युगगीता-29 - हर श्वास में संपादित दिव्य कर्म ही हैं यज्ञ

January 2002

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(गीता के चतुर्थ अध्याय की युगानुकूल व्याख्या-ग्यारहवीं कड़ी)

विगत अंक में दिव्यकर्मा साधकों की चर्चा को विशेष रूप से इसी अध्याय के चौबीसवें श्लोक की विस्तृत व्याख्या के साथ प्रस्तुत किया गया था। कर्मों को यज्ञमय कैसे बनाया जाए, इसकी व्याख्या, इस श्लोक में लो श्रीमद्भगवद्गीता का एक सुप्रसिद्ध श्लोक है तथा प्रत्येक भारतीय घर में प्रतिदिन भोजन के पूर्व प्रभुस्मरणा के रूप में उच्चारित किया जाता है, ब्रह्मकर्म के माध्यम से की गई है। फिर से उसी श्लोक को उद्धृत कर पाठकों को याद दिला देते हैं-

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गंतव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥

“ब्रह्मरूपी अग्नि में ब्रह्मरूपी कर्म द्वारा आहुति देने वाली क्रिया भी ब्रह्म ही है, क्योंकि उसमें अर्पण अर्थात् खुवा आदि भी ब्रह्म हैं और हवन किए जाने वाले द्रव्य भी ब्रह्म ही हैं । इस तरह कर्म में ब्रह्मदर्शन करने से ब्रह्म की ही प्राप्ति होती है।”

मूल बात है कर्म में ब्रह्म का दर्शन करने से ब्रह्म की ही प्राप्ति। कर्मयोग की सिद्धि ‘द्वैत’ का भाव मिटाने पर ही हो पाती है। तत्त्वदृष्टि ऐसी विकसित की जानी चाहिए कि सब कुछ ब्रह्मकर्म ही है। रामकृष्ण लीला प्रसंग के माध्यम से स्वामी शारदानंद जी के, विज्ञानानंद जी के प्रसंग भी इसी संदर्भ में उद्धत किए गए थे। तीन प्रकार की समाधियों के साथ ब्रह्मकर्म समाधि की भी चर्चा विस्तार से की गई थी। हर क्षण जो हमारे कर्म का हो भक्तिमय हो, परमात्मामय हो, यज्ञीय भाव से हो। वस्तुतः उिच्ष्कमर्र कसे बंधनमुक्ति ब्रह्म से युक्त होकर ही मिल सकती है। परमपूज्य गुरुदेव की ‘अखण्ड ज्योति’ के दो संदर्भों के माध्यम से इसी भाव की पुष्टि की गई थी । अब आगे की चर्चा इस अंक में।

यज्ञाग्नि ब्रह्माग्नि

भगवान् श्रीकृष्ण यज्ञ की अग्नि को भौतिक अग्नि नहीं मानते, अपितु यह ब्रह्माग्नि है, ब्रह्म की ओर जाने वाली ऊर्जा है। यज्ञ पुरोहित के रूप में अंतः में विराजमान वह दिव्यशक्ति है, जिसमें आहुति दी जाती है। जिस प्रकार वेदों की भाषा रूपकों की भाषा भी उसी तरह की है। भगवान् के शब्दों में अग्नि आत्मसंयम रूप भी हो सकती है अथवा आत्मार्पणरूपी यज्ञ की अग्निशिखा भी । यज्ञ का यह विस्तृत विवरण ही यज्ञ की एक ऐसी विशाल और व्यापक व्याख्या तक हमें ले जाता है, जिसमें स्पष्ट रूप से यह घोषणा की गई है कि यज्ञ की क्रिया, यज्ञ का भोक्ता, यज्ञ का ध्येय, यज्ञ का उद्देश्य सब कुछ वह ब्रह्म ही है। (चौबीसवें श्लोक का भावार्थ)। इस श्लोक के माध्यम से हमें जो ज्ञान मिलता है उसी से युक्त होने पर मुक्त पुरुष यज्ञ कर्म कर पाता है। सोऽहं, सर्व खल्विदं ब्रह्म, सच्चिदानंदोऽहम्, ब्रह्म एवं पुरुषः जैसे वेदाँत के महावाक्यों द्वारा इसी ज्ञान की घोषणा ऋषिगण करते रहे हैं। यह ज्ञान समग्र एकत्व का ज्ञान है। जिस विश्वशक्ति में निज के कर्म की आहुति दी जाती है, वह स्वयं भगवान् हैं, आहुति की उत्सर्ग की हुई शक्ति भी भगवान् का ही कोई रूप है, होता भी वास्तव में मनुष्य के अंदर के स्वयं भगवान् ही हैं। क्रिया, कर्म, यज्ञ सभी गतिशील भगवत् का ही कोई रूप है, होता भी वास्तव में मनुष्य के अंदर के स्वयं भगवान् सत्ता ही हैं। जिस साधक को, लोकसेवी को यह ज्ञान होता है उसके लिए कर्म कभी बंधन का कारण नहीं बन सकते। उसका कोई भी कर्म अपना व्यक्तिगत अहं युक्त नहीं हुआ करता।

परमसत्ता से संचालित इस जगत् में कर्म करने का लक्ष्य जीव का यही होना चाहिए, भगवान् के साथ एक होकर, भगवान् की स्थिति और चेतना के ज्ञान को प्राप्त करना, अपना उन पर अधिकार स्थापित करना। जो इस तत्त्वज्ञान को जान लेता है, इसी चैतन्य भाव में सदैव विराजमान होता है, वह मुक्त हो जाता है, पर भगवान् कहते हैं कि संभव है कि सभी योगी इस ज्ञान तक नहीं पहुँच पाएँ। इसीलिए वे अगले (25वें) श्लोक में कहते हैं,

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते। ब्रह्याग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्नति॥

“अन्य योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और दूसरे अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूपी अग्नि में अभेद दर्शन रूप यज्ञ के द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं।”

बारह भिन्न प्रकार के यज्ञ

यहाँ जो आत्मरूप यज्ञ की बात कही गई है, उससे गीताकार का आशय है- “परमात्मा में ज्ञान द्वारा एकीभाव से स्थित होकर ब्रह्मरूप अग्नि में यजन करना।” इस श्लोक में भगवान् यह कह रहे हैं कि इंद्रादि देवताओं को उद्देश्य विशेष के साथ अनुष्ठित होकर दैवयज्ञ किए जाते हैं। ब्रह्माग्नि में जीवात्मा की आहुति देने को ज्ञानयज्ञ करते हैं। ब्रह्मरूपी अग्नि में जीवात्मा की आहुति देकर जीवात्मा और परमात्मा की एकत्व भावना से होम संपादित करना श्रेष्ठतम यजन प्रक्रिया है। यज्ञ शब्द को गीताकार ने परंपरागत रूढ़िवादी अर्थों से मुक्ति करके विस्तृत-विराट् अर्थों में प्रयुक्त किया है। इसी तथ्य को हम छब्बीसवें से इकतीसवें श्लोक तक देखते हैं। भगवान् यहाँ बारह विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन करते हैं व उनका मर्म समझते हैं।

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुहृति। शब्दादीनीन्वषयानन्य इन्द्रिग्निषु जुह्यति॥

अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इंद्रियों को संयमरूपी अग्नि में हवन किया करते और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इंद्रियरूपी अग्नि में हवन करते हैं।

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे। आत्मसयंमयोगाग्नौ जुह्यति ज्ञानदीपिते॥

“अन्य योगीजन इंद्रियों की संपूर्ण क्रियाओं और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म-संयम रूप अग्नि में हवन किया करते हैं। अर्थात् सच्चिदाँनदघन परमात्मा के सिवाय अन्य किसी का भी चिंतन न करना ही सब क्रियाओं का हवन करना है।”

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥

“कई पुरुष द्रव्य संबंधी यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही तपस्या रूप यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही अहिंसा आदि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त स्वाध्यायरूपी ज्ञान यज्ञ करने वाले हैं।”

आपने जुह्यति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणयामपरायणः॥

अपरे नियताहाराः प्राणन्प्राणेयषु जुह्यति। सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥

दूसरे कितने ही योगीजन अपान वायु में प्राण वायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायामपरायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों का मर्म समझने वाले हैं।

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। नायं लोकोऽस्त्यज्ञस्य कुतोऽयः कुरुसत्तम॥

“हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिए तो यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है ?”

अब तनिक उपर्युक्त छह श्लोक पर दृष्टि डालें। इनमें 26वें से 30वें श्लोक तक यज्ञ के बारह स्वरूपों का वर्णन है, तो गीताकार ने अंतिम 31वें श्लोक में यज्ञ का माहात्म्य बता दिया है। इसके बाद भी वह माहात्म्य की चर्चा करते हुए ज्ञानमय की महिमा एवं ज्ञान को क्यों व किस प्रकार एक दिव्यकर्मी के रूप में धारण किया जाए, इसको इस अध्याय के अंत तक समझाते हुए अंततः अर्जुन की काफी कुछ भ्राँतियाँ निर्मूल करने में समर्थ हो जाते हैं।

साधक अपने जीवन को यज्ञमय बना लें, इसके लिए श्रीकृष्ण बारह विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन करते हैं। इन सभी का संबंध व्यक्ति के आँतरिक क्रियाओं तथा बहिरंग संबंधों से है। इससे मनुष्य मात्र का सार जीवन यज्ञमय बन जाता है। योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा बताए गए बारह प्रकार के यज्ञ इस प्रकार है। एक सूची से हमें सब समझ में आ जाएगा।

(1) देवताओं का पूजन-यज्ञानुष्ठान-देवयज्ञ (2) ब्रह्म रूपी अग्नि में जीवात्मा की आहुति देकर एकत्व भावना से होम (3) इंद्रियों का संयमाग्नि में हवन (4) इंद्रियाग्नि में विषयों का हवन (5) समस्त इंद्रियकर्मों-प्राणकर्मों का ज्ञानदीप्त आत्मसंयमयोगरूपी अग्नि में हवन (6) द्रव्य यज्ञ (7) तपोयज्ञ (8) योगयज्ञ (9) स्वाध्याय यज्ञ (10) अपान में प्राणवायु का यजन (11) प्राण का अपान वायु में यजन (12) प्राणों का प्राणों में यजन।

उद्देश्य : अनंत से तादात्म्य

उपर्युक्त सभी का उद्देश्य एक ही है-साधक की शुद्धि। परमलक्ष्य की प्राप्ति हेतु तैयारी । इन यज्ञों का स्वरूप सामान्य पाठकों को समझने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है पर थोड़ा सरलीकरण करें, तो यज्ञों का गूढ़ अर्थ भलीभाँति समझ में आ जाएगा। भगवान् यहाँ यज्ञों का मर्म बताते हुए कहते हैं कि इनके प्रकार कुछ भी हों, हमें तीन लक्ष्य मानते हुए यज्ञ करना चाहिए। पहला ऊर्ध्वगामिता-हमारे विचार ईश्वरोन्मुख हों, दूसरे कषाय-कल्मषों का परिशोधन, अशुद्धियों का निवारण एवं तीसरा अनंत के प्रति तादात्म्य भाव का विकास। हमारे विचार-चिंतन सदैव विधेयात्मक, उत्कृष्टतावादी होने चाहिए। लोकहितार्थाय जीवन जीने के लिए जो महत्वपूर्ण आवश्यकता है, अंतः की पवित्रता, उसे अर्जित करना एवं अनंत के प्रति इतना नजदीकपन विकसित कर लेना कि दोनों में कोई अंतर न रहे। एक पाश्चात्य लेखक ने ‘इनट्यूनिंग विथ इन्फीनीरी’ पुस्तक में लिखा है कि अनंत के साथ एकाकार होने का हिंदुओं का जो श्रेष्ठतम तरीका है यज्ञ, उसके समकक्ष किसी भी धर्म-संप्रदाय में कोई भी विधि-विधान देखने में नहीं आता। विद्वान् लेखक जो स्वयं क्रिश्चियन धर्म को जीवन में उतारता था, नित्य यज्ञ करता था एवं सभी को इनका महत्त्व समझाता था। यज्ञ जब "इदं न मम्" भाव से किए जाते हैं। तो हमारे कर्म हमारे न होकर अनंत के, प्रभु के हो जाते हैं एवं अकर्म बन जाते हैं। यज्ञ का अर्थ मात्र ज्योति प्रज्वलित कर द्रव्यों आदि का हवन नहीं है, अपितु यज्ञ एक विराट् अर्थ में जीवनयज्ञ है। जो भी मेरे कर्म हों, मेरे क्षुद्र अहं के लिए नहीं, अनंत से तादात्म्य स्थापित करने के लिए हों।

भगवान् बारह प्रकार के यज्ञों की चर्चा करके मानव मात्र की विविध प्रकृति के लिए तरह-तरह की लक्ष्य सत्ता तक पहुँचने की विधियाँ भी बता देते हैं। वे कहते हैं कि कुछ योगी देवताओं की प्रीति के लिए यज्ञ करते हैं। देवयज्ञ अर्थात् देवशक्तियों रूपी ट्राँसफार्मर के माध्यम से परमात्मारूपी पावर हाउस तक पहुँचना। देवशक्तियों को तृप्त करके परमात्मचेतना से संबंध स्थापित करना। दैवयज्ञ करने वाले भगवान् की परिकल्पना उनके विविध रूपों और शक्तियों में करते हैं। वे आगे कहते हैं कि कुछ आत्मनियंत्रण और आत्मसंयमरूपी आँतरिक यज्ञ करते हैं, जिससे एकत्वभाव प्राप्त हो, उच्चतर आत्मज्ञान की प्राप्ति हो। (1,2) कुछ योगी इंद्रियों के विषयों को ग्रहण तो करते हैं, पर उसे इंद्रिय व्यापार से मन को क्षुब्ध नहीं होने देते, मन पर उनका कोई असर नहीं पड़ने देते, इंद्रियों को ही विशुद्ध यज्ञाग्नि बना लेते हैं (3,4,5)। यह एक साधना है, जिनमें इंद्रियों को इतना स्तब्ध कर दिया जाता है कि अंतरात्मा अपने विशुद्ध शाँत रूप में मन से बाहर निकलकर स्वतः प्रकट हो जाती है।

सिद्धि का साधक योगी अपनी आहुति द्रव्यमय भी दे सकता है। द्रव्ययज्ञ अर्थात् चेरीटी दान के निमित्त पारमार्थिक भाव से किए गए कार्य। धर्मशाला बना देना, गौशाला खड़ी करना, नेत्रदान यज्ञ, पीड़ा निवारण के सभी कार्य, अविद्या को मिटाने के लिए, पतन को मिटाने के लिए किए गए परमार्थ भाव से संपन्न कार्य द्रव्ययज्ञ में आँत हैं। कोई इस शब्द से भ्रमित न हों कि फलाना द्रव्य डालना, उसी से आहुति करना द्रव्ययज्ञ कहलाता है। (6) यह यज्ञ भगवान् के अनुसार तपोयज्ञ भी हो सकता है अर्थात् आत्मसंयम का वह तप जो किसी महत्तर उद्देश्य के लिए किया जाए। संयम साधकर चेतना को अपने व्यक्तित्व के माध्यम से झरने देना तपोयज्ञ कहलाता है। (7)। इसके अतिरिक्त यह योगयज्ञ भी हो सकता है, योग व तप में अंतर भगवान् ने छठे अध्याय के अंतिम श्लोक में "तपस्विभ्याऽधिको योगी..... नामक श्लोक में सूक्ष्मतम ढंग से समझाया है। इसका अर्थ है- योगाग्नि में कर्म संस्कारी का दहन। श्रेष्ठ योगी साधक न केवल अपने कर्मों को बल्कि स्वयं भी योगाग्नि में भरमकर ब्रह्मलोक की प्राप्ति करते हैं। शबरी ने भगवान् राम से मिलन एवं ज्ञान की प्राप्ति के बाद अपने आपको योगाग्नि से युक्त कर परमचेतना से तादात्म्य कर लिया था। सती का योगाग्नि में भस्म होना तो विख्यात है ही। शरीर से बड़ी बात है जीवित रहते अपनी कर्म-वासनाओं, संस्कारों को योगी बनकर भस्मीभूत कर देना। योग का पहला काम है- व्यक्ति को अंतर्मुखी कर देना। इंद्रियों को मन की ओर मुड़ना। संयम की अग्नि में हवन करना। संयम दमन का नाम नहीं है। संयम का अर्थ है- पूरे होशोहवास में किए गए कर्म। पूरे होश में रहकर मन को चंचलता की ओर से अंदर की ओर मोड़ना। (8) भगवान् आगे स्वाध्याय की-स्व के प्रशिक्षण व अध्ययन की प्रक्रिया को भी यज्ञ बताते हैं (9) तथा अंत में कहते हैं कि यह राजयोगी एवं हठयोगी गणों द्वारा किए गए प्राणायाम जैसे योग भी हो सकते हैं। (10, 11, 12)

समझें यज्ञ का मर्म-परम रहस्य

अब उपर्युक्त यज्ञों के विस्तार को समझकर योगेश्वर की मूल शिक्षा को समझा जाए। भगवान् कहते हैं कि विषयों का हवन इंद्रियों में कीजिए, इंद्रियों का मन में तथा मन का चित्त में। चित्त का हवन अहं में कीजिए तथा अहं का हवन आत्मा में कीजिए। शुद्ध निरंजन, शुद्ध बुद्धि आत्मा में इस प्रकार हवन होते ही अशुद्धियाँ जलने लगती हैं, ऊर्ध्वगमन होने लगता है तथा अनंत से तादात्म्य की परिस्थितियाँ बन जाती हैं। भगवान् कहते हैं (तीसवें श्लोक में) कि इस प्रकार यज्ञ का मर्म समझ लेने वाले सभी साधक यज्ञों द्वारा पाप का नाश कर देने वाले और यज्ञों के मर्म को जानने वाले होते हैं (यज्ञक्षपितकल्मषाः) हम सभी यज्ञ करते तो हैं, पर यज्ञ को मानते नहीं हैं। मानते हैं तो समझते नहीं। बहिरंग की क्रिया को ही सब कुछ मानकर चलते हैं तो हाथ कुछ नहीं लगता। यज्ञ का ज्ञान-विज्ञान समझे बिना, उनके ज्ञानमय वाले मर्म को समझे बिना किया गया यजन तो मात्र अग्निहोत्र है, जबकि यज्ञ हर श्वास में, जीवन की हर क्रिया में, हर विचार में संपादित किया जाने वाला एक दिव्य कर्म है।

भगवान् इसके पूर्व यज्ञ से ही सृष्टि के उत्पन्न होने की बात तीसरे अध्याय में (3/1 तथा 11 से 15 तक) विस्तार से कर चुके हैं। शास्त्र कहता है, "यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म" यज्ञ श्रेष्ठतम किए जाने वाले कार्य ही हैं (शतपथ ब्राह्मण)। परमपूज्य गुरुदेव ने ‘यज्ञ’ की सही अर्थों में पुनर्प्रतिष्ठा की। यज्ञ मात्र कर्मकाँड तक कुछ प्रतिष्ठित समृद्धिसंपन्न व्यक्तियों तक सीमित होकर रह गए थे। उन्होंने जन-जन के लिए प्रत्येक की क्षमता-योग्यतानुसार सुलभ बना दिया। दान, देवपूजन, संगतिकरण की (यज्ञ धातु के तीन अर्थ) उन्होंने युगानुकूल व्याख्या की एवं जन-जन की यज्ञीय वृत्ति को जगा दिया। यज्ञों की परंपरा को पुनर्जीवित किया एवं पूरे युग को यज्ञमय कर सतयुग की वापसी की प्रक्रिया को गति दी। पुरुष सूक्त कहता है कि इस सर्वहुत यज्ञ से ही चारों वेद जन्मे, उन्हीं का विस्तार ज्ञान में, वैदिक संपदा के सब तक पहुँचने के रूप में हुआ। परमपूज्य गुरुदेव का जीवन यज्ञमय रहा। वे इसमें जीवन भर एक समिधा बनकर जले एवं तिल-तिल कर अपने कण-कण की आहुति देकर एक दिव्यकर्मी को कैसा होना चाहिए, उसका शिक्षण दे गए। हम उनके जीवन से यही शिक्षण लेकर स्वयं के जीवन को भी यज्ञमय बना सकें, यही प्रेरणा हमें मिलनी चाहिए। शाँतिकुँज के ‘युगसंगीत प्रकोष्ठ’ द्वारा एक बड़ा सुँदर गीत गाया जाता है- "हे प्रभु! जीवन हमारा यज्ञमय कर दीजिए" यदि इस गीत के मर्म को जीवन में उतारा जा सके तो सभी का जीवन सही अर्थों में दिव्य बन सकता है।

यज्ञीय वृत्ति अर्थात् निम्नगामी प्रकृति की क्रियाओं को अपने अधीन करके उस दिव्य आनंद का रसास्वादन किया जाए, जो यज्ञ से, आत्मबलिदान से, श्रेष्ठ उद्देश्यों पर निछावर होने से प्राप्त होता है। यही भावार्थ यज्ञावशिष्ट के सेवन के माध्यम से प्रभु ने इकतीसवें श्लोक में समझाया है, इसकी व्याख्या अगले अंक में। (क्रमशः)


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