लक्ष्य का पहचान और उसकी प्राप्ति

January 2002

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

लक्ष्य के अनुरूप ही जीवन की दशा एवं दिशा का निर्धारण होता है। यूँ तो मनुष्य जीवन ही श्रेष्ठता का पर्याय है अतः प्रत्येक मनुष्य का लक्ष्य भी महान् एवं पवित्र होना चाहिए। फिर भी हर व्यक्ति अपने लक्ष्य के चुनाव के लिए स्वतंत्र है। वह ईश्वर का चुनाव करे या फिर उसके ऐश्वर्य का। लक्ष्य चाहे जैसा भी हो उसको एकनिष्ठ भाव से पूरा करना चाहिए। अपनी समस्त शक्ति एवं प्रतिभा को उसमें होम देना चाहिए।

लक्ष्य क्या है? यह प्रश्न सबके लिए अलग-अलग है। अपनी प्रतिभा एवं अभिरुचि के अनुरूप लक्ष्य होना चाहिए। जिस क्षेत्र के प्रति भावना हुलस उठे, जिसे प्राप्त करने के लिए मन मचल उठे उसे ही लक्ष्य बनाना चाहिए, लेकिन इसका सार्थक एवं सर्वहितकारी होना अनिवार्य है। मनोनुकूल कार्य के प्रति उत्साह एवं उमंग का स्वाभाविक संचार होता है। उसे पूरा करने के लिए मन लगता है। और कठोर श्रम भी उबाऊ नहीं होता। परन्तु अनिच्छा पूर्वक अपनाये गये कार्य अन्ततः अपूर्ण होते हैं और उनसे असफलता ही हाथ लगती है। अतः जीवन में सदैव उसी लक्ष्य का चुनाव करना चाहिए, जिसके साथ हम न्याय कर सकें। ताकि वह अधूरा न छूटे एवं अन्त तक उस पर डटे रह सकें।

इस सृष्टि का हर घटक अनोखा है एवं हर व्यक्ति निराला। हरेक का अपना उद्देश्य होता है। ईश्वर ने उसे किसी विशिष्ट कार्य में नियोजित करने के लिए यहाँ भेजा है। अतः प्रत्येक का स्वभाव एवं प्रकृति भिन्न होती है। उसी के अनुसार उसे अपना लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। जिस कार्य में अपनी मौलिक प्रतिभा जाग उठे उसे ही लक्ष्य बनाना चाहिए। गीता के अनुसार यही स्वधर्म है। किसी को कला के क्षेत्र में प्रवेश करना पसन्द होता है तो किसी को दर्शन का तत्त्वज्ञान अच्छा लगता है। कोई विज्ञान जगत् में पदार्थों का सूक्ष्म परीक्षण-निरीक्षण करना चाहता है तो कोई राजनीति-कूटनीति में महारथ हासिल करना चाहता है। यही अपनी अभिरुचि का क्षेत्र है। देखा जाए तो इसी का चुनाव ही लक्ष्य है।

लक्ष्य की पहचान के पश्चात् उसकी प्राप्ति हेतु प्रारम्भ होती है एक लम्बी यात्रा, एक सुदीर्घ प्रयास एवं पुरुषार्थ। सफलता और असफलता उसकी सहचरी होती हैं। परन्तु पुरुषार्थी अपने लक्ष्य पथ से कभी विचलित नहीं होता। उसे अपना लक्ष्य सदैव धनुर्धर अर्जुन की भाँति केवल मछली की आँखों की तरह याद रहती है। उसके विचार एवं संकल्प उस तीर के सदृश्य होते हैं जिसे अनुभव की दहकती भट्टी में पकाया एवं गढ़ा जाता है और उसी के द्वारा इस लक्ष्य भेद किया जाता है। निराशा-हताशा, उदासीनता लक्ष्य के प्रति सन्नद्ध व्यक्ति के पास नहीं फटकती। उसमें अनवरत उद्दाम उमंग एवं नूतन आशा संचरित होती रहती है। ऐसे प्रचण्ड पुरुषार्थी ही लक्ष्य भेदने में समर्थ एवं सफल होते हैं।

लक्ष्य चाहे जितना कठिन एवं दुर्गम दिखता हो, दृढ़ संकल्प एवं अटल विश्वास से उसे सहज-सरल बनाया जा सकता है। लक्ष्य के प्रति संकल्प ऐसा होना चाहिए कि जिसका कोई विकल्प न बन सके। राजा विश्वरथ का विश्वामित्र बनने का एवं तपस्वी अगस्त्य का विंध्याचल पर्वत को झुका देने के संकल्प को अपना आदर्श बनाना चाहिए, जिसके लिये इनका समस्त जीवन खप गया। लक्ष्य के प्रति मीरा जैसा दृढ़ विश्वास हो जिसमें पत्थर की मूरत में भी कोई संदेह न हो और वह सजीव हो उठे। विश्वास के बल पर महावीर हनुमान सागर लाँघने वाले ऐसे ही कोई लगनशील एवं साहसी योद्धा थे। वीर एवं योद्धा बनकर ही लक्ष्य भेदा जा सकता है। जहाँ पर व्यामोह एवं दुर्बलता का नामोनिशान न हो। साहसी और अपार साहसी ही अपने जीवन के अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं।

उच्चतर लक्ष्य के लिए दैवी कृपा भी मिलती है। जब व्यक्ति श्रेष्ठ लक्ष्य हेतु अग्रसर होता है और उसके कदम आगे बढ़ने लगते हैं तो उसे अनायास ही साधन-सुविधाएँ मिलने लगती हैं। अन्दर से प्रेरणा जाग्रत् होने लगती है और उस कार्य को पूरा करने के लिए नवीन आशा एवं उत्साह का संचार होने लगता है। ऐसी स्थिति में मन का कुहासा छंटने लगता है और लक्ष्य का सूर्य चमकने लगता है। जिसके किरण पथ पर बढ़ते हुए वह अवश्य ही सफल होता है। फिर जीवन के समस्त क्रियाकलाप एक उसी लक्ष्य के लिए मचलने लगते हैं। शरीर का रोम-रोम मन का हर विचार एवं हृदय की सारी भावनाएँ एक उसी निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर चल पड़ती हैं। जीवन लक्ष्यमय हो उठता है। ऐसी स्थिति में भला लक्ष्य की प्राप्ति कैसे असम्भव हो? फिर तो ईश्वर का सिंहासन भी डोल जाता है, और वह दौड़ा-दौड़ा प्रह्लाद को बचाने चला आता है।

लक्ष्य के लिए इतनी लगन और निष्ठ अपरिहार्य है। ऐसी निष्ठ जिस क्षेत्र में लगा दी जाती है। उसका परिणाम सुनिश्चित हो जाता है। कवि अपनी कविता के लिए, चित्रकार अपने चित्र के लिए, कृषक अपनी फसल के लिए एवं भक्त अपने भगवद्लक्ष्य के लिए इसी प्रकार की भक्ति एवं निष्ठापूर्वक कर्म करते हैं। कर्म के इसी सोपान से बढ़ते हुए उन्हें अपनी मंजिल की प्राप्ति होती है।

लक्ष्य को लाँघने वाला व्यक्ति सदा वर्तमान में जीता है। वर्तमान के सर्वोत्तम क्षणों को मूर्त रूप देता है। वह आज के कार्य को कल के लिए नहीं टालता। उसे नियत समय में पूर्ण करके ही दम भरता है। अतीत की असफलता से वह सीख लेता है और उससे कभी परेशान एवं व्यग्र नहीं होता। बल्कि भविष्य में ऐसी त्रुटि न करने का संकल्प दुहराता है एवं अपने लक्ष्य हेतु योजना गढ़ता है। वह सदैव वर्तमान में जीकर अपने अभिप्सित लक्ष्य के प्रति समर्पित रहता है। वह कभी भी लक्ष्य पथ से विचलित नहीं होता। इसी कारण बड़ी-बड़ी विघ्न-बाधा को वह आसानी से पार कर जाता है। इसी कारण जेरेमी कोलीगर कहते हैं निरन्तर प्रयत्न और अद्भुत लगन से कठिनाइयाँ भी लजा जाती हैं और असम्भव सा दिखने वाला लक्ष्य सम्भव में परिवर्तित हो जाता है।

जिसने भी महानता अर्जित की है, सफलता पायी है अगर उनके जीवन के अन्दर झाँके तो प्रतीत होगा कि लक्ष्य ही उनका केन्द्र बिन्दु रहा है। उनका समस्त जीवन उनके लक्ष्य के इर्द-गिर्द ही घूमते नजर आएगा। सफलता एवं कठिनाइयों के आगे वे न तो हारे, टूटे और न बिखरे बल्कि असीम धैर्य के साथ अपने उद्देश्य की ओर बढ़ते ही चले गये।

धुन के पक्के एवं विश्वास के धनी जान इलियट बड़ी कठिनाइयों का सामना करते हुए उपन्यास लेखन में सफल हुए। विपरीत परिस्थितियों में रहते हुए एक सुबह उनके विचारों ने एक स्वप्न बुन डाला और परिणाम यह हुआ कि एक कृति की रचना हो गई, जिसका नाम है- ‘सीन्स ऑफ क्लैरिकल लाइफ’ और उसे अत्यधिक लोकप्रियता मिली।

हर्बर्ट स्पेन्सर ने भी अपने जीवन में अद्भुत कार्य किया। उसके लिए उन्हें अपार कष्ट सहना पड़ा और अनन्त बाधाएँ झेलनी पड़ी। इस बीच उनका स्वास्थ्य भी साथ नहीं दे रहा था। तब कहीं जाकर छिहत्तर वर्ष की आयु में वे अपनी रचना का दसवाँ भाग पूरा कर सके। इसी प्रकार अप्रतिम साहस के योद्धा जेम्स गार्डन बनेट को न्यूयार्क हैराल्ड प्रारम्भ करते समय इतना भी अवकाश नहीं था कि मिलने वालों के साथ कुछ पल बैठकर विचार-विमर्श कर पाते, जब ग्राहक को किसी संस्करण की आवश्यकता होती तो वह ढेर की ओर संकेत कर देते और ग्राहक स्वयं कीमत देकर पत्र उठाते हुए चला जाता। ट्रिब्यून के लिए उन्हें और भी संघर्ष करना पड़ा। रोज वह अट्ठारह घण्टे काम करते। इस कठिन परिश्रम के बावजूद भी शनिवार को चौथाई डालर भी शेष न बच पाता। कभी हिम्मत न हारने वाला वह जुझारू वीर अपने लक्ष्य को कभी नहीं भूला। अन्त में चालीस वर्ष के कठोर एवं अथक श्रम के पश्चात् उन्होंने पत्रकारिता को नूतन आयाम दिये।

लक्ष्य के प्रति समर्पित इन महनीय जनों का जीवन अपने जीवन ध्येय के लिए ही उत्सर्ग हुआ। वस्तुतः जीवन में एक विशिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अटल संकल्प, दृढ़ विश्वास, उद्दाम साहस एवं असीम धैर्य की आवश्यकता पड़ती है। इसके द्वारा हर उस लक्ष्य को जिसके लिए संकल्प उठा हो प्राप्त किया जा सकता है। परन्तु ध्यान रहे कि ईश्वर के अलावा समस्त वैभव एवं सम्पदा नश्वर है। तो क्यों न जीवन के श्रेष्ठ एवं वास्तविक तत्त्व ईश्वर प्राप्ति को ही जीवन लक्ष्य बनाया जाय। क्यों न सम्पूर्ण एवं समस्त जीवन को एक उसी के लिए लगा दिया जाय, जो एकमात्र सत्य है। ईश्वर ही एकमात्र जीवनोद्देश्य है और इसी लक्ष्य के लिए निज को सर्वस्व रूप से उत्सर्ग एवं समर्पित कर देना चाहिए। ऐसा जीवन और उसका लक्ष्य दोनों ही श्रेष्ठ एवं वरेण्य होते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118