माँ की कृपा से क्या कुछ संभव नहीं

January 2002

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‘चने ले लो, चने-भुने हुए चने, मसालेदार चने।’ यह आवाज अनगिन लोगों को चने के चटपटे पन का अहसास करा देती। पर इसमें जो टीस थी, जो दर्द था, जो विकलता थी, उसका अहसास कुछ इने-गिनों को ही था। स्कूल से आते ही अनिरुद्ध बिना कुछ खाए डोलची में चने रखकर बेचने के लिए चल पड़ता। चने बेचते हुए वह अपनी पढ़ाई की बातें भी सोचता रहता।

अनिरुद्ध के पिता रघुवीर स्वदेशी कॉटन मिल में काम करते थे, लेकिन मिल की छटनी में उन्हें निकाल दिया गया। अब वह बेकार थे, काम की तलाश में बस मारे-मारे घूमते थे। घर की हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी। दो समय की रूखी रोटियाँ मुश्किल हो रही थी। अब केवल अनिरुद्ध की माँ शकुन्तला की मेहनत-मजदूरी का सहारा था। वह कुछ सम्पन्न घरों में झाड़ू-चौका, बर्तन का काम करती थी। उधर अनिरुद्ध भी रोज चने बेच लेता। इस तरह जिस किसी तरह का घर का काम चल रहा था।

शकुन्तला को हर समय अनिरुद्ध की पढ़ाई की चिन्ता खाये रहती। किसी तरह अनिरुद्ध ने भी परिस्थितियों से जूझते हुए हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास कर ली। उसे अब ग्यारहवीं दर्जे में दाखिल लेना था, लेकिन उसके पास दाखिले की फीस के लिए रुपये नहीं थे। शकुन्तला बहुत परेशान थी, अनिरुद्ध भी रुआँसा था। ऐसे में शकुन्तला को मैनेजर साहब की पत्नी-अपनी मालकिन की याद आयी। वह सुबह ही उनके घर निकल गयी।

अनिरुद्ध इस आशा में साँस रोके बैठा था कि माँ की बात मालकिन कभी नहीं टालेंगी। उसके एडमीशन की फीस की व्यवस्था वहाँ जरूर हो जाएगी। क्योंकि उसकी माँ ने हर मुसीबत एवं परेशानी उठाकर उनकी भारी सेवा की थी।

अनिरुद्ध घर के दरवाजे पर खड़ा बहुत बेचैनी से अपनी माँ का इन्तजार कर रहा था। जब उसने माँ को आते हुए देखा तो उसे कुछ तसल्ली हुई, लेकिन उसने जब माँ को गौर से देखा तो उसकी परेशानी और बढ़ गयी। माँ के चेहरा बुझा-बुझा था। उदासी की काली झाँयीं उसके चेहरे को ढके थे। आते ही सीधे बिना उसकी ओर देखे भीतर चली गयी और चटाई पर धम्म से बैठ गयी। ऐसा लग रहा था कि जैसे उसके शरीर का पूरा खून किसी ने निचोड़ लिया हो। अनिरुद्ध की हिम्मत नहीं हुई कि माँ से कुछ पूछे। फिर भी सहमते हुए उसने माँ से पूछा, माँ तुम्हारी तबियत तो ठीक है?

‘हार गयी बेटा मैं’ माँ ने आँसू पोछते हुए कहा-’मालकिन साफ मुकर गयीं। उन पर मुझे पूरा भरोसा था, पर वह मेरी बात सुनते ही अपना खुद का रोना लेकर बैठ गयी। कुछ जगहों पर और भी कोशिश की, पर कोई बात नहीं बनी। बड़े लोग हैं, जब जैसी मर्जी आए बोलने के लिए स्वतंत्र हैं। क्या करूं? कुछ समझ में नहीं आता मुझे माफ कर दो बेटा।’

आज एडमीशन का आखिरी दिन था। और अभी तक फीस के अभाव में अनिरुद्ध का दाखिला नहीं हो सका था। माँ-बेटा दोनों ही इसी सोच में उदास बैठे थे। तभी उधर से अनिरुद्ध के शिक्षक रामशरण निकले। वे अनिरुद्ध के पास आकर बोले-क्या बात है अनिरुद्ध तुमने अभी कॉलेज जाना शुरू नहीं किया?

अनिरुद्ध ने उठकर अपने मास्टरजी के पाँव छुए और रुंधे गले से कहा,कॉलेज कैसे जाएँ, मेरा तो दाखिला ही नहीं हुआ। इसके बाद की सारी कहानी माँ-बेटे के चेहरे ने कह सुनायी। जिसे रामशरण जी मौन भाव से समझ गए। सारी स्थिति को अनुभव करके उन्होंने कहा-परेशान न हो बेटे, हम तुम्हारी व्यवस्था करेंगे और साथ ही तुम्हें उसे महाशक्ति से भी परिचय करायेंगे जिसके स्मरण मात्र से जीवन के सारे दुःख दूर होते हैं।

श्री रामशरण जी गायत्री के साधक थे। गायत्री महामंत्र उनके जीवन का प्राण था। पर वे अपनी साधना बड़े ही गोपन भाव से करते थे। किसी को भी उनकी इस गहन साधना का अहसास था, पर आज उन्होंने अनिरुद्ध के सामने अपनी साधना का रहस्य सविधि समझा दिया। सूर्यमंडल में स्थिति गायत्री महाशक्ति का ध्यान चौबीस अक्षरों वाले गायत्री महामंत्र की जप विधि उन्होंने अनिरुद्ध को कह सुनायी। साथ ही उन्होंने बताया कि बेटा अनिरुद्ध-तप के बिना जप कुछ ऐसा है जैसे गर्मी से रहित अग्नि। जप के साथ जब तक तप की प्रक्रिया का योग नहीं होता, तब तक जप का प्रभाव नहीं होता।

और इसी के साथ उन्होंने उसे तप के चार सूत्रों का उपदेश दिया। उन्होंने कहा, अनिरुद्ध तप के चार सूत्र हैं-1. अर्थ संयम 2. समय संयम 3. इन्द्रिय संयम 4. विचार संयम। इस चतुः सूत्री साधना के साथ की गयी गायत्री उपासना सारे असंभव को संभव बनाने में सक्षम एवं समर्थ है। तुम समूचे विश्वास के साथ आदि शक्ति माता गायत्री का आँचल थाम लो। माँ कृपा से तुम्हारी सारी पीड़ाएँ दूर होंगी।

ये सारी बातें बताकर उन्होंने उसी दिन अनिरुद्ध का कॉलेज में दाखिला करवा दिया। उसकी पुस्तकों एवं अन्य अध्ययन सामग्री का प्रबन्ध किया। अन्य चीजों के लिए मास्टर जी ने आश्वासन दिया-कोई भी दिक्कत हो तो मुझे बताना। और कभी-भी हिम्मत मत हारना। हमेशा ही महायोगी श्री अरविन्द के इस वचन को याद रखना- Every thing can be possible if God touch is there. अर्थात्-यदि प्रभु का संस्पर्श बद्ध हो तो सब कुछ सम्भव है।

अनिरुद्ध ने मास्टर जी के पाँव छुए और जीवन साधना की राह पर चल दिया। मास्टर जी ने उसकी पढ़ाई का पहिया तो चला दिया था, लेकिन घर का पहिया अभी तक दलदल में फँसा था। इस कारण अनिरुद्ध को चने बेचने का काम लगातार करना पड़ता था। अपनी चतुः सूत्री साधना के साथ प्रति मास सवा लक्ष गायत्री महामंत्र के अनुष्ठान के साथ वह पढ़ाई की लालटेन को जलाए रखता। उसे मास्टर जी के द्वारा कहा गया महर्षि अरविन्द का वचन-यदि प्रभु का संस्पर्शबद्ध हो तो सब कुछ संभव है, हमेशा याद रहता। इसलिए चने बेचने की थकान के बावजूद वह अपनी साधना एवं अध्ययन को कभी नहीं भूलता।

गायत्री महामंत्र की सविधि उपासना से उसकी मेधा तीव्र से तीव्रतर और तीव्रतम हो गयी। तमाम परेशानियों के बावजूद उसने इण्टर फिर बी.ए. किया। इन्हीं झंझावातों में एक दिन उसने एम. ए. की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली।

शकुन्तला के मुख पर इस खबर ने एक अनोखी आभा ला दी। उसकी आँखें खुशी से छलक पड़ी। माँ की आँखों में आँसू आया हुआ देखकर वह बोला-माँ अब चिन्ता क्यों करती हो? चाहे जैसे भी हो मुझे आइ.ए.एस. की परीक्षा पास करनी है।

माँ गायत्री सब सम्भव करेंगी बेटा! माँ के आँचल की छाया में तू जरूर आई.ए.एस. बनेगा।

अपने असीम भगवद् विश्वास के साथ वह तैयारियों में जुट गया। साथ ही अपने लिए एक छोटी सी फर्म में क्लर्क की नौकरी की व्यवस्था भी जुटायी, ताकि माँ का काम छुड़ाया जा सके।

अनिरुद्ध को अब तक पीड़ा सहने की आदत पड़ चुकी थी। उसने पीड़ा को भी तप का एक साधन मान लिया था। उसे इस तथ्य पर पूर्ण विश्वास था कि भगवद् कृपा एवं पुरुषार्थ का संयोग असम्भव को भी संभव किया करता है। अपने निश्चय पर अडिग वह आई.ए.एस. की तैयारियों में जुट गया, हाँलाकि इन दिनों उसकी माँ का स्वास्थ्य खराब था। अभाव और संघर्ष ने उसे तोड़ दिया था। भीतर ही भीतर घुलते रहने के कारण उसके शरीर में घुन सा लगा गया था। अब उसे ज्यादातर खाँसी आती रहती और बुखार बना रहता।

आई.ए.एस. की मुख्य परीक्षा के लिए उस दिन अनिरुद्ध अभी तैयार ही हो रहा था कि उसकी माँ को खाँसी का इतना जबर्दस्त दौरा पड़ा कि खाँसते-खाँसते उसके मुँह से खून भी निकल पड़ा। इसी के साथ वह बेहोश हो गयी। हे माँ गायत्री! यह कैसी विपदा आन पड़ी। अनिरुद्ध को घबराहट में गायत्री महामंत्र के अलावा और कुछ न सूझ पड़ा। उसके होंठ अस्फुट स्वरों में गायत्री जप रहे थे और मन जगन्माता से प्रार्थना करने में तल्लीन था। इसे माँ गायत्री की कृपा कहें या अनिरुद्ध की अगाध श्रद्धा का सजीव चमत्कार माँ को होश आ गया। लेकिन उसकी हालत अभी कुछ ज्यादा ठीक न थी। वह ऊहापोह में था कि परीक्षा के लिए जाय अथवा नहीं।

इस सोच-विचार में उसके माथे पर चिन्ता की लकीरें गहरी हो गयीं। इस समय वह बहुत से बेचैनी और घबराहट का अनुभव कर रहा था। लगता था कि उसकी सारी उम्मीदों पर पानी फिर जाएगा।

तभी शकुन्तला ने आँखें खोल दी, सामने परेशान खड़े अनिरुद्ध को देखकर उन्होंने क्षीण स्वर में कहा-बेटा अनिरुद्ध! आज तुम्हारी परीक्षा का दिन है, तुम गए क्यों नहीं? तुम जाओ मैं यहाँ ठीक हूँ।

पर माँ! तुम्हें इस हालत में छोड़कर भला मैं कैसे जाऊँ? अनिरुद्ध ने बेचैनी भरे लहजे में कहा-फिर मेरा मन भी ऐसे में किस तरह लगेगा?

माँ के होठों पर क्षीण सी मुस्कराहट आयी और वे बोली-पगले! जगज्जननी माँ गायत्री की कृपा पर इतना अविश्वास नहीं करते। मुझे कुछ नहीं होगा, माँ पर श्रद्धा रख।

गायत्री महामंत्र ने उसे इन क्षणों में प्राणों का नया अनुदान दिया। और वह श्रद्धा से मन ही मन गायत्री महामंत्र जपता हुआ परीक्षा देने जाने के लिए राजी हो गया।

परीक्षा के पश्चात् उसने जी जान लगाकर माँ की सेवा की। और सेवा की रंगत माँ के जीवन में साफ-साफ दिखने लगी। चिकित्सक की सहायता अनिरुद्ध की सेवा और माँ गायत्री कृपा से शकुन्तला ठीक हो गयी। हाँलाकि इस क्रम में महीनों गुजर गए।

तभी एक दिन उसके मित्र संजीव ने उसके दरवाजे पर दस्तक दी। संजीव की खुशी उसके चेहरे पर साफ-साफ झलक रही थी। उसने अनिरुद्ध को गले से लगाते हुए बधाई दी-अरे भाई अब तुम चने वाले अनिरुद्ध से आई.ए.एस. हो गए। मेरी बहुत-बहुत बधाई स्वीकार करो।

सच मैं पास हो गया। अनिरुद्ध को एकबारगी विश्वास ही नहीं हो रहा था। संजीव ने जब समाचार पत्र दिखाया तो उसे यथार्थ का ज्ञान हुआ। इस सफलता के समाचार ने उसकी आँखों में आँसू भर दिए। इन आँसुओं में श्रद्धा-कृतज्ञता एवं खुशी एक साथ छलक रही थी। उसने भाव भरे स्वर में कहा-यह सब माँ गायत्री की कृपा, मेरी माँ की तपस्या, पिता जी के आशीष एवं मेरे शिक्षक श्रीरामशरण जी की प्रेरणा का फल है।

अभी वह इतना कह ही रहा था कि उसके सामने मास्टर रामशरण जी को खड़ा पाया। उन्होंने अनिरुद्ध से गदगद होकर कहा-बेटा ध्यान रखना यह तुम्हारी गायत्री साधना के सुफल की शुरुआत है। माँ अपने साधकों को लौकिक यश-ऐश्वर्य-अलौकिक शान्ति सब कुछ देकर निहाल करती है। तभी तो गायत्री साधना की परिणति बताते हुए अथर्ववेद में कहा गया है-’ॐ स्तुता मया वरदा वेदमाता, प्रचोदयन्ताम् पावमानी द्विजानाम् आयुः प्राणं प्रजाँ पशुँ कीर्तिम् द्रविणम् ब्रह्मवर्चसम् मह्यम् दत्वा ब्रजत ब्रह्मलोकम्।’ मास्टर रामशरण जी उसे गायत्री की अगाध महिमा का बोध कराकर चले गए। और अनिरुद्ध इस महामंत्र के गहन चिन्तन में लीन हो गया।


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