हे परम ज्वाल, तू मर्त्य को परम अमृतत्त्व में जन्म देता है। जन्माभिलाषी ऋषि के लिए तू दिव्य तथा मानुषिक, दोनों आनन्दों का सर्जन करता है। ऋग्वेद की इस ऋचा में विकास क्रम का लक्ष्य निर्दिष्ट है और जिसके अंत में है आनन्द। भविष्य का देव मानव इसी आनन्द का प्रतीक-प्रतिनिधि है। इसी को श्री अरविन्द ने अतिमानव कहा है। श्री अरविन्द का कथन है कि मानव विकासक्रम की अन्तिम सीमा नहीं, वह एक संक्रमणकालीन जीव है। मानव जीवन की प्रयोगशाला में इसके सचेतन सदुपयोग से प्रकृति उसमें देवता का, अतिमानव का आविर्भाव करना चाहती है।
श्री अरविन्द के अनुसार अतिमानव ही सबसे स्वाभाविक मानव है। अतिमानसिक स्थिति प्राप्त करने पर ही मनुष्य अपने सच्चे स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। ‘द ह्यमन साइकिल’ में वह उल्लेख करते हैं- मनुष्य एक असामान्य जीव है, जिसने अपनी सामान्यावस्था को प्राप्त नहीं किया है। चाहे मनुष्य सही समझता हो कि वह अपनी यथार्थता को प्राप्त कर चुका है, चाहे वह अपने वर्ग में सामान्य मालूम पड़ता हो, परन्तु यह सामान्यावस्था एक तरह की अल्पकालीन व्यवस्था मात्र है। उन्होंने अतिमानव को भविष्य की नई मानव जाति माना है।
श्री अरविन्द ने अपने दार्शनिक ग्रंथों में अतिमानव या सुपरमैन शब्द का प्रयोग बहुत ही कम किया है। इसके स्थान पर उन्होंने अतिमानसिक मानव (सुप्रामेण्टल बींग) या प्रज्ञान पुरुष (नास्टिक बींग) कहना अधिक उपयुक्त समझा। आधुनिक पाश्चात्य दर्शन में विशेषकर फ्रेडरिक नीत्शे के बाद से अतिमानववादी दर्शन का प्रादुर्भाव हुआ। अति मानववादी दार्शनिकों में सर्वप्रथम इन्हीं का नाम आता है। इनके अतिरिक्त एस अलेक्जैण्डर और हेनरी बर्गंसा की गणना भी अतिमानव के दार्शनिक के रूप में होती है। परन्तु अतिमानव शब्द को लोकप्रिय एवं प्रचलित करने का श्रेय नीत्शे को जाता है।
अपने कुछ अत्यन्त जटिल दार्शनिक ग्रंथों में नीत्शे ने अतिमानव का प्रतिपादन किया है। दि गाँस्पेल ऑफ सुपरमैन, दस स्पीक जरथुस्र, विल टु पावर, दि जिनीओलाँजी ऑफ माँरल्स आदि ग्रंथों में उन्होंने अतिमानव का उल्लेख किया है। उनके इन विचारों से एमर्सन, कार्लाइल, किंगडम, क्लिफोर्ड, सैमुअल बटूलर, कार्ल पियनि आदि प्रभावित थे। नीत्शे का विचार था कि मनुष्य जाति का परम लक्ष्य अतिमानव को जन्म देता है। वे कहते हैं- मनुष्य जाति नहीं, अतिमानव ही लक्ष्य है। अर्थात् वर्तमान मनुष्य जाति से ही अतिमानव का आविर्भाव होगा। और इसके जन्म से मनुष्य जाति अपने परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगी।
नीत्शे अतिमानव को ही आदर्श मानव मानते हैं। और इस आदर्श मानव का चरित्र, चिन्तन एवं व्यवहार ही भविष्य के लिए मूल्याँकन का मापदण्ड होगा। वर्तमान में कोई भी नैतिक आदर्श उस शिखर को स्पर्श नहीं कर सकता। वह वर्तमान मनुष्य की पहुँच से परे है। परन्तु जैसे ही इसमें अतिमानव का आविर्भाव होगा वैसे ही जीवन के हर क्षेत्र में आमूल-चूल परिवर्तन हो जाएंगे और प्रचलित परम्परा के मापदण्ड एवं मानदण्ड बदल जायेंगे।
परन्तु खेदजनक दृश्य यह है कि नीत्शे का अतिमानव आसुरी लक्षणोँ से युक्त है। उसमें दया, प्रेम, करुणा, सहानुभूति जैसे कोमल भावनाओं का सर्वथा अभाव है। वह अत्यन्त पाषाणी हृदय, क्रूर निर्दयी तथा प्रचण्ड शक्तिशाली पुरुष है। वह अतिमानव प्राचीन हेब्य्रू यो ट्यूटनों के समान कठोर और पशु शक्ति का पुजारी है। वह अपनी प्रबल शक्ति से दुर्बल जातियों पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहेगा। इसी कारण श्री अरविन्द ने नीत्शे की परिकल्पना को पूरी तरह से अस्वीकार किया है। एसेज ऑन दि गीता में कहते हैं- ‘दया मनुष्य की एक कमजोरी है और जो नार्वीजन नायक के समान ईश्वर को इसलिए धन्यवाद देता है कि उसने उसे कठोर हृदय दिया।’
नीत्शे अपने ग्रंथ ‘जिनीओलॉजी ऑफ मॉरल्स’ की भूमिका में स्पष्ट किया है कि दया पर आधारित नैतिकता आधुनिक यूरोपीय सभ्यता का सबसे खतरनाक लक्षण है। ईसाइयों के ईश्वर को उन्होंने दरिद्रों का ईश्वर कहा है। इस प्रकार अस्वाभाविक शारीरिक एवं जैविक शक्ति से ओत-प्रोत वर्तमान का यह बौद्धिक मानव ही नीत्शे की दृष्टि से अतिमानव है। भौतिक एवं जैविक शक्ति की प्रबलता ने उसे पशु के समान निष्ठुर और कठोर बना दिया है। इस संदर्भ में श्री अरविन्द एण्ड दि न्यू एज में अनिल वरुण राय की उक्ति अत्यन्त समीचीन प्रतीत होती है- भारतीय शब्दावली में असुर शब्द से नीत्शे के अतिमानव का स्वरूप मिलता है। अर्थात् वह एक आसुरी शक्ति है जो अपने क्षुद्र अहंकार से उन्मत्त होकर समस्त मानव जाति पर विजय प्राप्त करना चाहता है।
इसके ठीक विपरीत सैमुएल अलेक्जैंडर का अतिमानव दिव्य है। उसमें देवत्व के गुण हैं। अपनी विख्यात कृति ‘स्पेश, टाइम एण्ड डीटी’ में उन्होंने इस तथ्य की पुष्टि की है कि वर्तमान मानव विकास का अन्तिम परिणाम नहीं है। मानव का अगला विकास ‘डीटी’ में होगा। डीटी को अतिमानव की संज्ञा दी जाती है क्योंकि वह वर्तमान मानव की अंतिम संभावना है। वह आज के मानव का विकसित रूप होगा।
अलेक्जैंडर डीटी को दिव्य स्वरूप सम्पन्न समझते हैं। चूँकि स्वयं ईश्वर डीटी के धारक हैं। इसलिए इसमें नीत्शे के अतिमानव के समान आसुरी गुण नहीं होंगे। उनके अनुसार हमारी वर्तमान मानसिक स्थिति में बौद्धिक आधार पर डीटी की उपलब्धि नहीं हो सकती। इसी कारण वे इसके स्वरूप का वर्णन नहीं करते। वे इस सम्बन्ध में संकेत करते हैं कि डीटी मनस् नहीं है और न ही अध्यात्म है बल्कि प्रकार में उससे भिन्न है। डीटी के दैवी स्वरूप को बताते हुए अलेक्जैंडर श्री अरविन्द के समान यह नहीं कहते हैं कि इसके आविर्भाव के साथ-साथ सम्पूर्ण जगत् का आध्यात्मीकरण हो जाएगा और मानव जाति पूर्णतया परिवर्तित हो जायेगी।
जबकि बर्गसाँ के अनुसार मनुष्य अपनी स्थूल शरीर में दिव्य स्वरूप को प्राप्त कर इसी संसार में दिव्य जीवन जी सकता है। उस दिव्य स्वरूप को जो प्राप्त करेंगे उन्हें ही ग्रैण्ड मिस्टिक्स या महान् रहस्यवेत्ता कहा जाता है। उन्होंने ‘टू सोर्सेज ऑफ मोरालिटी एण्ड रिलीजन’ नामक अपने विख्यात ग्रंथ में इसे ग्रैण्ड मिस्टिक की उपाधि दी है। इसी कृति में वे आगे उल्लेख करते हैं कि इस अतिमानव के जन्म के पश्चात् क्रमशः मानव में परिवर्तन आएगा और एक ऐसा समय आएगा जब समग्र मानव जाति पूर्ण रूपांतरित हो जाएगा।
बर्गसाँ के अतिमानव में नीत्शे के अतिमानव के समान आसुरी लक्षण नहीं है। कठोरता एवं निष्ठुरता के विपरीत प्रेम एवं विनम्रता उसकी मुख्य विशेषता है। वह कहते हैं कि अपने चरम विकास की उच्चतम अवस्था में पहुँचकर भी अतिमानव गर्वोन्नत नहीं होता बल्कि वह सदैव शिष्ट, शालीन बना रहेगा। प्रगाढ़ प्रेम उसका रहस्य है। वह प्रेम द्वारा ही दिव्यता को अभिव्यक्त करता है।
श्री अरविन्द का अतिमानव दैवीय गुणों से अलंकृत एक महायोगी है। वह नीत्शे के अतिमानव से भिन्न है। वह पार्थिव भोग-विलास, सुख-दुःख आदि से ऊपर उठकर ईश्वर की आराधना करता है। वह प्रचण्ड तपस्वी तथा प्रकाण्ड अध्यात्मवेत्ता है। अपनी समस्त दिव्य शक्तियों एवं विभूतियों को वह मानव मात्र के कल्याण के लिए नियोजित करता है। वह स्वयं रूपांतरित है एवं अपने आविर्भाव के साथ ही जगत् को भी रूपांतरित करने की क्षमता रखता है। वह सभी को ईश्वर में एवं ईश्वर को सभी में देखता है। उसकी नजर में जड़ चेतन सभी में एकमात्र ईश्वर व्याप्त है।
श्री अरविन्द का अतिमानव दैवीय गुणों से ओतप्रोत है तथा वह दिव्यता प्रदान कर सकता है। वह आत्म चरितार्थ एवं आत्मस्थ पुरुष है। अहंकार से वह सर्वथा मुक्त है। अतः उसका व्यक्तिगत संकल्प सामूहिक संकल्पों से अभिन्न है। अन्य सभी आत्माओं के साथ पूर्ण संगति एवं सामंजस्य से वह कार्य करता है। इस संदर्भ में श्री कविश्वर जी ने बड़े सुन्दर ढंग से उनके अतिमानव का वर्णन किया है- ‘श्री अरविन्द का अतिमानव महाप्रतापी दैत्य रावण नहीं है। वह सहस्रों मानवों के शारीरिक बल से सम्पन्न महाभारत का भीम भी नहीं है। वह सहस्रों योद्धाओं से बढ़कर युद्ध सामर्थ्य वाला तथा पाण्डवों के राजसूय यज्ञार्थ अनेकानेक राजाओं को जीतने वाला महापराक्रमी अर्जुन भी नहीं है। उनका अतिमानव तो गीता समाप्ति का वह अर्जुन है जो अपनी अद्वितीय शरशास्त्र प्रविद्या, सूक्ष्म बुद्धि और श्रेष्ठ ज्ञान के साथ अत्यन्त नम्रता से भगवान् श्रीकृष्ण के सामने सम्पूर्ण आत्मसमर्पण कर उन्हीं की इच्छा को अपनी इच्छा मानता है तथा ईश्वर का निमित्त मात्र होने को तैयार है।’
सर्वस्व समर्पण करके ही ईश्वर के हाथों यंत्र बनना सम्भव है। और जो परमात्मा का यंत्र बन सका उसी का जीवन सार्थक है। ऐसे जीवन में ही विकास की अनन्त संभावनाएँ सन्निहित होती हैं। यही जीवन देवत्व का पर्याय होता है। जो अपनी दिव्यता से अपने वातावरण को भी स्वर्गतुल्य बना देता है। अतः अतिमानव के इस यथार्थ को साकार करने लिए हमें अपने चरित्र, चिन्तन एवं व्यवहार को सुधारने एवं संवारने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर देनी चाहिए।