क्रोध से तो परहेज ही रखें

January 2002

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लाल-लाल आँखें, काँपते होंठ, तमतमाता चेहरा भीषण क्रोधोन्माद का परिचायक है। अज्ञान के कुण्ड में धधकती क्रोधाग्नि सर्वप्रथम विवेक को जला डालती है। और फिर शुरू होती है जीवन के सर्वनाश की यात्रा। जिसका कहीं कोई अंत नहीं है। यह अपने शरीर एवं मन को जलाकर ही शान्त होता है। क्रोध का आवेश अपने आसपास के समूचे वातावरण को विषाक्त कर देता है। इस प्रकार यह शान्त-सरल जीवन में अमंगल का अभिशाप बनकर आता है।

क्रोध मूलतः मनोकायिक रोग है। इसे मस्तिष्कीय ज्वर भी कहा जा सकता है। यह निरन्तर सुलगने वाली आग है। जिसमें व्यक्ति गीली लकड़ी की तरह भीतर ही भीतर सुलगता रहता है। यह उत्तेजना का ताप है। प्राचीन जैन वांग्मय में क्रोध के कई रूपों का उल्लेख मिलता है- कोप, रोष, द्वेष, बैर, विरोध, कलह आदि। ये उत्तरोत्तर आवेश की एवं उग्र परिणामों के परिचायक हैं।

जो व्यक्ति को अपने सहज स्वभाव से विचलित कर दे वह कोप है। इससे व्यक्ति का सहज स्वभाव बदल जाता है। वह स्वभावतः जैसा होता है, वैसा रह नहीं जाता। कुपित व्यक्ति की सज्जनता, संवेदनशीलता, शालीनता, विनम्रता, उदारता आदि कुपित क्षण में परिवर्तित हो जाते हैं। उसके अन्दर की स्निग्धता रुक्षता में, गम्भीरता छिछलेपन में और सहृदयता क्रूरता में बदल जाती है। जब क्रोध स्थायी बन जाता है तो रोष बनकर प्रकट होता है। यही ‘रूठना’ कहलाता है। क्रोध से ही वैमनस्य भाव जागता है। यही वृत्ति आपसी विवादों एवं विग्रहों को जन्म देती है।

क्रोध एक मनोवृत्ति है। यह एक ऐसी भाव दशा है जो अतिशीघ्र प्रकट होती है। यह हमारी चित्त चेतना में सबसे ऊपरी तल पर स्थित रहता है। कुछ वृत्तियाँ जैसे कुटिलता, प्रवंचना आदि गूढ़ होती है और ये मन की गहराई में छिपी रहती हैं। परन्तु क्रोध मन के ऊपरी क्षेत्र में अवस्थित होने के कारण तत्क्षण प्रकट हो जाता है। इसे दबाया तो जा सकता है, लेकिन इसके प्रभावों को छिपाना सम्भव नहीं है। क्रोध मानवी व्यवहार के किसी न किसी पक्ष से उजागर हो ही जाता है।

मनोवैज्ञानिकों ने क्रोध को साइलेंट एवं वायलैट के रूप में वर्गीकृत किया है। साइलेण्ट क्रोध अन्तर्मुखी होता है। इससे व्यक्ति में हताशा, निराशा, उदासी छायी रहती है। वह स्वयं में हैरान और परेशान रहता है। अपनी मन की बात किसी से न कह पाने के कारण वह अन्दर ही अन्दर घुटता रहता है। क्रोध के उबाल को दबा देने के कारण उसकी आन्तरिक स्थिति और भी अस्थिर एवं अशान्त हो उठती है। एक प्रकार से यह भी एक भयावह स्थिति है। वायलेण्ट क्रोध बहिर्मुखी होता है। यह क्रोध अपने उफान को बाहर प्रकट करता है, इसके परिणाम स्वरूप कलह, लड़ाई-झगड़ा से लेकर दंगा-फसाद तक होते देखे जा सकते हैं। यह भी दो प्रकार का होता है- साधारण और असाधारण।

साधारण क्रोध अल्पकालिक एवं क्षणिक होता है। यह दूध के समान तुरन्त उफन पड़ता है। इसकी प्रतिक्रिया क्षीण ही सही परन्तु बड़ी तीव्र होती है। जैसे ही यह क्रोध शान्त होता है अपने किये कर्म पर बड़ा पश्चाताप होता है। परन्तु परिस्थिति आते ही यह फिर से अपना स्वरूप दिखाने लग जाता है। हालाँकि इसका प्रभाव लम्बे समय तक नहीं है लेकिन यह बड़ा घातक होता है।

असाधारण क्रोध तीव्र होने के साथ-साथ स्थायी होता है। इसका विषाक्त आवेश दीर्घकाल तक बना रहता है। यह आवेश मदिरा के समान होता है। इसके नशे में व्यक्ति लम्बे समय तक आत्मविस्मृत होकर बेसुध पड़ा रहता है। ऐसे व्यक्ति को कोई भी उपदेश एवं मार्गदर्शन देना सम्भव नहीं है क्योंकि वह अपने ही बुने ताने-बाने में जलता-पिटता रहता है। धीरे-धीरे वह उन्माद के बाहुपाश में जकड़ता चला जाता है। और उन्मादी वृत्ति उसके जीवन का अंग बन जाती है। उसके जीवन की समस्त गतिविधियाँ उल्टी दिशा में चलने लगती हैं। और अन्त में उसे विनाश के सिवाय कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। ऐसे क्रोध एवं उन्मादग्रस्त व्यक्ति से सभी अपना सम्बन्ध काट लेते हैं। वह अपने ही परिवार एवं समाज के बीच निर्वासन की जिन्दगी जीने को मजबूर हो जाता है।

क्रोध मुख्यतः परिस्थितिजन्य कारणों से ही उत्पन्न होता है। मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन-अन्वेषण से पता चलता है कि कुछ और भी कारण हैं जिससे यह उत्पन्न होता है। ये हैं- काम में व्यवधान आना, कटाक्ष एवं व्यंग्योक्ति, तनाव, भूख, थकान एवं कमजोरी, असफलता, असन्तोष आदि। वृद्धावस्था में व्यक्ति को अपने को अकेला, असहाय एवं बेसहारा महसूस करने के कारण भी उसे क्रोध जल्दी आने लगता है। उपरोक्त कारणों के अलावा कुछ मानसिक बीमारियों जैसे- डिप्रेशन, सिजोफ्रेनिया, मैनिया, चिन्ता आदि की वजह से भी व्यक्ति में क्रोध की प्रवृत्ति देखी जा सकती है।

किसी भी कारण से क्रोध जन्म ले सकता है। परन्तु जैसे ही मन में इसकी छोटी सी तरंग उत्पन्न होती है। वैसे ही यह संवेदना का योग पाकर मन की गहराई में उतरती चली जाती है। और यह शरीर के रोम-रोम में रम जाती है। तत्पश्चात् क्रोधाविष्ट व्यक्ति अपने उस अभिमत या व्यवहार का मौखिक समर्थन करता है, जिस कारण उसे क्रोध हुआ था। विभिन्न तर्कों एवं उपायों से वह उस कारण का औचित्य सिद्ध करता है। वह हर तरह से अपने पक्ष को यथार्थ एवं औचित्य पूर्ण ठहराता है। अपनी समस्त मानसिक कल्पनाओं का जाल इसी ओर बुनता रहता है। अपने आप ही वह उसका स्पष्टीकरण कर देता है और तर्क संगत शब्दाँकनों द्वारा उसे चिरपोषित करता है। वह अपने क्रोध को जायज एवं उचित मानता है।

क्रोधावेश की प्रक्रिया का सिलसिला अन्तहीन होता है। एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी, चौथी एवं अनगिनत कड़ियाँ जुड़ती चली जाती हैं और इस प्रकार भावावेश की लम्बी शृंखला बन जाती है। क्रोध का यह आवेश उत्तरोत्तर शक्तिशाली और लम्बा व गहरा होता चला जाता है। इस प्रकार क्रोध का कहीं कोई अन्त नजर नहीं आता। अन्ततोगत्वा यह व्यक्ति को खण्डित एवं विभाजित करके ही दम लेता है। इसका परिणाम बड़ा ही घातक एवं विनाशक होता है।

मनोवैज्ञानिकों ने क्रोधाविष्ट व्यक्तियों का मस्तिष्कीय एवं हार्मोन सम्बन्धी परीक्षण किया है। हालाँकि इनके प्रायोगिक निष्कर्षों में पूर्णता नहीं है। केप्लान एवं सैडोक ने अपनी कम्प्रीहेन्सीव टेक्टबुक ऑफ साइकियाट्री में उल्लेख किया है कि क्रोधित व्यक्ति अक्सर उत्तेजित हो जाते हैं। ऐसी दशा में उनमें CSF-5 HIAA (Cerebrospinal fluid, 5- Hydroxy indoleacetic acid) की मात्रा घट जाती है। इस एसिड की मात्रा अन्य सामान्य व्यक्तियों की तुलना में अति न्यून होती है। संभव है इसकी कमी से व्यक्ति अपना नियंत्रण खो बैठता है और क्रोध से उत्तेजित हो जाता है।

वैज्ञानिकों ने क्रोध से उत्पन्न हिंसा का भी परीक्षण किया है। इनके अनुसार मस्तिष्क के दोनों एमीगडल, अन्य टेम्पोरल लोव और लिम्बिक सिस्टम के द्वारा क्रोध एवं हिंसा का सम्बन्ध होता है। अत्यधिक क्रोध के कारण पतली रक्त वाहिनी के फट जाने का भी भय बना रहता है। ऐसे तो क्रोध से हार्मोन का सम्बन्ध स्पष्ट नहीं हो पाया है, परन्तु मिड्रोक्सी-प्रोजेस्ट्रान से इसका तारतम्य जुड़ने का आभास मिलता है। जो भी हो क्रोध एक अत्यन्त घातक मनोकायिक रोग है जो शरीर एवं मन दोनों को जलाता है। इसी कारण तत्त्वचिन्तकों, अध्यात्म के आचार्यों, वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों सभी ने एक स्वर से इससे परहेज का सुझाव दिया है।

क्रोध प्रायः परिस्थितिवश पैदा होता है। आवश्यकता है उन परिस्थितियों का शान्त मन से सूक्ष्म विश्लेषण किया जाए एवं उसकी गहराई में जाकर वास्तविक तथ्य का पता लगाया जाय। ऐसा किया जाय तो कोई कारण नहीं कि उसे नियंत्रित नहीं किया जा सके। आत्म समीक्षा एवं ईश्वर चिन्तन द्वारा इस असाध्य मनोरोग से मुक्ति सम्भव है।


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