जीवन सार्थक बनेगा संगीत से

January 2002

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

संगीत के कोमल स्पर्श से मन प्रसन्न हो उठता है तथा अन्तर आनन्दित। यह एक दिव्य अनुभव है, जिसमें द्वारा आन्तरिक गुप्त शक्तियों का विकास होता है। संगीत मनोरंजन का साधन भी है और मन की व्याधियों को ठीक करने का माध्यम भी। इसका प्रभाव बड़ा व्यापक होता है।

संगीत की विद्या अत्यन्त प्राचीन है। आर्ष ग्रंथों में यह नाद के रूप में प्रतिपादित हुआ है। नद् धातु से उत्पन्न शब्द नाद का अर्थ है अनाहत ध्वनि। इसलिए किन्हीं दो वस्तुओं के टकराने से जो ध्वनि उत्पन्न होती है उसे आहत ध्वनि कहते हैं। बिना किसी आघात या टक्कर के दिव्य प्रकृति के गर्भ से जो ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें अनाहत कहते हैं। अनहद नाद दस प्रकार का माना गया है। इसके हरेक प्रकार के नाद में विशेष तरह की ध्वनियाँ निकलती हैं।

संहारक अनहद नाद से पायजेब की झंकार के समान स्वर तरंग उठती है। पालक नाद सागर की लहरों जैसी होता है। मृदंग की आवाज सृजक नाद की पहचान है। शंख की आवाज सहस्रदल नाद का प्रतीक है। आनन्द मण्डल में तुरही सदृश्य स्वर लहरी निकलती है। इस प्रकार चिदानंद में मुरली की, सच्चिदानन्द नाद में बीन सी, अखण्ड में सिंह गर्जन की, अगम में नफीरी की तथा अलख रूपी अनहद नाद में बुलबुल सा सुरीला स्वर निकलता है। ये अनहद नाद प्रकृति के अन्तराल से निरन्तर प्रवाहित होता रहता है, जिसे उच्च आध्यात्मिक मनोभूमि सम्पन्न साधक अनुभव कर सकते हैं।

इसी नाद ब्रह्म की अनुभूति संगीत द्वारा भी सम्भव हो सकती है। संगीत रत्नाकर में शारंगदेव ने इसकी पुष्टि की है। ऋषियों ने इसे दिव्य एवं पवित्र साधन माना है। इसलिए विख्यात संगीतकार पण्डित रविशंकर कह उठते हैं- कि संगीत के सोपान से ईश्वर तक पहुँचा जा सकता है। महान् कवि रवीन्द्रनाथ ने इसे अलौकिक शक्ति के रूप में प्रतिपादित किया है। वह कहते हैं कि संगीत ईश्वरीय अनुदान है जो विश्व के कण-कण में समाया हुआ है। बस अपनी अनुभव क्षमता को बढ़ाकर इसका आनन्द लिया जा सकता है।

विश्व रचना का मूल स्वर संगीत ही है। अपने कथन को बड़े रोचक ढंग से विश्लेषित करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि समष्टि जगत् का यह छन्द और ताल, व्यष्टि जगत् में जीवन के अनेक रूपों में प्रकट हो रहा है। संगीत वस्तुतः जीवनधारा है। जहाँ कहीं जड़ता, हताशा, निराशा है, वह इस विराट् जीवनधारा से अलग होने का परिणाम है। और इसीलिए मूल सृष्टि धारा से अनुकूल चलने वाली संगीत धारा से विमुख है। व्यक्ति में प्रकट होने वाला मोहक संगीत समष्टिगत जीवन प्रवाह के अनुकूल होने के कारण ही रमणीय है। इसी कारण यह समस्त मानवी मनोविकारों को विनष्ट कर देता है और जीवन में नवीन स्फूर्ति एवं चेतना का आविर्भाव करता है।

संगीत की स्वर लहरी से गाँधीजी भी प्रभावित थे। इसकी आकर्षण शक्ति का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा है कि सुन्दर गायन द्वारा मुझे क्रोध पर नियंत्रण करने की शक्ति तथा अपूर्व शान्ति प्राप्त हुई है। उनके विचार से दिव्य संगीत हृदय पर अमिट छाप छोड़ता है। यह रूखे मनुष्य को संवेदनशील बना देता है। इसलिए ‘स्पिरिट ऑफ म्यूजिक’ में अर्नेस्ट हण्ट ने उल्लेख किया है कि संगीत सूक्ष्म अंतःवृत्तियों के उद्घाटन का सबल माध्यम है।

संगीत का स्वर उत्तप्त हृदय में आनन्द का उद्रेक करता है। इस तथ्य की पुष्टि करते हुए ही व्रलस योम कहती हैं कि संगीत जीवन को अनुप्राणित करता है। यह जीवन की समस्त निर्जीव शक्तियों को विनष्ट कर आशा, उत्साह एवं उमंग की सृष्टि करता है। यह एक ऐसा सृजनात्मक साधन है जो जीवन को मंगलमय एवं स्वर्णिम बना देता है। संगीत की इस विशेषता के कारण मार्टिन लूथर की भावाभिव्यक्ति इस प्रकार है-कि ‘संगीत मनुष्य को दयालु एवं बुद्धिमान बनाता है। यह ईश्वर की वह अनुकृति है जो मनुष्य के कष्टों को दूर कर उन्हें शान्ति पहुँचाती है।’ फ्रेडरिक ने तो यहाँ तक कह दिया है कि संगीत के कारण ही जीवन की सार्थकता है।

यह सुनिश्चित तथ्य है कि संगीत के प्रभाव से मानसिक विकार दूर होते हैं तथा शान्ति मिलती है। चिकित्साशास्त्रियों के अनुसार यह शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी लाभप्रद सिद्ध हो रहा है। इसी वजह से आज संगीत एक उपचार की पद्धति बन गई है। जो पाश्चात्य जगत् में म्यूजिक थेरेपी के रूप में प्रचलित एवं लोकप्रिय हो रही है। अपने देश में भी इसका प्रचलन होने लगा है। यहाँ पर विशुद्ध भारतीय राग से रोगों का उपचार किया जा रहा है। जिस प्रकार दीपक राग से दीप जलने की एवं मेघ मल्हार द्वारा वर्षा होने की घटना प्रसिद्ध है उसी प्रकार अनेक राग ऐसे भी है, जिससे मानसिक शान्ति एवं आरोग्य का लाभ लिया जा सकता है। आवश्यकता है ऐसे रागों की पहचान एवं उसका उचित प्रयोग।

इस संदर्भ में सितारवादक पण्डित शशाँक कट्टी का प्रयोग बड़ा ही उपलब्धिजनक रहा है। वह सितार द्वारा एक विशेष राग को रोगी को सुनाते हैं। रोगी इसे सुनकर काफी राहत महसूस करता है। भिन्न-भिन्न रोग के लिए अलग-अलग रागों का प्रयोग किया जाता है। मुम्बई के प्रसिद्ध सरोदवादक विवेक जोशी ने भी ऐसा ही कुछ शोध-अनुसंधान किया है। यह इस थेरेपी की सफलता पर आशान्वित होकर कहते हैं कि संगीत मानसिक उत्तेजना को शान्त करता है। और यह इस तथ्य का द्योतक है कि रोगी पर इसका प्रभाव पड़ रहा है।

म्यूजिक थेरेपी के सफल प्रायोगिक निष्कर्ष से प्रेरित डॉ. अनिल पाटिल की मान्यता है कि राग से व्यक्ति को प्रभावित किया जा सकता है। जब सपेरा अपनी बीन की मोहक धुन से साँप जैसी विषैले जीव को झूमने के लिए विवश कर सकता है तो क्यों भला शारीरिक स्वास्थ्य पर इसका प्रकार नहीं पड़ सकता। इसी मान्यता से उत्साहित डॉ. रोगी के प्रारम्भिक जाँच पड़ताल के बाद उसकी पसंद के अनुरूप राग सुनाते हैं तथा इसकी सी डी तथा कैसेट उपलब्ध कराते हैं। अपने शोध अनुभव के आधार पर वह कहते हैं कि विलम्बित रागों का प्रयोग प्रतिक्रियाशील रोगी पर तथा इसके ठीक विपरीत द्रुत(तीव्र) धुनों को उत्साहहीन व्यक्तियों पर लाभप्रद होता है। अपने प्रयास से उन्होंने जैज सरीखी पाश्चात्य धुनों को भी उपचार योग्य बना दिया है।

संगीत का प्रभाव असाध्य रोगों पर भी हो सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में पश्चिमी दुनिया में विख्यात नैशविले अस्पताल में विख्यात गायक जॉन रिची के संगीत को चुना गया है। इस धुन को एक सत्तरह वर्षीया किशोरी केटी को प्रतिदिन प्रातः सुनाया जाता है। हालाँकि इस शोध का कोई निष्कर्ष तो अभी नहीं मिल पाया है, परन्तु इसका प्रारम्भिक परिणाम काफी आशानुकूल हैं।

संगीत के जादुई स्वरों में न केवल मनुष्य स्वस्थ-प्रसन्न होता है बल्कि जानवर भी इससे अनछुए नहीं रहते। उन पर भी संगीत का असर दिखाई देता है। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर की मान्यता है कि काफी राग के कोमल स्वरों से जानवर मस्त हो जाते हैं। उस समय उनकी चंचलता एवं चपलता देखने लायक होती है। अली खाँ के शिष्य चुन्नाजी तो अपने प्रयोगों में इससे एक कदम और आगे हैं। आस्ट्रेलिया की श्रीमती दिवाना शोल्ड के संगीत प्रयोग चमत्कारिक है। वह घने जंगलों में चली जाती हैं और संगीत से जंगली एवं अड़ियल घोड़ों को अपने वश में कर लेती हैं। प्रयोगों के इस क्रम में यूरोप में गायों को धीमे-धीमे धुन सुनायी गयी। इससे उनके दूध देने की क्षमता में वृद्धि हो गयी।

संगीत के सतरंगी स्वरों में मनुष्य एवं अन्य सभी प्राणी भी मदमस्त हो उठते हैं। यह संगीत एक उत्कृष्ट कोटि की कला है। इस कला को अपनाकर अपना जीवन भी संगीतमय हो सकता है। जिसने जीवन रूपी संगीत की कला को सीख लिया उसका समूचा जीवन सफल और सार्थक बने बिना नहीं रहता। ऐसे सार्थक जीवन के हर विचार एवं प्रत्येक कर्म से दिव्य संगीत झरता है। वह स्वयं आनन्दित रहता है और औरों को भी प्रसन्नता लुटाता है। जीवन का यह सुरीली तत्त्व निश्चित ही वरेण्य है, जिसे हर कोई अपनाकर धन्य हो सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118