अपनों से अपनी बात-1 - इस संगठन वर्ष में हम सब एक निर्णायक युद्ध लड़ेंगे

January 2002

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सप्तसूत्री आंदोलन को तीव्र गति देकर भारत को महानायक बनाएँगे

एक नया युद्ध हम लड़ेंगे। परशुराम की तरह लोकमानस में जमी हुई अवाँछनीयताओं को विचार अस्त्रों से हम काटेंगे।सिर काटने से मतलब विचार बदलना भी है।परशुराम की पुनरावृत्ति हम करेंगे। जन-जन के मन-मन पर गहराई तक गड़े हुए अज्ञान और अनाचार के आसुरी झंडे हम उखाड़ फेंकेंगे। इस युग का सबसे बड़ा और सबसे अंतिम युद्ध हमारा ही होगा, जिसमें भारत एक देश न होगा, महाभारत बनेगा और उसका दार्शनिक साम्राज्य विश्व के कोने-कोने में पहुँचेगा । निष्कलंक अवतार यही है। सद्भावनाओं का चक्रवर्ती सार्वभौम साम्राज्य जिस युगावतारी निष्कलंक भगवान् द्वारा होने जा रहा है, वह और कोई नहीं, विशुद्ध रूप में अपना युगनिर्माण आँदोलन ही है।”(परमपूज्य गुरुदेव ‘अखण्ड ज्योति’ 1970 − पृष्ठ 60)।यह सिंह-गर्जना परमपूज्य गुरुदेव की है।

आज बत्तीस वर्ष बाद भी इन स्वरों को सुना जा सकता है। किसी के भी मन में युगपरिवर्तन संबंधी भविष्यवाणियों पर संदेह है, वह इनके माध्यम से अपना असमंजस मिटा सकते हैं।

वैचारिक युद्ध ही वह प्रक्रिया है जो इस समय युगप्रत्यावर्तन की प्रक्रिया को अंजाम देने जा रही है।विचारों की विचारो से काट,दुर्बुद्धि पर सद्बुद्धि की विजय एवं असुरता के जीवन-मरण के संघर्ष में देवत्व की उस पर जीत,यही अब इस की नियति है। हमारा ज्ञानयज्ञ अभिमान इस कार्य को बखूबी संपन्न कर रहा है।लाखों लोगों के मनों में बदलाव आया है।सभी परिवर्तन चाहते हैं।

भ्रष्टाचार से, बढ़ती अराजकता से, जातिवाद पर आधारित राजनीति से सभी ऊब चुके हैं। अब एकमात्र आशा है तो वह है अध्यात्मवाद। संवेदना पर आधारित उत्कृष्टतावादी आस्थाओं को सबल बनाने वाला चिंतन ही आज की विषम समस्याओं से विश्वमानवता को उबार सकता है। गायत्री परिवार के सप्तसूत्री आँदोलनों की मूल धुरी यही अध्यात्म है, जीवनसाधना है।

विगत वर्ष हीरक जयंती के रूप में सारे देश व विश्व में मनाया गया। युगचेतना के अभ्युदय ही हीरक जयंती एक ही संदेश सबके लिए लेकर आई कि प्रखर तप साधना से, सजल संवेदना विकसित करने से एवं परमात्मचेतना के धरती पर आने के आश्वासन को जीवन में निरंतर जीने से निश्चित ही धरती पर स्वर्ग जैसा वातावरण बनेगा एवं मानव में देवत्व अवतरण होगा। साधना, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन, पर्यावरण, नारीजागरण, कुरीति उन्मूलन, नशा निवारण जैसे प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाले कार्यक्रम भविष्य के परिवर्तन की आधारशिला रख रहे हैं। चारों ओर इनकी धूम मची हुई है। अब इस वर्ष को 2002 की वसंत से 2003 की वसंत तक ‘संगठन सशक्तीकरण वर्ष’ मनाने का निर्णय हुआ है। यदि साधना की धुरी पर चलने वाले अपने राष्ट्रव्यापी-विश्वव्यापी संगठन को सशक्त बनाया जा सका तो जो भी आँदोलन हाथ में लिए जाएँगे, वे सफलता के चरम शिखर तक पहुँचाकर रहेंगे।

जीवन-साधना की प्रखरता का आँदोलन जैसा कि हमने बार-बार लिखा हैं, हर धर्म-संप्रदाय के लिए है। हमारी उपासना-पद्धतियाँ भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, पर जीवन-साधना संयम-साधना, तो सबके लिए एक जैसी ही हैं। फिर उन पर विवाद कैसा? सद्बुद्धि की प्रार्थना तो सभी के लिए की जा सकती है। उसे किसी धर्म विशेष से जोड़कर किसी को क्या मिलेगा? वस्तुतः साधना आँदोलन मानवी व्यक्तित्व के परिष्कार का, तनाव मुक्ति का, जीवन जीने की कला के शिक्षण का आँदोलन है। यह हर विद्यालय, घर-परिवार, कार्यालयों, क्लब-कंपनियों तथा सामाजिक संगठनों में चलना चाहिए। हर व्यक्ति को हर श्वास में साधना (‘द होल लाइफ इन योगा’ श्री अरविंद ) वाले सिद्धाँत को आत्मसात् कराया जाना है। तभी यह भोगवादी तृष्णा, आत्मघाती प्रतिद्वंद्विता मिटेगी। उपभोक्ता प्रधान इस युग में हम सभी से तो अपेक्षा नहीं कर रहे कि वे गाँधी की नकल करें, पर क्या अपव्यय पर रोकथाम लक्ष्मी की आराधना एवं अपने निज नहीं पकड़ सकता। यदि श्रेष्ठ साहित्य का स्वाद जन-जन को बताकर उसकी लत लगाई जा सके तो श्रेष्ठ विचारों का, विधेयात्मक आस्थाओं का साम्राज्य ही छाया दिखाई पड़ेगा।

शिक्षा की वर्तमान नीति ने हमारे देश में ब्रह्मराक्षस अधिक पैदा किए हैं, विनम्र राष्ट्रवादी कार्यकर्ता नगण्य ही। आज शिक्षा की बुनियाद ही गलत है। यह लालच पर, सत्ता के मद पर , अधिक-से-अधिक कमाने की होड़ पर आधारित है, इसके स्थान पर विद्या को प्रतिष्ठित करना होगा।वह विद्या जो मुक्ति की ओर ले जाए, जो अमरत्व का शिक्षण दे। इसके लिए बाल्यकाल से ही संस्कारों की प्रतिष्ठा तथा शिक्षा के साथ विद्या को गूँथकर नैतिकता को पाठ्यक्रम में गूँथकर पढ़ाने की कला शिक्षकों को सिखानी होगी।भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा में जहाँ सारे भारत में उत्साह है एवं पूरे भारत में 23 लाख से अधिक बच्चे बैठे हैं, वहाँ अब उनके परिणाम घोषित होने के साथ ही संस्कृति मंडलों की स्थापना के संकल्प लिए जाने चाहिए। 5 से 1 छात्रों का एक मंडल पूरी कक्षा को संस्कृति प्रधान चिंतन हेतु प्रेरित कर एक युगसाहित्य का पुस्तकालय चला सकता है। क्रमशः यह प्रक्रिया हर कक्षा में दुहराई जा सकती है। देव संस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना के मूल में ही इन छात्रों की परिकल्पना की गई है, जो आगे चलकर लीग से हटकर पढ़ाई जा रही विद्या-विस्तार की नीति में भागीदारी करेंगे।

स्वास्थ्य बढ़ते औषधालयों-चिकित्सकों के बावजूद जर्जर हुआ है।आहार-विहार जीवन शैली के दूषित हों जाने से पूरी तरह गड़बड़ा गया है। इसका परिपूर्ण शिक्षण व बीमार नहीं जाए, ऐसी नौबत न आए यह प्रशिक्षण स्वास्थ्य आँदोलन के अंतर्गत दिया जाना है। पौष्टिक आहार के सरल-सस्ते विकल्प-अंकुरित अन्न एवं खाना पकाने के तरीके में अंतर यह भी शिक्षण का एक अंग है। वनौषधियों के माध्यम से ‘गमलों में स्वास्थ्य ‘ से लेकर घरेलू नुस्खों का वैज्ञानिक प्रतिपादन तथा जीवनशक्ति संवर्द्धन हेतु इनका प्रयोग घर-घर पहुँचाए जाने की आवश्यकता है। इसी निमित्त ‘ जैन स्वास्थ्य संरक्षक’ प्रशिक्षण की योजना केंद्र में बन रही है। इसके अतिरिक्त वैकल्पिक चिकित्सा के सभी उपादानों रेकी, चुँबकीय, प्राकृतिक, वर्ण चिकित्सापद्धतियों, एक्यूप्रेशर आदि का वैज्ञानिक आधार सिद्ध करने का एक व्यापक तंत्र देवसंस्कृति विश्वविद्यालय में खड़ा किया जा रहा है। यह शिक्षण ‘होलिस्टिक मैनेजमेंट’ के स्तर पर जब प्रशिक्षित डॉक्टर्स-वैद्यों को दिया जाएगा तो वे बहुद्देशीय कार्य कर सकेंगे।

आर्थिक स्वावलंबन मिशनरी-कमर्शियल प्रोजेक्ट्स के घर-घर तक विस्तार की योजना पर चलेगा। ऐसे ग्रामोद्योग जो मिशनरी स्तर पर व्यापारिक खपत को देखते हुए समूहों द्वारा तैयार किए जा सकें, लगभग सौ से अधिक तलाश लिए गए है एवं वे कहीं भी, किसी के द्वारा, कभी भी आरंभ किए जा सकते हैं। गौशालाँए बड़े शहरों में बन तो नहीं सकतीं, वहाँ मुहल्लों कह घिचपिच में जगह कहाँ है परंतु शहरी विस्तार एवं ग्रामीण परिवेश में इनका जाल खड़ा किया जा सकता है। यदि गोरक्षा आँदोलन चलना है तो वह गोविज्ञान अनुसंधानशालाओं के गौशालाओं के साथ खलने पर ही चल पाएगा। यहाँ गोमूत्र व गोमय से बनने वाले कीटनाशक, खाद तथा मानव मात्र के लिए उपयोगी संजीवनी औषधियों का तंत्र खड़ा किया जा सकता है। अपने पावन युगतीर्थ आँवलखेड़ा को ग्रामोत्थान के प्रतीक मॉडल के रूप में इसीलिए खड़ा किया जा रहा है।

हरीतिमा संवर्द्धन-पर्यावरण संरक्षण आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। बढ़ते औद्योगीकरण-प्रदूषण ने जनचेतना जगाई है। शहरों का विकेंद्रीकरण एवं बढ़ता हरीतिमा कवच यही एकमात्र विकल्प है, जिससे धरती को जलप्राय से रोका जा सकता है। वृक्षों के कटने से हजार वर्षों में बनने वाली एक सेंटीमीटर की उपजाऊ मिट्टी समुद्र के गर्भ में समा रही है। जिस तरह अपनो बच्चों को हम पालते हैं, ठीक उसी तरह वृक्षों को लगाना, उनका पालन-पोषण करना हमें सीखना-सिखाना होगा। सूक्ष्म पर्यावरण के संरक्षण-संवर्द्धन हेतु भी हमें सामूहिक-साधनात्मक उपचारों को बढ़ाना होगा।

नारी संवेदना की प्रतीक है एवं पर्यावरण तथा भूमि के साथ उसका भी शोषण होता रहा है नारी की अवमानना ने ही धरती पर नरक की स्थिति पैदा की है। नारी शिक्षा , स्वास्थ्य, स्वावलंबन, सुसंस्कारिता, सुरक्षा एवं सहभागिता के क्षेत्र में नारी को ही स्वयं बढ़-चढ़कर आगे आना होगा एवं अपना स्थान स्थापित करना होगा। विगत वर्ष केंद्र से तीन दल भारत भर में गए व इन ब्रह्मवादिनी बहनों ने नारी शक्ति में अलख जगाया। अब जनपद स्तर पर हर वर्ग की बहनों को एकजुट हों व्यापक प्रशिक्षण चलाना होगा, ताकि एक दशक में हम नारी को नेतृत्व करता देख सकें।

कुरीतियों में दहेज, शादियों में अपव्यय तथा सामाजिक रूढ़िवादिताओं के खिलाफ वातावरण बनना तथा दुर्व्यसनों से मुक्ति हेतु संघर्ष छेड़ना समय की महती आवश्यकता है।दहेज व खरचीली शादी सारे समाज को दरिद्र-बेईमान बना रही हैं तथा दुर्व्यसन राष्ट्र की हर पीढ़ी के स्वास्थ्य व समृद्धि को जर्जर बना रहे है। युवा पीढ़ी एवं नारीशक्ति दोनों इस आँदोलन को हाथ में लेकर रैली-प्रदर्शनी जन-जागरुकता अभियान, असहयोग आदि का सहारा लेकर गति दें।

इस संगठन वर्ष में यदि उपर्युक्त छह में से एक आँदोलन भी विभिन्न समूहों ने गति देकर आगे बढ़ा दिया तो 24 तक परिवर्तन दिखाई देने लगेगा। सातवाँ साधना आँदोलन तो प्रत्येक की धुरी में समाया हुआ है ही सद्भावनाओं का साम्राज्य निश्चित ही स्थापित होगा एवं भारत पुनः जगद्गुरु बनेगा, ऐसा हम सभी का अपनी गुरुसत्ता की ही तरह दृढ़ विश्वास है।


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