होने जा रहा है विज्ञान का कायाकल्प

January 2002

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आज का युग विशुद्ध रूप से विज्ञान का युग है। यह प्रकृति और पदार्थ के रहस्य को अनावरण करता है। परन्तु यह रहस्य केले की पौधे के समान परत दर परत निकलता चला जा रहा है। स्थिति यह है कि विज्ञान जब तक किसी नियम एवं सिद्धान्त की रचना करता है तब तक एक नयी परिकल्पना उठ खड़ी होती है। और यह प्रक्रिया अन्तहीन सिलसिले के रूप में चलती रहती है। इसलिए परम सत्य की तो दूर की बात है अभी तक प्रकृति के कुछ अंश को भी नहीं जाना जा सका है।

विज्ञान का जन्म दर्शन के गर्भ से हुआ है। अतः शैशव काल के विज्ञान में दार्शनिकों का मत दृष्टिगोचर होता है। चूंकि विज्ञान का क्षेत्र ही पदार्थ जगत् है इसी कारण सर्वप्रथम दार्शनिक हेराक्लिटस ने सर्वप्रथम पदार्थ की ही व्याख्या की। उन्होंने इसे परिवर्तनशील माना। एक अन्य दार्शनिक पारमेनिडीज ने इस तथ्य की पुष्टि की। ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी तक यही मान्यता प्रचलित रही। परन्तु इसके पश्चात् डेमोक्रियस ने पदार्थ पर एक नवीन परिकल्पना की। उसके अनुसार मकान का निर्माण ईंटों से होता है। ईंटों से मिलकर ही भवन बन सकता है। ठीक उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ भी एक छोटे-छोटे कणों से जुड़कर विनिर्मित होता है। चीनी के एक दाने में असंख्य छोटे-छोटे कण होते हैं। अन्त में इन सूक्ष्मतम कणों को ही परमाणु कहा गया है। और यही से विज्ञान की यात्रा प्रारम्भ हुई।

इस प्रकार विश्व में शताब्दियों तक पदार्थवाद का प्रभाव छाया रहा। यहाँ तक कि इसे प्राण एवं चेतना का प्रमुख तत्त्व माना जाने लगा। उन दिनों इसी का बोलबाला रहा। परन्तु 1787 में आइज़ेक न्यूटन की ‘प्रिंसिपिया’ का प्रकाशन हुआ, जिसमें उन्होंने गति के सिद्धान्तों की नवीन व्याख्या की। और सर्वप्रथम इसी ने पदार्थ (matter)को अक्रिय एवं जड़वत् माना। उनके अनुसार वे ठोस, अभेद्य एवं कम गतिशील होते हैं। यही वह बिन्दु है, एक मोड़ है, जहाँ से आधुनिक विज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ।

विज्ञान के क्षेत्र में जड़त्व के सिद्धान्त ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। इसने पाश्चात्य जगत् में एक नई क्रान्ति खड़ी कर दी। यह ऐसी क्रान्ति जो अब तक किसी ने न तो की था और न ही इसकी परिकल्पना तक की थी। और इसी का परिणाम था कि अठारहवीं एवं उन्नीसवीं सदी का यूरोप औद्योगिक क्रान्ति के प्रेरणा के रूप में प्रख्यात हुआ। वहाँ पर समृद्धि एवं सम्पन्नता में बेशुमार वृद्धि हुई। इसी वजह से अनेक आविष्कार हुए। भाप और लोहे के संयोग से विशाल ट्रेन एवं जहाज का निर्माण होने लगा। और इसके लिए उपयोग में आने वाले अनुपयोगी लोहे एवं कोयले की महत्ता एकाएक बढ़ गई। ऐसा लगा कि विज्ञान ने पदार्थ पर विजय प्राप्त कर लिया है तथा प्रकृति की असीमित शक्ति व ऊर्जा को पालतू बना लिया है।

न्यूटन के गति का सिद्धांत से अंधपरम्पराएँ टूटी एवं बिखरीं। उन्होंने स्थिर माने जाने वाली पृथ्वी का उपर्युक्त स्थान स्पष्ट किया। हालाँकि इसके पूर्व कॉपरनिकस, केप्लर एवं गैलीलियो आदि भी ऐसा ही प्रतिपादन कर चुके थे। परन्तु न्यूटन के सिद्धान्त ने ग्रहों की गति एवं उसके कक्ष आदि का निर्धारणा किया। सौर मण्डल में ग्रह आपस में टकराते क्यों नहीं, वे अपनी कक्षा में कैसे घूमते रहते हैं। इसके अलावा उपग्रह एवं धूमकेतु आदि आकाशीय पिण्डों की जानकारी मिली। यही से अन्तरिक्षीय यात्रा की परिकल्पना साकार होने लगी कि अनन्त आकाश में तारों जैसे टिमटिमाते ग्रहों पर भी इन्सान अपने उपग्रह भेज सकता है एवं इसकी सैर कर सकता है। यह न्यूटन की देन थी।

इस अनुसंधान से चमत्कृत एवं हतप्रभ विश्व ने भौतिकवाद को अपना लिया। परिणामतः सभी क्षेत्रों में पदार्थ की इस भौतिक अवस्था का समावेश होने लगा। सभी की दृष्टिकोण एवं सोच इसी के इर्द-गिर्द घूमने लगा। पदार्थ से हटकर कोई परिकल्पना संभव ही नहीं हो सकती। और इस तरह जीवों एवं प्राणियों का अध्ययन-अनुसंधान करने वाला मनुष्य भी इसी के गिरफ्त में आ गया। जीवित प्राणी को स्वचालित यंत्र कहा एवं समझा जाने लगा। इसी वजह से जैव भौतिकवाद के मूर्धन्य वैज्ञानिक रिचर्ड डाकिन्स तक को मनुष्य एवं अन्य प्राणियों को जीव मशीन कहना पड़ा।

मनोविज्ञान भी इस प्रभाव से अनछुआ नहीं रह सका। मस्तिष्क को मन का माध्यम मानने के बजाए इसे मशीन माना गया। जिस प्रकार यंत्र काम करता है ठीक उसी प्रकार से मस्तिष्कीय क्रियाकलाप की व्याख्या की गई। मनुष्य में दया, संवेदना, भावना, करुणा, सेवा, सहयोग जैसे दुर्लभ मानवीय गुणों का कोई स्थान नहीं रहा। बस यंत्रवत वह कार्य कर सकता है। उसके आगे उसका कोई मूल्य नहीं है। इस तरह भौतिकवाद ने मनुष्य की मनुष्यता पर कुठाराघात किया। मनुष्य के मौलिक चिन्तन एवं अनुभव का कोई महत्त्व ही नहीं रहा। भौतिकता के उन्माद ने इंसानियत को निगल जाने का प्रयास किया। संभवतः इससे उपजे आक्रोश ने इस भौतिकवाद को ही नकार दिया। और कहा जाने लगा कि नीत्शे के ईश्वर के समान भौतिकवाद का भी अन्त हो गया।

यह भौतिकवाद मरा तो नहीं परन्तु एक नये रूप में फिर से खड़ा हो गया, जिसे मॉडर्न फिजिक्स कहा जाता है। अलबर्ट आइन्स्टीन का सापेक्षतावाद इसी नई भौतिकी की देन है, जिसने न्यूटन के टाइम-स्पेश को नया आयाम दिया। इसमें एक ओर जहाँ अवस्था के दिक्-काल का निर्धारण किया वहीं दूसरी ओर सामान्य जीवन को प्रभावित किया। किसी व्यक्ति, वस्तु या घटना की जानकारी एक दूसरे से तुलना करके ही जानना सम्भव है। इसी तरह से इसे प्रतिपादित किया गया। इससे पदार्थ के पुराने सिद्धान्त एकदम बदल गए। नये ढंग से परमाणविक परिकल्पना होने लगी। न्यूटन के डिएरमिनीस्टिक मशीन के बदले वेव और पार्टिकल्स (तरंग कण) के नये समीकरण का गठजोड़ होने लगा। इसे क्वाण्टम थ्योरी के रूप में जाना जाता है। इस सिद्धान्त में ठोस पदार्थ का अस्तित्व विलीन हो गया। समस्त भौतिक जगत् को तरंग रूपी ऊर्जा का अनन्त भण्डार माना जाने लगा। इस कारण पूर्व प्रचलित नियम टूटे और इसके स्थान पर संयोग का नया नियम लागू हुआ।

इतनी सुदीर्घ यात्रा के बाद विज्ञान को यह मानना पड़ा कि ठोस रूप में दिखने वाला पदार्थ वस्तुतः कोई पदार्थ नहीं है बल्कि यह विराट् चेतना समुद्र का एक भौतिक रूप है। यही चैतन्य ऊर्जा घनिभूत होकर द्रव्य बनती है। और यह द्रव्य पुनः उसी ऊर्जा में परिवर्तित हो सकते हैं। क्वाण्टम फिजिक्स में इस ऊर्जा को तरंग एवं द्रव्य को कण के रूप में परिकल्पना की जाती है। जब इस द्रव्य को दिक्-काल के साथ जोड़ जाता है यही सुपरस्ट्रिंग थ्योरी कहलाती है। इस थ्योरी के प्रादुर्भाव होने के साथ ही न्यूटन का जड़त्व पिण्ड का सिद्धान्त समाप्त हो गया।

विज्ञान के इस सूक्ष्म विश्लेषण ने अनेकों सिद्धान्तों ने जन्म लिया। पदार्थ अपना स्वरूप कब बदलेगा यह कहा नहीं जा सकता। विज्ञान की अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी भी इसकी भविष्यवाणी कर पाने में असफल है। भले ही वह मौसम कर पूर्वानुमान लगा सकता है। इसे थ्योरी ऑफ केआस कहा जाता है। यह सिद्धान्त केवल इतना स्पष्ट करता है कि कोई भी पदार्थ अपनी प्रकृति के अनुरूप ही परिवर्तित होता है। इस प्रकार इस सिद्धान्त से न्यूटन का ‘क्लाक वर्क यूनीवर्स’ सिद्धान्त भी धराशायी हो गया। और यहीं से द्रव्य के संगठन एवं सूचना का आविर्भाव हुआ, जो वर्तमान के बहुविकसित इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी का मूल आधार है। इसी तरह से इसकी विकास यात्रा क्या होगी? भविष्य में और कितने नये सिद्धान्त बनेंगे तथा पुराने टूटेंगे कहा नहीं जा सकता।

वस्तुतः विज्ञान का उद्देश्य पदार्थ एवं प्रकृति के सत्य को खोजना, समझना एवं प्रयोग में लाना है। चूँकि प्रकृति अनन्त वस्त्रालंकारों से आवृत्त है। विज्ञान उसके एक परिधान को हटाता है तो उसे सब कुछ नया लगता है। प्रकृति का एक रहस्योद्घाटन होते ही पुराने नियम भरभराकर गिर जाते हैं। प्रकृति के इस रहस्य को जानने के लिए वैज्ञानिक मॉडल की परिकल्पना करते हैं।

ब्रह्मांड की उत्पत्ति हेतु ‘बिग बैंग‘ मॉडल खड़ा किया गया। इसी मॉडल के आधार मानकर ही विज्ञान ब्रह्मांडीय उत्पत्ति, विकास आदि की परिकल्पना करता है। आधुनिक आइंस्टीन समझे जाने वाले स्टिफन हाँकिंग का ‘ब्लैक होल’ भी एक परिकल्पना मॉडल है। यह कोई ‘काला गड्ढ’ नहीं है। यह भारी मात्रा में ऊष्मा का विकिरण करता है। ठीक इसी प्रकार क्वाण्टम फिजिक्स के वेव पार्टिकल्स भी अपने सिद्धान्त के सत्यापन के लिए की गई एक परिकल्पना है। विज्ञान की मान्यता है कि प्रोट्रॉन भारी कण है। यह इलेक्ट्रान से 1836 गुना भारी है। हालाँकि ये कण एवं मॉडल कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है। जिसे सामान्यतः देखा और परखा जा सके। फिर भी विज्ञान जगत् में इन परिकल्पनाओं का विशिष्ट मूल्य एवं महत्त्व है। क्योंकि इसी के आधार पर सभी वैज्ञानिक अन्वेषण अनुसंधान प्रतिष्ठित है।

जेम्स क्लर्क मैक्सवेल ने अपने प्रयोग के माध्यम से घोषणा की कि प्रकाश इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंग है। जिस प्रकार हवा में ध्वनि तरंग गतिशील होती है। एवं जल में लहरें ठीक उसी प्रकार प्रकाश की तरंगें ईथर में गति करती हैं। यह ईथर समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त है। परन्तु यह क्या है? इसके उत्तर में इतना ही कहा जा सकता है कि यह वैज्ञानिक परिकल्पित एक द्रव्य है। ठीक इसी प्रकार जीव विज्ञान एवं अन्य अनेक आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में ऐसी ही परिकल्पना से की जाती है। वैज्ञानिक प्रकृति के फेस वैल्यू को आधार मानते हुए ऐसे मॉडल का निर्माण करते हैं। यही उनके प्रयोग-परीक्षण का मुख्य आधार है।

प्रकृति को खोजने की अदम्य लालसा से अभिप्रेरित वैज्ञानिक भी नये-नये प्रयोग करते हैं और जैसे ही इन्हें नयी जानकारी मिलती है तो इसी के अनुरूप नये सिद्धान्त रचे जाते हैं। और यह अन्तहीन क्रम चलता रहता है। हर नये के बाद पुरानी कड़ी टूट जाती है। और यह भी क्यों नहीं। यह सब होना ही तो इस तथ्य का उद्घोष करता है कि छोटा सा परमाणु ही नहीं समूची विशालकाय सृष्टि क्षण भंगुर है। अपनी सुदीर्घ यात्रा के पश्चात् आज विज्ञान के कदम उसी सत्य के द्वार पर दस्तक दे रहे हैं, जिनका अन्वेषण पुरातन महर्षियों ने किया था। आज दुनिया भर के वरिष्ठ वैज्ञानिक भी इस सत्य को स्वीकारने में लगे हैं कि इक्कीसवीं दी में पुराना विज्ञान यदि अपने स्वरूप का कायाकल्प करके वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का स्वरूप धारण करले तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।


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