विकृत आहार हमें रोगी बनाता है

January 2002

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तेजी से बदलते इस सामाजिक परिवेश में फास्ट फूड का प्रचलन बढ़ने लगा है। स्वाद एवं समय की बचत के कारण यह भागती-दौड़ती जिन्दगी का एक अनिवार्य अंग बन चुका है। परन्तु इसके तात्कालिक आकर्षण के पीछे कुछ खतरनाक पहलू भी हैं। इसी वजह से फास्ट फूड के आदि होते जा रहे लोगों में कई प्रकार के रोग पनपने लगे हैं।

चाउमीन, मैगी, पिज्जा, बर्गर, पेटीस एवं डिब्बा बन्द भोजन एवं पेय पदार्थ को सामान्यतः फास्ट फूड की संज्ञा दी गयी है। इनके कारण ही चावल, दाल, सब्जी, रोटी जैसी खाने की सादी परम्परा, पुरानी एवं बीते युग की बात हो चुकी है। ग्लोबलाइजेशन एवं उदारीकरण के प्रभाव से प्रभावित भारतीय जनमानस की खान-पान की संस्कृति बदल गई है। अब फास्ट फूड उनका स्टेटस सिम्बल बन चुका है। समाज के तथाकथित उच्च एवं अभिजात्य वर्ग में यह सम्मानपूर्वक प्रतिष्ठित हो गया है। जिसका अन्धानुकरण करने में समाज के अन्य वर्ग भी अपने आप को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। परिणामतः आज हमारे देश के हर बड़े होटलों से लेकर ढाबे एवं छोटे-छोटे स्थानों पर इसका भरपूर प्रचलन चल पड़ा है।

इन दिनों फाइव स्टार होटलों के खाने की नकल प्रतिष्ठ एवं फैशन की बात बन गयी है। इसी वजह से फास्ट फूड हमारी संस्कृति में अनावश्यक रूप से समाहित होता जा रहा है। सम्भव है ये आधुनिक भोजन स्वाद में थोड़े अच्छे ही क्यों न हो, परन्तु इसके लम्बे समय तक सेवन करने से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। साथ ही इनको सुन्दर, स्वादिष्ट एवं आकर्षक बनाने के लिए जिन तरीकों का प्रयोग किया जाता है, वह भी कम घातक नहीं है।

ये फास्ट फूड दो प्रकार के होते हैं- शाकाहारी एवं माँसाहारी। इन दिनों शाकाहारी फास्ट फूड को स्वादिष्ट बनाने के लिए माँसाहार चीजों की पर्याप्त मिलावटें होने लगी हैं। इससे उनका स्वाद बदल जाता है और बिक्री बढ़ जाती है। आजकल मिठाइयों एवं अन्य खाद्य पदार्थों में अण्डे की मिलावट आम बात हो गई है। सैण्डविच, पराँठा, कुलचा, ब्रेड, केक आदि शुद्ध शाकाहारी माने जाने वाले भोज्य पदार्थ इससे अछूते नहीं हैं। यहाँ तक कि चाय जैसे पेय पदार्थ को जायकेदार बनाने के लिए माँस के अर्क मिलाये जाने की खबर भी बीते दिनों काफी प्रचलित रही। ऐसे भोजन शाकाहारी व्यक्ति की प्रकृति के लिए अत्यन्त प्रतिकूल है एवं उनकी नैतिक, धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध है।

फास्ट फूड के क्षेत्र में जैव टेक्नोलॉजी का ‘जेनेटिक फूड्स’ का भी प्रचलन बढ़ने लगा है। इसके अंतर्गत साग, सब्जी, फल, जीव-जन्तु, मनुष्य आदि के जीन को एक-दूसरे में मिलाकर जिन-नियंत्रित खाद्य वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। इसके द्वारा खाद्य पदार्थों को लम्बे समय तक सुरक्षित एवं संरक्षित किया जाता है तथा विश्व के विभिन्न देशों में भेजा जाता है। जेनेटिक फूड्स के रूप में दूध पाउडर, सोया पाउडर, आलू चिप्स, बेबी फूड्स आदि अपने देश के बाजार में भारी मात्रा में मिलने लगे हैं। अमेरिका में उत्पन्न सोयाबीन का पचास प्रतिशत और मक्के का पच्चीस प्रतिशत जेनेटिक संरक्षित होता है।

जेनटिक फूड्स का उत्पादन इन दिनों प्रचुर मात्रा में होता है। परन्तु यह कुछ समय के लिए लाभदायक होने के बावजूद कई प्रकार के रोगों को जन्म देने वाला है। अन्तर्राष्ट्रीय संस्था ग्रीन पीस के अनुसार इस तरह के खाद्य पदार्थ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहे हैं। इसमें जेनेटिक संक्रमण का भय बना रहता है। संभवतः इसी कारण फ्राँस जैसे यूरोपीय देशों ने जेनेटिक फूड्स पर प्रतिबन्ध लगा दिया है।

अपने देश में पेय पदार्थों का भी एक बड़ा उद्योग है। ये पदार्थ अनेकों ट्रेड नामों से बिकते हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार अपने देश में लगभग पाँच से सात हजार प्रकार के बोतल बंद ठण्डे पेय एवं शरबत आदि का प्रयोग होता है। कोल, कोला, पेप्सी, लिम्का, मिरिण्डा, फेण्टा आदि ट्रेड ब्राण्ड के पेय तो प्यास बुझाने के लिए कम स्टेटस सिम्बल के रूप में अधिक बिकते हैं। चिकित्साशास्त्रियों के अनुसार इनके अधिक सेवन से विभिन्न प्रकार के पेट के रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसके अलावा साँस, आचार, मुरब्बे, रबड़ी, कुल्फी, रसगुल्ला आदि खाद्य पदार्थों के रेडीमेड मसाले भी खूब बिक रहे हैं। जिनसे चर्म रोग तथा एलर्जी की शिकायत मिलने लगी है।

विभिन्न प्रकार के इन खाद्य पदार्थों को अधिक समय तक सुरक्षित रखने के लिए ‘फूड कैनिंग‘ याने डिब्बा बन्द प्रक्रिया अपनायी जाती है। इन डिब्बाबन्द खाद्य पदार्थों को उन क्षेत्रों में भेजा जाता है जहाँ पर ऐसे पदार्थों का उत्पादन नहीं होता। इन डिब्बाबंद खाद्य सामग्री में फल, फलों का रस, सब्जियाँ एवं अनेक तरह के फास्ट फूड होते हैं। चटपटे और जायकेदार स्वाद के कारण इन पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। इन्हें प्रिजर्व करने के लिए सिरका, रंग, गंध, लवण और कृत्रिम शर्करा की प्रचुरता होती है। इसके अतिरिक्त इनमें एथिल, सोडियम क्लोराइड, एसिटिक एसिड आदि औषधीय तत्त्व मिलाये जाते हैं। कुछ भोज्य पदार्थों में एण्टीबायोटिक दवाइयों का भी उपयोग होता है। अब तो इसमें नाइट्राइड एवं आर्गेनिक रसायन का भी प्रयोग बढ़ने लगा है। विज्ञान के साधारण जानकार भी जानते हैं कि पदार्थ टाक्सिक होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक हैं।

इण्टरनेशनल फाउण्डेशन ऑफ नेचुरल हैल्थ एवं योग के डॉक्टर एन. एस. अधिकारी ने फास्ट फूड को अप्राकृतिक आहार का दूसरा रूप माना है। उनके अनुसार इनमें आवश्यक पोषक तत्त्वों का अभाव होता है। इसके बावजूद इसके प्रचार-प्रसार को देखकर हर व्यक्ति आज भ्रमित हो रहा है। उसे इस चकाचौंध में यह पता नहीं चल पाता कि स्वाद के नाम पर जिस खाद्यसामग्री को ग्रहण किया जा रहा है, वह कितनी स्वास्थ्यप्रद है। संभवतः इसी मानसिकता का लाभ उठाकर यह उद्योग काफी फल-फूल रहा है। इसलिए ‘फूड प्रोडक्ट्स आर्डर’ नामक एक सरकारी संस्था ने एक विज्ञप्ति जारी कर उल्लेख किया है कि हरेक व्यक्ति को अपने स्वास्थ्य के अनुकूल आहार ग्रहण करना चाहिए, स्वाद के नाम पर नहीं। चटपटे स्वाद के रूप में फास्ट फूड को अल्सर, पेट के ट्यूमर, आदि का विषाक्त दंश झेलना पड़ सकता है।

प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय खाद्य संस्थाओं ने ऐसे अप्राकृतिक भोजन से परहेज रखने के लिए अत्यधिक बल दिया है। इनका कहना है कि फास्ट फूड थोड़े आकर्षक एवं स्वादिष्ट तो होते हैं, परन्तु ताजा न होने के कारण इनमें विटामिन एवं कैलोरी आदि की गुणवत्ता नष्ट हो जाती है। फैट रिच फास्ट फूड्स से मोटापे में काफी वृद्धि देखी गयी है। और इसे हृदय रोग के साथ-साथ कई अन्य रोग को भी जन्म देने वाला माना गया है।

इसलिए अच्छा यही है कि उत्तम शारीरिक स्वास्थ्य के लिए प्राकृतिक एवं संतुलित आहार ग्रहण किया जाय। हरी सब्जियों, दूध, मौसमी फलों आदि में प्रायः सभी पोषक तत्त्व पर्याप्त मात्रा में होते हैं। ये प्राकृतिक आहार सात्विक एवं हल्के भी होते हैं। जिससे स्वास्थ्य भी ठीक बना रहता है। स्वस्थ एवं निरोगी शरीर में ही रोगों से लड़ने की अपार क्षमता होती है। ऐसे में ही स्वस्थ मन का निवास हो सकता है। इसीलिए शास्त्रों में अन्न की महत्ता गायी गयी है। अतः हममें से हर एक को फास्ट फूड रूपी पाश्चात्य शैली की सर्वनाशी अनुकरण पद्धति से बचना चाहिए और प्राकृतिक आहार एवं जीवन शैली को अपनाकर सदा निरोगी एवं स्वस्थ बने रहने चाहिए। यही स्वास्थ्य का मूल मंत्र है।


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