व्यवहारकुशलता एक पारसमणि के समान

January 2002

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सद्व्यवहार उस पुष्प के समान होता है, जो धवल एवं दृढ़ चरित्र रूपी वृक्ष पर खिलता है। चिन्तन के सुरम्य वातावरण में सुगन्ध बिखेरता है तथा सजल भावनाओं से पोषित होता है। इसीलिए तो दिव्य जीवन के प्रणेता एवं महान् योगी श्री अरविन्द के मन का विचार निसृत हो कह उठा-’इनर रेगुलेट आउटर बीइंग‘ अर्थात् जीवन के समस्त बाहरी क्रिया व्यापार अन्दर से नियंत्रित एवं संचालित होते हैं। निःसंदेह बाह्य व्यवहार आन्तरिक चिन्तन एवं भावनाओं के गर्भ से ही जन्म लेता है, पल्लवित एवं विकसित होता है। व्यवहार विज्ञान इसी सत्य को घोषित करता है।

व्यवहार-शिष्टता, शालीनता, विनम्रता आदि अनेक गुणों का समुच्चय है। जिसमें भी यह अनमोल सम्पदा होगी उसका लोक व्यवहार अवश्य ही उत्कृष्ट होगा। ऐसे व्यवहार कुशल व्यक्ति की सफलता असंदिग्ध होती है। सफलता उसके चरण चूमती है और उसके लिए तो असफलता भी एक सीख होती है क्योंकि इसी से वह अपनी व्यावहारिक कमियों एवं खामियों के प्रति सजग-सतर्क होता है। व्यवहार ही तो है जो अपने को पराया और पराये को अपना कर दिखाने का चमत्कार करता है। मधुर व्यवहार से पशु-पक्षी तक प्रभावित हो जाते हैं, तो फिर इन्सान का दिल क्यों नहीं जीता जा सकता है।

अन्तर की भावना जब प्रस्फुटित होती है तो हृदय मक्खन सा कोमल हो उठता है और वाणी एवं व्यवहार में अमृत झरने लगता है। ऐसी संवेदनशीलता भला कैसे किसी के प्रति कठोर होगी वह तो औरों के हृदय में उतर जाती है और अपना बनाकर ही छोड़ती है। ऐसा शालीन व्यवहार मृदु मंद पवन के झोंके के समान सभी को प्रिय होता है और जब यह ठंडी बयार चलती है तो नदी-नद, झील-सरोवर, खेत-खलिहान झूम उठते हैं। कोपल एवं कलियाँ चटखने लगती हैं। फूलों की मादकता इठलाने लगती है। पक्षी चहचहाने लगते हैं और सभी ओर हरियाली और खुशहाली का दिव्य संगीत झरने लगता है, परन्तु अभद्र और अशिष्ट व्यवहार उस भीषण अंधड़ की तरह होता है जिससे लोग कतराते एवं घबराते हैं। वह तिरस्कृत होता है और अपमान सहता है।

अशिष्टता अनगढ़ता एवं रूखेपन का परिचायक है। इस तरह का व्यक्ति चाहे कितना ही प्रतिभा सम्पन्न क्यों न हो, पर लोक सम्मान अर्जित नहीं कर सकता। लोग इसकी अव्यावहारिकता के कारण उसके पास आने में कतराते हैं। उसके अपने परिजन भी उससे पराये जैसा बर्ताव करते हैं। अपने उद्धत एवं उद्दण्ड व्यवहार से वह अपने और औरों दोनों के लिए ऐसे आत्मघाती विष दंश का निर्माण करता है जिसमें वह खुद जलता है और दूसरों को जलाता है। इससे कड़वाहट ही फैलती है। अतः बुद्धिमानी इसी में है कि ऐसे व्यवहार से परहेज किया जाए और शालीन व्यवहार को अपनाया एवं विकसित किया जाए।

व्यवहार की शालीनता न केवल औरों को प्रसन्न करती है, उसके अधरों में मुस्कान की स्मित रेखा खींचती है, बल्कि स्वयं को भी आनंदित करती है। पारसमणि के अस्तित्व को स्वीकार करें या न करें, परन्तु अपने पास उपलब्ध व्यवहार रूपी पारसमणि से आसपास के सभी लोगों को स्वर्ण मंडित किया जा सकता है अर्थात् अपना बनाया जा सकता है। लौकिक लोक व्यवहार का यह गुप्त रहस्य है, दिव्य मंत्र है जिसे हृदयंगम कर सफलता एवं महानता अर्जित की जा सकती है।

ज्यों-ज्यों अन्तर परिष्कृत होता जाता है उसी के अनुरूप व्यवहार भी उत्कृष्ट होता रहता है। यह तो सीप के मोती के सदृश है जो सागर की गहराई में अवस्थित होता है। गहराई में डुबकी लगाकर ही यह हस्तगत होता है। इसी प्रकार व्यवहार की सच्चाई उन छोटी-छोटी आदतों-वृत्तियों की सीपियों में बंद पड़ी रहती है जिसे स्वयं के अन्दर प्रवेश करके और साहस के साथ तोड़कर निकाला जाता है। अतः इन छोटी मगर महत्त्वपूर्ण बातों का सतत ध्यान रखना चाहिए।

आदतों एवं वृत्तियों के प्रति सदैव जागरुक रहना चाहिए, ताकि व्यावहारिक धरातल पर कोई व्यक्ति भ्रम न फैला सकें। इससे व्यवहार कुशलता का बड़ा घनिष्ठ संबंध होता है। ये वृत्तियाँ हमारे व्यवहार को प्रभावित करती हैं। ये बड़ी हठीली होती हैं, परन्तु इन्हें जीता जा सकता है। हाँलाकि ये न चाहते हुए भी ये अपने व्यवहार में आ धमकती हैं और अनचाहे एवं आदतन हम भूल कर बैठते हैं। इसलिए आवश्यक है कि धैर्य एवं संकल्पपूर्वक अपने व्यवहार को शिष्ट एवं शालीन बनाये रखा जाए। हर पल हर क्षण इसमें सुधार लाते रहना चाहिए। व्यवहार को मधुर एवं श्रेष्ठ बनाकर सभी बाधाओं एवं कठिनाइयों पर विजय प्राप्त की जा सकती है।

अच्छा यह है कि हमारे व्यवहार में सदैव बड़ों के प्रति आदर एवं सम्मान का भाव तथा छोटों के प्रति स्नेह झलके। हर व्यक्ति का अपना आत्म सम्मान होता है जो इसे समुचित सम्मान दे सका वही सच्चा व्यवहार कुशल है। जरा सी भी व्यावहारिक त्रुटि अर्थ का अनर्थ कर सकती है। अतः ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि सभी को उसके अनुरूप शिष्टतापूर्वक आदर दिया जाए। अपनी व्यावहारिक भूल को विनम्रता के साथ स्वीकार कर उसके प्रति सजग रहा जाए।

प्रत्येक व्यक्ति के नाम के साथ उसका आत्म सम्मान जुड़ा रहता है। व्यक्ति अपने नाम में स्व बोध का अनुभव करता है। इसमें आत्मीयता तरंगित होती है। यह अन्तर का ऐसा तार है जो मन को गुदगुदाता है, उसे झंकृत करता है। और यही वजह है कि किसी प्रतिष्ठित एवं महान् व्यक्ति के नाम लेकर बुलाने से गहन आत्मीयता का बोध होता है। इसलिए प्रयास यह होना चाहिए कि जिसका नाम लिया जा रहा हो उसके साथ जी का प्रयोग हो। इन्हीं व्यावहारिक सूत्रों में जीवन का मर्म छुपा हुआ है।

संयमित एवं कल्याणकारी वाणी व्यवहार की रीढ़ है। यह मुख्य आधार है। वाणी ब्रह्मास्त्र के समान होती है। यह तरकश से छूटते ही लक्ष्य को भेद जाती है। व्यवहार के समस्त ताने-बाने इसी के इर्द-गिर्द बुने जाते हैं। वाणी द्वारा ही व्यवहार बनता-बिगड़ता है। संयमित वाणी से व्यक्तित्व निखरता है। ऐसे व्यक्तित्व सम्पन्न मनस्वी में महान् आकर्षण होता है। चेतना की परमोच्च अवस्था में जीने वाले विश्वविश्रुत स्वामी विवेकानंद का लोक व्यवहार भी उनकी ही तरह आकर्षक था। हालाँकि ऐसे तपस्वी प्रसिद्ध साधक लोक व्यवहार से काफी ऊँचे उठे हुए रहते हैं, परन्तु स्वामी जी व्यवहार के धनी थे। इसी कारण किसी से न मिलते हुए भी उन्होंने अस्वस्थता की दशा में लोकमान्य तिलक से डेढ़ घण्टे तक आत्मीयता पूर्ण बातें की और इसी व्यवहार का ही परिणाम था कि तिलक के विचारों में व्यापक परिवर्तन हुआ और उसके पश्चात् ही वे राष्ट्र के प्रति पूर्णतया समर्पित हो गये श्री अरविन्द जी का व्यवहार भी बड़ा ही शिष्ट, शालीन एवं सभ्य था।

प्रसिद्ध उपन्यासकार चार्ल्स डिकेन्स अपने मधुर, शालीन व्यवहार के कारण अत्यन्त लोकप्रिय थे। वे किसी से भी खुले दिल से मिलते थे और जहाँ कहीं भी जाते अपने व्यवहार से सभी को मुग्ध कर देते थे। इसी तरह जर्मनी के महाकवि गेटे जो अपने व्यवहार के लिए भी विख्यात थे। उनके शिष्ट, शालीन व्यवहार से लोग बरबस खिंचे चले आते थे। नेपोलियन की धर्मपत्नी जोसेफीन अति व्यवहार कुशल थीं। नेपोलियन योद्धाओं के दिलों में बसते थे तो उसकी पत्नी लोगों के हृदय में।

यही सम्पूर्ण सच है कि सद्व्यवहार हृदय को विशाल बनाता है। जिसमें संवेदना और भावना उफनती रहती है, उसमें ईर्ष्या, द्वेष नहीं होते। यह उमड़ते-घुमड़ते बादल सा होता है। प्यासा देखा कि बरस उठा। जीवन इसी का पर्याय होना चाहिए और व्यवहार इसी के अनुसार। सद्व्यवहार से श्रेय सम्मान, मान प्रतिष्ठ सभी कुछ मिलते हैं। हमें भी चरित्र, चिन्तन को परिष्कृत एवं उन्नत कर सबसे सद्व्यवहार बनाए रखना चाहिए। ऐसा करके हम अपने आप ही सर्वोच्च लोक सम्मान के अधिकारी बन जायेंगे।


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