श्रीरामलीलामृत-1 - चेतना की शिखर यात्रा

January 2002

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परमपूज्य गुरुदेव : एक असमाप्त जीवन गाथा (1)

इस अंक से हम एक धारावाहिक जीवन कथा यात्रा ‘श्रीरामलीलामृतम्‘ नाम से आरंभ कर रहे हैं। इसमें सद्यः प्रकाशित गुरुसत्ता की जीवनी के अंश दिए जाते रहेंगे। होंगे ये समय अनुक्रमणिका के अनुसार ही, पर संपादित अंश होगे। पूरी जीवनी के लिए प्रायः चार सौ पृष्ठों की प्रकाशित चेतना की शिखर यात्रा का प्रथम खंड पढ़े। दूसरा भाग भी आगामी रामनवमी तक तैयार होकर उपलब्ध हो सकेगा।

भारत भाग्य विधाता

बीसवीं शताब्दी या पिछले सौ साल भारतीय समाज ही नहीं, विश्व इतिहास में भी उथल-पुथल और गहन परिवर्तन के साल रहे है। सन् 1905 में बंगाल विभाजन से भर में जो प्रतिक्रिया हुई और बाद के वर्षों में जिस तरह राष्ट्रीय चेतना जागी, उसकी परिणति बयालीस वर्ष बाद भारत को स्वतंत्रता मिलने के रूप में दिखाई दी। बंग भंग की घटना एक निमित्त मात्र थी। व्यापक परिप्रेक्ष्य में वह इतनी महत्वपूर्ण नहीं थी कि ब्रिटिश साम्राज्य की नियति ही बदल जाए। छह साल बाद विभाजन रद्द हो गया था, लेकिन उस निमित्त ने राष्ट्र को जगा दिया। जनमानस में स्वतंत्रता की प्यास निरंतर बढ़ती गई। बंगाल के विभाजन ने माँ भारती की लाखों-करोड़ों संतानों को अपना बोध कराया। वे सक्रिय होते गए और रौलट एक्ट का विरोध, जलियावाला बाग, असहयोग आँदोलन, सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह आँदोलन से लेकर साइमन कमीशन बहिष्कार और भारत छोड़ो आँदोलन जैसे पड़ावों से गुजरते हुए 15 अगस्त 1947 तक पहुँचे। कितने ही आरोह और अवरोह से होते हुए राष्ट्र की चेतना जिस शिखर पर पहुँची, उसकी प्रत्येक भारतीय को गौरव से अभिभूत कर देती है। क्या भारत वास्तव में आजाद हुआ या नियति ने उसका भाग्य लिख ही दिया था?

श्री अरविंद भारत को मिली आजादी के विषय में लिखते हैं-"सही बात तो यह है कि इंग्लैंड ने भारतवर्ष को कभी जीता नहीं। उसे ‘क्यों और कैसे’ का पता लगे, उससे पहले ही भारत को उसके हाथों में सौंप दिया गया। सामान्यतः जिन लोगों ने इंग्लैंड के लिए काम किया, कुछ अपवादों को छोड़कर वे बहुत छोटे आदमी थे। भागवत् कृपा के बिना वे यूरोप में या कहीं और इतिहास में अपने लिए कोई स्थान नहीं बना पाते। भारत को हराने का सेहरा न तो जीतने वालों की विशेष प्रतिभा या क्षमता के सिर बाँधा जा सकता है और न ही परतंत्र जाति की दुर्बलता को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। यह इतिहास का एक ऐसा चमत्कार है, जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। कहा जा सकता है कि यह एक ऐसा उदाहरण है, जिसमें किन्हीं विशेष गुणों के बिना ही एक महान उद्देश्य सौंपा गया था और एक सौभाग्य विशेष उसकी निगरानी कर रहा था कि वह अपना उद्देश्य पूरा कर सके।"

"यह उद्देश्य पूरा होते ही भगवान का वह देवदूत जो इंग्लैंड की रक्षा करने के लिए उसके पास खड़ा है और हाथ के इशारों से आने वाली सभी कठिनाइयों और विपदाओं को दूर कर देता है, उसकी ढाल नहीं बनेगा। इंग्लैंड यहाँ तभी तक रह सकता है, जब तक भारत को उसकी जरूरत है। जरूरत पूरी होते ही उसे हट जाना होगा, क्योंकि अँगरेजी राज न तो अपने भुजबल से यहाँ आया है और न ही अपने बलबूते पर खड़ा है, जो वह ठहर सके। अगर इंग्लैंड इस देश की सहायता करना चाहे तो उसकी सहायता लेकर और यदि नहीं करना चाहे तो उसके बिना और विरोध करे तो विरोध के होते हुए भी भारत अपने लक्ष्य को चरितार्थ करके रहेगा ।" श्री अरविंद को योगविद्या की प्रारंभिक शिक्षा देने वाले योगी विष्णु भास्कर लेले ने भी विभाजन के खिलाफ खड़े हुए क्राँतिकारियों को भगवान का यंत्र बताया था। उन्होंने यह भी कहा था कि भगवान् भारत की नियति लिख चुके हैं। भारत भगवान का चुना हुआ देश है। वह आजाद होगा और उसे देवशक्तियाँ सतत संरक्षण देती रहेंगी।

अगली पंक्तियों में जिस प्रसंग का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है, उसका संदेश इसी से मिलता-जुलता है। सन् 1972 का एक चर्चा प्रसंग है। परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी हिमालय के गुह्य प्रदेशों में करीब छह महीने का अज्ञातवास बिताकर शांतिकुंज लौटे थे, वर्ष था 1972। शाँतिकुँज के मुख्य भवन में पहली मंजिल पर जहाँ आज उनकी और माताजी की पादुकाएँ प्रतिष्ठित हैं, वहाँ गुरुदेव कुर्सी पर बैठे हुए थे। भारत के विराट् और महिमावान् स्वरूप का परिचय विश्वसमाज को कराने के लिए शोध-अनुसंधान पर चर्चा चल रही थी। दुनिया को अपनी महिमा और गरिमा से अवगत कराना है, तो तथ्य और प्रमाण भी चाहिए। शोध-अनुसंधान का उद्देश्य वैसी सामग्री जुटाना था। यह शोध-अनुसंधान बाद में ‘समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान’ पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ। गुरुदेव के लेखों और उद्बोधनों में भारत के दिव्य लीला भूमि होने की स्थापना मुखर रही है। किन्हीं परिजन ने उनसे पूछ लिया, "ईश्वर को भारत से विशेष लगाव क्यों है कि वह यहीं अवतार लेता है? हम अपने आपको सभ्यता और संस्कृति का प्रकाश उपलब्ध करने वाली सबसे पुरानी जाति मानते हैं। कहीं हम श्रेष्ठता की ग्रंथि से पीड़ित तो नहीं है। अगर हम शक्ति, ज्ञान कौशल और संगठन में किसी से कमजोर नहीं है, तो सदियों तक गुलाम क्यों रहे? अगर हम महाबली और रणबाँकुरे थे, तो हमलावरों को यहाँ सफलता मिलनी ही नहीं चाहिए थी।"

परिजन के प्रश्न में संदेह या उगक्षेप नहीं, जिज्ञासा भाव था। अज्ञातवास से लौट आने की सूचना ज्यादा लोगों को नहीं थी। मुश्किल से चार-छह व्यक्ति प्रतिदिन आते थे। गुरुदेव तब माताजी के कक्ष के दायें वाले कमरे में बैठकर, लेखन और भावी कार्यक्रमों का निर्धारण करते थे, परिजन के पूछने पर गुरुदेव ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया, "भारत भगवान् का चुना हुआ देश है। देखते नहीं हो, यहाँ ईश्वर ने स्वयं शरीर धारण कर सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा की। चौबीस अवतार हुए हैं यहाँ। ऋषि-मुनि, योगी-यति और सिद्ध-संतों की संख्या का कोई अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता। दुनिया के और देशों में हुए संतों की गणना की जाए, उनकी विभूतियों का विवरण इकट्ठा किया जाए, तो वह सब भारत में हुई अध्यात्म विभूतियों के एक अंश के बराबर नहीं होगा। जितने विचार, विश्वास और साधना-संप्रदाय यहाँ हैं, उतने संसार के बाकी सभी देशों को मिलाकर भी नहीं होंगे। यहाँ उन सभी विद्या धाराओं में सामंजस्य है, जो कही और मुखर हो तो उनके अधिकारी विद्वान आपस में ही टकरा जाएँ।

प्रकृति, ऋतु, नदी-नद, पर्वत, मैदान, प्राणिजगत् और निवासियों तक में विविधता है। इस विविधता को देखते हुए क्या नहीं लगता कि भारत भगवान का चुना हुआ देश है? वह यहाँ अपनी लीला या प्रकृति के नए-नए प्रयोग कर रहा है।"

कुछ क्षण रुककर गुरुदेव ने उन परिजन को निहारा। शब्दों में जितना कुछ कल गया उससे कहीं ज्यादा, कई गुना सेदेश उस दृष्टि-निक्षेप में संप्रेषित कर दिया गया। गुरुदेव को निहारते देखकर ऐसा नहीं लगा कि कोई बौद्धिक सीख मिली हो। उन परिजन ने अपनी अनुभूति लिखते हुए कहा, "मुझे अपना बचपन याद हो आया, जब कोई जटिल प्रश्न सामने आता तो अपने पिताश्री से पूछने जाता था। वे मेरे प्रश्न का उत्तर किसी किताब में से नहीं देते थे। न ही वे किसी सूचना या तथ्य का उल्लेख करते थे। बस कुछ सैद्धाँतिक बातें समझाते और स्नेह से देखने लगते थे। मैं भूल जाता था कि जो पूछा है उसका उत्तर क्या है? उनकी बातें सुनकर और उससे भी ज्यादा उनकी दृष्टि पीकर संतुष्ट हो जाता था। ऐसा प्रतीत होता था कि चाभी मिल गई है। पुस्तक एक बंद पिटारी है, जिसमें ताला लगा हुआ है। चाभी लगाओ, ताला खोलो और पिटारी में बंद समाधान प्राप्त कर लो। गुरुदेव के संक्षिप्त से उद्बोधन और कुछ पल के दृष्टि निक्षेप ने उनके बचपन की उस अनुभूति को हरा कर दिया।"

"समाधान तर्क से चाहिए तो वह भी है।" गुरुदेव ने फिर कहा, "संसार एक चक्र की तरह है। वह घूमता रहता है। कुछ अरे ऊपर जाते हैं, तो दूसरे नीचे आते हैं। भारत के साथ भी यही हुआ। कोई भी जाति सदा के लिए शिखर पर नहीं होती। उत्थान के साथ पतन भी है। कुछ सौ साल की गुलामी को पतन मान सकते हैं, लेकिन उसने भारत को नष्ट नहीं कर दिया। कई जातियाँ अथवा समाज पचास-सौ साल के दमन में ही नष्ट हो गए। यूनान, मिस्र, ईरान, और रोम की प्राचीन सभ्यताएँ अपनी रक्षा नहीं कर सकीं। उनका मूल अस्तित्व कभी का समाप्त को गया। भारत उन देशों की सभ्यताओं से ज्यादा रौंदा और कुचला गया, फिर भी वह आज उठकर खड़ा हो गया है। इसे भारत का नष्ट होना कहोगे या उसकी जिजीविषा का प्रमाण? तथ्यों के प्रकाश में देखोगे तो भी पाओगे कि कुछ बात है जो भारत को अजर, अजेय और अक्षुण्ण बनाए हुए है।"

ऋषि सत्ताओं के अनुग्रह की एक और बानगी दिसंबर 1971 में एक बड़ी घटना के रूप में देखी गई। उन दिनों भारत और पाकिस्तान का युद्ध चल रहा था। युद्ध आरंभ होने से पहले की स्थितियाँ प्रायः सभी जानते हैं। पूर्वी पाकिस्तान(अब बाँग्लादेश) से हजारों लोग दल के-दल बनाकर भारत चले आ रहे थे। वहाँ के शासक जनता का बुरी तरह उत्पीड़न कर रहे थे। पूर्वी पाकिस्तान अथवा बाँग्लादेश की प्राकृतिक संपदा का दोहन वहाँ से दो हजार किलोमीटर दूर स्थित पश्चिमी पाकिस्तान के हुक्मरान कर लेते थे और उसे अपने यहाँ उपयोग में ले लेते थे। उत्पादक देश अथवा क्षेत्र के हिस्से में शोषण, दलाली और उत्पीड़न ही आता था। बाँग्लादेश के लोग बीस साल तक सहते रहे, उचित और न्यायपूर्ण अधिकारों के लिए आवाज उठाते रहे। उन्हें सुनने के स्थान पर शासक उपेक्षा और दमन की नीति अपनाते रहे। दमन-उत्पीड़न असह्य होने लगा तो पूर्वी पाकिस्तान के लोग बागी हो गए। उस हिस्से ने स्वतंत्र राज्य की घोषणा कर दी। दमन चक्र और तेज हुआ तो प्रतिरोध और क्राँति की ज्वाला भी भड़कने लगी।

बाँग्लादेश में चल रहे संग्राम का प्रभाव भारत पर भी पड़ा। जो लोग उत्पीड़न और दमन का मुकाबला नहीं कर सके या जिनके लिए स्थितियों दूभर हो उठीं, वे भारत आने लगे। यहाँ आते जा रहे लोगों की संख्या कुछ हजार, हजार से लाख और लाख के बाद करोड़ के ऊपर पहुँच गई। इतने लोगों की देखभाल का जिम्मा भारत सरकार को उठाना पड़ रहा था, साधन उन दिनों बेहद कम थे। उन्हें निचोड़कर और यहाँ के नागरिकों पर अतिरिक्त कर लगाकर किसी तरह शरणार्थियों की व्यवस्था की जा रही थी।

पाकिस्तान को बाँग्लादेश की जनता के उत्पीड़न से ही संतोष नहीं हुआ। अपनी राजनैतिक विवशताओं के चलते वहाँ के शासकों ने भारत पर युद्ध भी थोप दिया। पूर्वी और पश्चिमी सीमाओं पर जुलाई 1971 से ही दबाव बढ़ने लगा, जो कुछ ही सप्ताहों में युद्ध के रूप में बदल गया। महाशक्तियाँ भी उन दिनों ऐसा लगता था कि पाकिस्तान के साथ थीं।युद्ध घोषित हुआ। पूर्वी और पश्चिमी पर घमासान छिड़ने लगा। दो-तीन दिन में ही पाकिस्तानी सेना के पाँव उखड़ने लगे। वह पीछे हटने लगी। बाँग्लादेश के मोरचे पर प्रतिपक्षी सेना का दबाव कम पड़ने लगा और भारतीय सेना आगे बढ़ती दिखाई दी, तो आक्राँता के साथ खड़े देशों ने पहल की। पहल पाकिस्तान के पक्ष में ही थी। इस पहल का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में मामला ले जाने की तैयारियाँ की जाने लगीं। इन तैयारियों का उद्देश्य किसी देश पर नैतिक दबाव डालना ही होता है।

अमेरिका इस तैयारी पर ही ठहरा नहीं रहा। उसने सामारिक दबाव भी बढ़ाया और सातवें जहाजी बेड़े (सेवन्थ फलीट) का रुख हिंद महासागर की करने के आदेश दिए। उस समय तक वह संसार का सबसे बड़ा जहाजी बेड़ा था, जिस पर युद्धक विमान, प्रक्षेपास्त्र, विमानभेदी तोपें, हवा से हवा में मार करने वाली मिसाइलें और पर्याप्त गोला-बारूद से लैस सैनिक टुकड़ियाँ थीं। सामर्थ्य की दृष्टि से सातवाँ बेड़ा इतना सक्षम था कि भारत-पाक यह की स्थिति उलट सकता था। तब भारत की नौ सेना इतनी सक्षम नहीं थी कि बेड़े को ध्वस्त कर सकें या उसके मुकाबले देर तक टिकी रह पाए। भारत-पाक युद्ध ने घमासान रूप ले लिया, तो निर्णय हफ्ते-दस दिन के भीतर ही हो जाना तय था। निर्णायक स्थितियाँ बन रही थीं, लेकिन सातवें बेड़े का मुंह हिंद महासागर की ओर होने के बाद स्थितियां दूसरा ही रुख ले रहीं थीं। अचानक 7 दिसंबर सन 1972 की सातवीं तारीख को सूर्य उदय होने बाद की पहली खबर दिया है और वह भारतीय सीमा से दूर खिसकने लगा है।

क्या हुआ ? रातोरात स्थितियां कैसे बदल गई ? कोई कूटनीतिक पहल नहीं, विश्व जनमत का कोई दबाव नहीं। अमेरिकी शासन व्यवस्था को बारीकी से समझने वाले बताते हैं कि इस स्तर पर पहुँचने के बाद वहाँ का सुरक्षा मुख्यालय पेंटागान अपना निर्णय कभी नहीं बदलता। जहाजी बेड़ा रवाना होने के बाद वापस लौटने का उदाहरण अमेरिकी इतिहास में एक भी नहीं है। सेनाओं के कूच करने, युद्ध की घोषणा होने और समर शुरू होने के बाद तुरंत वापसी या विराम होने की घटनाएँ दूसरे देश में भी नहीं घटी है । अमेरिकी प्रतिरक्षा मंत्रालय ने रातोरात निर्णय क्यों पलट दिया? युद्ध राकने, बंद करने अथवा आक्रमण वापस लेने का विलक्षण फैसले का अधिकार अमेरिकी राष्ट्रपति को ही है। तत्कालीन राष्ट्र रिचर्ड निक्सन के सामने अचानक ऐसी क्या विवशताएँ आ गई कि उन्हें बेड़ा वापस बुलाने का निर्णय लेना पड़ा। अमेरिकी मामलों के विशेषज्ञ-विश्लेषक इस प्रश्न का उत्तर आज तक नहीं ढूँढ़ पाए है।

क्या कोई दैवी हस्तक्षेप हुआ ? श्रद्धालु जनों के मन में उस समय भी जिज्ञासा थी। राजनाँदगाँव (छत्तीसगढ़) के एक साधक मोहन देवाँगन ने 7 दिसंबर 1971 की भोर एक सपना देखा कि अमेरिकी बेड़ा हिंद महासागर पार कर बंगाल की खाड़ी में प्रवेश कर रहा है। श्रीलंका की सीमा को धड़धड़ाता हुआ पार कर रहा है। गति क्षण-प्रतिक्षण तेज होती जा रही है । कोई प्रत्यक्ष चिह्न नहीं दिखाई दिया, लेकिन आभास हुआ कि समुद्र में ठीक उसी स्थान की सीध में पहुँचा जहाँ रामेश्वर सेतु बाँधा गया था। उस जगह कुछ पत्थर तैरते हुए दिखाई दिए। पत्थरों पर ‘राम’ नाम खुदा हुआ था। स्वप्न में यह दृश्य देख रहे साधक ने देखा कि उन पत्थरों के बीच में एक बड़ा युद्धपोत (स्पष्ट ही सातवाँ बेड़ा ) गुजर रहा है। अचानक जैसे बिजली कौंधती है और समुद्र का सीना चीर कर एक हाथ मुट्ठी बाँधे प्रकट होता है। पहले मुट्ठी बाहर आती है फिर कलाई और कुहनी तक बाहर आते हुए हाथ की ऊँचाई आकाश छूने लगती है, मुट्ठी खुलते ही पंजा चौड़ा होता दिखाई देता है और धीरे से युद्धपोत को ढक लेता है। इस तरह ढक लेता है कि पोत का कोई भी हिस्सा दिखाई देना बंद हो जाता है। अगले ही क्षण स्थिति सामान्य हो जाती है। समुद्र शाँत हैं साधक इस दृश्य को देखते हुए अनुभव भी कर रहे थे कि हाथ की आकृति ‘लाल मशाल’ थामे हुए हाथ जैसी है।

शाँतिकुँज के अखंड दीप के सामने जप कर रही कुछ देव कन्याओं को भी इसी तरह की अनुभूति हुई थी। सातवें बेड़े के पास जाने की खबर प्रसारित होने से पहले वंदनीया माताजी ने प्रणाम के लिए आए साधकों से कहा था, अब खतरा टल गया है। इस युद्ध में भारत की जीत सुनिश्चित है। दुनिया की कोई भी शक्ति उसे परास्त नहीं की सकती। युद्ध समाप्त होने के बाद देखना भारत दिनोदिन प्रगति करेगा। उसे विश्व का मार्गदर्शन करने का दायित्व निभाना है और जल्दी ही वह इस योग्य हो जाएगा। अनेक साधकों को दिखाई दिए स्वप्न, आभास और अनुभूतियों के इस दस दिन बाद युद्ध समाप्त हों चुका था कि वह सत्य-न्याय के मार्ग पर है। भौतिक दृष्टि से प्रत्यक्ष समर्थ नहीं दिखाई देते हुए भी वह दुनिया भर के अनुचित-अवाँछनीय विरोध का सामना करने में सक्षम है । उसे पराभूत करना अब किसी के वश में नहीं है।

विजय के बाद भारत ने शक्ति, साधना और सिद्धि के क्षेत्र में दिनोदिन प्रगति की है। उसकी यह नियति पहले ही लिखी जा चुकी थी। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 15 अगस्त 1947 के अपने प्रसिद्ध भाषण में जिसे नियति से साक्षात्कार का उद्घोष किया था, वह नियति भी वर्षों पहले अंकित हो गई थी, लेकिन उसके अक्षर जिस समय उभरते दिखाई देने लगे थे, वह सन् 1911 का वर्ष था, जिससे आचार्य श्रीराम शर्मा जी का जन्म हुआ था। क्रमश:


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