नासिरुद्दीन दिल्ली के बादशाह थे, पर वे अवकाश के समय टोपियाँ बनाकर व कुरान की नकल करके जो धन मिलता, उसी से अपना खरच चलाते। बादशाह की बेगम हाथ से खाना पकाया करती थी।
एक बार खाना पकाते समय बेगम का हाथ जल गया। वह सोचने लगी, एक बादशाह की बेगम होते हुए भी उसे एक नौकर भी मयस्सर नहीं। उसने अपने पति से कहा, “आप राज्य के स्वामी हैं। क्या आप हमारे लिये भोजन पकाने वाले एक नौकर का प्रबंध नहीं कर सकते?”
“बेगम आपके लिये नौकर रखा जा सकता है, बशर्ते कि हम अपने सिद्धांतों से डिग जाएँ। राज्य, धन, वैभव तो प्रजा का है। हम तो उसके संरक्षक मात्र हैं। उसका उपयोग अपने लिये करें, यह तो बेईमानी होगी”। नासिरुद्दीन ने उत्तर दिया। उनकी सिद्धांत-निष्ठा के आगे पत्नी को झुकना ही पड़ा।
स्वाति नक्षत्र की वेला थी। खेतों को पानी की जरूरत पड़ी। बादलों में बसने वाली बूंदें मचलने लगी, बोली, “ हमें आसमान नहीं, जमीन चाहिए। उठने में क्या आनंद। नीचे वालों के साथ आत्मसात् बनकर क्यों न जिएँ।”
बादल अपने समुदाय को अंचल में ही समेट रखना चाहते थे। बरसने की उन्हें जल्दी न थी। फिर भी बूँद मचली सो मचली। आगे-पीछे सोचे बिना धरती पर टपक ही पड़ी। सहेलियों को यह उतावली भाई नहीं।
हवा ने साथ नहीं दिया। खेती तक दौड़ सकने की उसमें सामर्थ्य नहीं थी। फिर भी सोचती रही। मन मसोसकर क्यों रहा जाए ? जितना बन पड़े उतना ही क्यों न किया जाए ?
बूँद बहुत दूर न चल सकी और जहां भी बन पड़ा वहीं बरस पड़ी। सरोवर तट पर बैठी हुई सीप ने उसकी ममता को परखा और मुँह खोल दिया, “देवी ! आओ तुम्हें कलेजे से लगाकर रखूँगी। तुम से बढ़कर कौन है इस संसार में जिसे अपना बनाऊं ।”
सीप और स्वाति बिंदु का संयोग मोती बन गया। अनुदानी और भाव पारखी दोने धन्य हो गए।