमति प्रदान करता है। इससे मौन की महत्ता प्रतिपादित होती है।

मौन की महिमा एवं गरिमा अतुलनीय है। भले ही यह गम्भीर मौन सबसे न सधे पर अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस व्रत का पालन अवश्य ही करना चाहिए। मौन से जिह्वा पर नियंत्रण रहता है और अनर्गल प्रलाप से बचा जा सकता है। अन्यथा वाणी के दुरुपयोग से भला कौन अपरिचित है। महाभारत का भीषण युद्ध इसी बेलगाम वाणी का ही तो परिणाम है। अधिक बोलने वाले को वाचाल कहा जाता है। और ऐसे व्यक्ति की बातों पर विश्वास उठ जाता है। सारे अनर्थ का जड़ इसी में निहित है। सच्चा और सार्थक बोलने के लिए मौन रहना अनिवार्य है। इसी कारण कभी-कभी तो ऐसी वाणी को मौन की संज्ञा तक दे दी जाती है।

प्रकृति का हर घटक, इसका प्रत्येक जीव मौन रहकर अपने कर्त्तव्य कर्म में संलग्न है। न कहीं कोई व्यतिक्रम है और न ही अव्यवस्था। सभी मौन होकर अपने-अपने नियत कर्म में जुए हुए हैं। परन्तु सृष्टि का सबसे बुद्धिमान एवं श्रेष्ठ कहा जाने वाले मानव के हाल बड़े ही बेहाल है। वाणी का सर्वाधिक दुरुपयोग यही करता है। यह विडम्बना ही है पर जितना जल्दी हो सके इसे सुधार लेना चाहिए। क्योंकि मौन में वाणी से भी अधिक सामर्थ्य होती है।

मौन हमें अन्तर्मुखी बनाता है। हम अन्तर की आवाज को इसी अवस्था में सुन एवं समझ सकते हैं। तभी हमें प्रकृति की दिव्य वाणी सुनाई दे सकेगी और उसका आनन्द उठाया जा सकता है। सूरज ढलते ही संध्या का स्वर, रात में अपूर्व शृंगार से टिमटिमाते तारों की थिरकन एवं चन्द्रमा के शीतल प्रकाश को मौन रहकर ही अनुभव किया जा सकता है। प्रकृति का दिव्य स्वरूप मौन में ही निहित है। स्वयं मौन होकर ही इसकी झलक-झाँकी प्राप्त की जा सकती है। इसी मौन में ही कवि का सुकोमल भाव फूट पड़ता है। और काव्य धारा के रूप में निःसृत होता है।

जब धरती प्यास की अकुलाहट से तड़प उठती है तो ऊपर से उमड़ते-घुमड़ते बादल आते हैं और वर्षा कर इसकी प्यास को बुझा जाते हैं। हवा निरन्तर बहती रहती है और प्राणवायु बनकर अपने कर्त्तव्य धर्म पालन करती है। सूर्य देव जगत् के सभी जीवों में प्राण का संचार करते रहते हैं। ये सभी दैव शक्तियाँ सदा मौन रहते हुए अपने कार्य को संचालित करती हैं। कभी किसी ने दंभपूर्ण वाणी का प्रयोग नहीं किया।

अटल अविचल हिमालय अनन्तकाल से मौन खड़ा है। न जाने कितने योगी, यति, तपस्वियों की यह पावन आश्रयस्थली बना हुआ। यह मौन होकर अपने बर्फानी शरीर को गलाकर गंगा जैसी पुण्यतोया नदी को जन्म देता है। और यह पावन एवं पुण्य सलिला न जाने कितने संतप्तजनों को शीतलता का, पवित्रता का वरदान देती चली आ रही है। न इसमें इसका कर्त्तापन का अहंकार है और न कर्म के प्रति आसक्ति। ये तो सदा मौन व्रत धारण किये प्रकृतिगत कर्म बनकर औरों के लिए न्यौछावर होते रहे हैं।

मौन की भाषा अव्यक्त होकर भी अभिव्यक्त हो जाती है। यह अनकही होती है फिर कह देती है। यही इसकी विशेषता है। पुष्प को अपने बारे में बखान नहीं करना पड़ता। यह जब खिलता है तो वातावरण स्वतः ही सुगन्धमय हो उठता है। और उसके पास से हर गुजरने वाले किसी भी व्यक्ति को इसके अनुभव से वंचित होना नहीं पड़ता। डाली से कटकर मुस्कराते रहने की इसकी प्रेरणा भी मौन ही होती है, जिसे हृदयंगम कर हर परिस्थितियों में प्रसन्न रहा जा सकता है। दीपक भी मौन होकर निष्कम्प जलता रहता है। यह तमस की छाती को चीरकर आलोक का पथ गढ़ता है और हरेक को अपने निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए सहायता प्रदान करता है। दीपक का मौन क्या किसी प्रभावपूर्ण उपदेश या आख्यान से कम है। इसी मौन में भक्त भगवान का कृपापात्र बनता है। गहन मौन में लीन दार्शनिक का चिन्तन नवीन दर्शन को जन्म देता है, एवं वैज्ञानिक अपने शोध-अन्वेषण से एक नया आविष्कार करता है। ऐसा मौन ही सार्थक है।

अरुणाचलम् के महर्षि रमण सदैव मौन रहते थे। परन्तु उनका मौन उपदेश आत्मा की गहराई में उतर जाता था। बिना बोले वह हरेक की जिज्ञासा को शान्त करते और हर कोई उनसे अपनी गम्भीर समस्या का समाधान अनायास पा जाता था। उनके मौन आशीर्वाद से ही मनोकामना पूरी हो जाती थी। महायोगी श्री अरविन्द ने मौन में ही अतिमानस योग को सिद्ध किया। इस दौरान सन् 1926 से 1950 के अपने महानिर्वाण तिथि तक वह एक कोठरी में कैद हो गये थे। उन दिनों वे प्रायः मौन रहा करते थे। और उनकी इस मौन योग साधना ने मानव जाति को एक नूतन उपलब्धि दी।

मौन एक व्रत है। इस व्रत के व्रती आचार्य विष्णु गुप्त के अन्दर एक जीवट एवं महापराक्रमी चाणक्य ने जन्म लिया, जिसने अखण्ड भारत के भविष्य के उज्ज्वल स्वरूप को मूर्त रूप प्रदान किया। और इनके इस मौन का ही परिणाम था कि अब तक के इतिहास के सबसे बृहत्तर भारत का उदय हो सका। सबके दिलों में धड़कने वाले गाँधी जी के मौन का प्रभाव कितना विलक्षण एवं अद्भुत था इससे भला कौन परिचित नहीं है, जिसने अपने देश की सदियों पुरानी गुलामी रूपी लौह बेड़ी को तोड़कर एक अकल्पनीय स्वतंत्रता प्रदान की। क्या यह अटूट एवं प्रबल मौन से उपजी उनकी आत्मशक्ति नहीं थी, जिसने कभी न अस्त होने वाले साम्राज्य को पराजय एवं पराभव का कड़वा घूँट पिला ही दिया।

अंग्रेजी साहित्य के महान् कवि वर्ड्सवर्थ प्रकृति के उपासक थे। वह प्राकृतिक सौंदर्य को एकान्त में मौन होकर घण्टों निहारा करते थे। वह कहते हैं कि मैंने वर्षों पूर्व अपने पसंदीदा फूल डेफोडिल्स को देखा था। मैं प्रायः मौन एवं शान्त होकर उसे अपनी अन्दर की आँखों में देखता था। और उस क्षण मेरा हृदय आनन्दातिरेक से लिप्त होकर उसके साथ भाव-विभोर से उठता है। वह अपने काव्य को मौन एवं नीरवता का वरदान कहा करते थे।

विख्यात एवं महान् दार्शनिक बट्रेंड रसेल ने भी मौन की महत्ता-विशेषता को स्वीकारा है। उन्होंने इस संदर्भ में एक घटना का उल्लेख किया है। वह जिस नगर में निवास करते थे वहाँ पर एक विराट् ग्रंथालय था। जिस समय रसेल अध्ययन हेतु वहाँ जाते थे। उसी समय एक अन्य पाठक भी वहीं नित्य आता था। दोनों आते पढ़ते और मौन होकर वापस चले जाते और यह क्रम अनवरत चालीस वर्ष तक चलता रहा। यह अखण्ड मौन तब टूटा जब एक दिन रसेल ने सुना कि उस पाठक की मृत्यु हो गई और वे सहसा कह उठे- मैंने अपना एक अत्यन्त प्रिय मित्र को खो दिया।

अतः जीवन में श्रेष्ठ एवं सार्थक कार्य के लिए मौन को एक व्रत मानकर अपनाना चाहिए। प्रतिदिन न बन पड़े तो सप्ताह में एक निश्चित दिन के कुछ घण्टों से प्रारम्भ करके क्रमशः इसे बढ़ाते रहना चाहिए। क्योंकि जब व्यक्ति बोलता है तो जिह्वा हावी रहती है और मौन की अवस्था में अन्तर बोलता है। हमें अपने अन्तर को बोलने का अवसर प्रदान करना चाहिए। क्योंकि इसी में जीवन का सारा मर्म छिपा है। और इस दिव्य अवसर से हमें अवश्य ही लाभान्वित होना चाहिए। तभी इस सुरदुर्लभ जीवन की सार्थकता सम्भव हो सकती है।


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