मिला जीवन का एक सार्थक उद्देश्य

January 2002

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आँसू की बूँद आँखें से ढुलक पड़ी। एकदम पारदर्शी और रंगहीन। पर इस रंगहीन गोल बूँद में उसे कई रंग नजर आए। घूमती हुई गोल दुनिया के अनेकों रंग। वह सोचने लगी कि रंगहीन आँसू की भी कैसी अलग-अलग रंगत है।

सोचते-सोचते अचानक उसके मन में बाईस-तेईस बरस पहले की यादें बरस पड़ी। जब माँ के घर से विदा होते समय ऐसे ही आँसू ढुलके थे। पर तब इन आँसुओं में कुछ और ही रंग था और इन्हें पोंछने वाली माँ की भी दो अंगुलियाँ थीं। आँसुओं की ढुलकती गोल बूँदों को पोछते हुए माँ ने कहा था, बेटी रोती क्यों हो? विवाह के बाद पति ही स्त्री का सब कुछ होता है।

और सचमुच ही उसके पति ऐसे ही थे। उसके सब कुछ। उन्होंने उसे सब कुछ दिया, वह सब कुछ जो वह दे सकते थे। उसके जीवन में तृप्ति के पल आए। तब भी आँखों से आँसू ढुलके थे। हालाँकि इन पलों में उसे जो तृप्ति मिली थी, उसमें कहीं तृष्णा छुपी थी। इसमें कहीं हल्की सी बेचैनी झाँक रही थी।

फिर भी उसे कुछ ऐसा लगा जैसे आसमान का चाँद, मुण्डेर फाँदकर मुस्कराता है। उसके एकान्त में झाँकने की कोशिश करता है, तो टिमटिमाते हैं, फूल खिलते हैं, कलियाँ चटकती हैं, सरसों फूलती हैं। उन दिनों जीवन के अनेक रंग बदले रंगहीन आँसू में भी कई रंग आए। आसमान का चाँद सचमुच ही उसके आँगन में उतरा। पता नहीं यह बात कितनों को सच लगेगी, पर कम से कम उसे तो सच लगी ही। यह उसका अपना सच था।

हालाँकि इसी बीच काल ने अचानक आकर उसके जीवन की पुस्तक के कुछ पृष्ठ पलट दिए। इनकी यादें तो रहीं, पर अब ये कभी फिर न पढ़े न जा सकते थे। उसकी हर मुश्किल में ‘मैं हूँ न!’ कहकर उसे ढाँढस देने वाले उसके पति न रहे। ऐसे में एक बारगी उसकी आँखें फिर छलकीं, फिर इनसे आँसू की बूंदें ढुलकीं। इस बार इनमें कुछ और ही रंग था। रंगहीन आँसुओं के इस रंग में कुछ ऐसा तीखापन था, उसके कलेजे को बेध गया।

पर उसने धैर्य रखा। आखिर अभी भी उसकी गोद में वह चाँद था, जिसने उसे आसमान से उतरते हुए महसूस किया था। उसे गोदी में भरके लगता कि हाँ वह है। यह आज नहीं तो कल आँसू पोंछेगा। उसे कलेजे से लगाकर थपक देती, तो जी को चैन पड़ता। सहारा वह देती, पर मन को कैसा सहारा सा मिल पाता। वह चलना सीखता, पैयाँ-पैयाँ, डगमग-डगमग, अंगुली पकड़ कर हर कदम पर चाहता कि माँ कहे कि आ-जा-मे-रा-बे-टा-आ-जा। वह कहती भी। वह दो-चार कदम चल हुमककर गोद में चढ़ जाता। लाड़-दुलार-प्यार-मनुहार उसे सब कुछ मिलता। दो थपकी देते ही उसके कंधे से लग कर सो जाता।

पाँव सम्हलने लगे तो वह अंगुली छुड़ाकर भागने लगा। इस तरह उसे भागते देखकर माँ-बेटा दोनों खुश होते। बेटा सोचता कि अब वह बड़ा हो गया और माँ सोचती उसका बेटा है। लेकिन तब उसने यह नहीं सोचा था कि अपने नन्हें पावों से भागने वाला उसका यह बेटा इतनी दूर भाग जाएगा, कि उसे न तो वह दौड़कर पकड़ सकेगी और न ही उसे बुला सकेगी।

पर काल की सोच कुछ अलग ही होती है। इस बार काल ने उसके जीवन की पुस्तक के पन्ने फिर से उलट दिए। पता नहीं आखिर उसे कौन सी जल्दी थी। उसकी आँखों से उनका नन्हा बेटा दूर चला गया। दूर-बहुत-दूर किसी अनजानी डगर पर। उसे ऐसा लगा कि उसकी गोद का चाँद फिर से आसमान का चाँद हो गया।

उसका घर जो उपवन हुआ था, अब सूखी झाड़ी बन गया। उसकी साँझें सूनी हो गयी और रातें अंधेरी। फिर अश्रु ढरे, इनकी रंगत उसे भायी- न सुहायी।

इस बीच उसके गाँव में गाँधी बाबा आए। बड़ा नाम सुना था उसने उनका। सुन रखा था कि बड़े महात्मा हैं, अनेकों लोग उनको पूजते थे। सब कुछ सुनकर उसने सोचा वह भी उनके दर्शन के लिए जाएगी। महात्माओं के दर्शन से पुण्य मिलता है। फिर हो सकता है कि गाँधी बाबा उसे भी कुछ बात बताएँ- राह दिखाएँ। और फिर ये भी तो हो सकता है कि कोई चमत्कार ही हो जाए। आखिर महात्मा चमत्कार भी तो करते हैं। कुछ ऐसा चमत्कार कि उसकी अंधेरी रातों में चाँदनी बरस पड़े।

अनेकों अरमानों को सजाकर- आशाओं को संजों कर, कल्पनाओं को संवारकर, भावनाओं को निखारकर वह वहाँ गयी। जहाँ गाँधी बाबा की सभा थी। छोटे से गाँव में भला सभा होती ही कितनी बड़ी। बड़ी तो थी गाँधी बाबा की बातें। ऐसी बातें जिन्हें सुनकर कलेजा हुलस जाता। सचमुच ही ये बातें ऐसी थी जिससे एक इन्सान तो क्या सारे गाँव और गाँव से भी बढ़कर सारे देश का जीवन संवर जाए।

वह भी इन बातों को सुनती-गुनती रही। और अन्त में गाँव के बड़े-बुजुर्गों की कृपा से गाँधी बाबा से मिली भी। एक बुजुर्ग ने उसका परिचय कराते हुए कहा- महात्मा जी! यह निर्मला है- हमारे गाँव की बहू- बेचारी का सब कुछ छिन गया। पहले पति फिर बेटा! उसकी सारी कथा का सार कह सुनाया।

गाँधी बाबा यह सब सुनते रहे- सोचते रहे। और जब गाँव के वह बुजुर्ग सज्जन चुप हो गए तो उन्होंने कहा- बेटी! भगवान् कभी निर्दयी नहीं होता। वह कुछ और ज्यादा देने के लिए कुछ थोड़ा सा छीन लेता है। अब से तुम सारे गाँव को अपना घर मानो। और यहाँ के बच्चों को शिक्षा दो- संस्कार दो।

अरे हाँ! यह तो उसने सोचा ही नहीं था। कितनी मीठी बात कही गाँधी बाबा ने। फिर उन्होंने यह भी तो कहा कि तुम मेरी अपनी बेटी हो, यदि कोई बात हो तो साबरमती आश्रम में मुझे पत्र लिखना। इन बातों ने उसे नए प्राण दिए- नया जीवन दिया।

गाँव के लोगों ने भी गाँधी बाबा की बातें सुनी थी। सभी की चाहत थी कि गाँव के बच्चों के लिए कुछ हो। उनके गाँव में भी बाल संस्कारशाला बने। जब निर्मला स्वयं इस काम के लिए आगे बढ़ी, तो सभी का सहयोग उमड़ पड़ा। उसका श्रम एवं सबका सहयोग। तिनके-तिनके करके आशियाना बनता है, ईंट-ईंट जुड़ती हैं तो महल बन जाता है। कुछ ऐसे ही उसके गाँव में बाल संस्कारशाला भी बन गयी।

गाँव के छोटे-छोटे बालक-बालिकाएँ उसके घर-आँगन में आने लगे। क्योंकि उसने अपने घर को ही बाल संस्कारशाला का रूप दे दिया था। ये सब बच्चे मिलकर पढ़ते-सीखते, गाते-गुनगुनाते, खेलते-दौड़ते-भागते, इसे देखकर उसका मन अनोखी तृप्ति से भर उठता। कभी जब उसका नन्हा-मुन्ना जन्मा था, तो उसने सोचा था कि आसमान से चाँद उतर आया। पर आज तो अनगिन चाँद उसके आँगन में अपनी चाँदनी बिखेर रहे थे। उसे लग रहा था कि घर-आँगन में ही नहीं, उसके मन के हर कोने में चाँदनी बरस रही है। इस अनोखी-अनूठी बरसात से उसके मन के हर कोने में उजाला हो रहा था। समाँ कुछ ऐसा था कि उसकी आँखें भी बरस पड़ी। एक के बाद एक आँसू की बूँद आँखों से ढुलक पड़ी। इस रंगहीन गोल बूँद में उसे जो कई रंग का नजारा दिखा उसमें भगवान् की कृपा थी- मनुष्य का पुरुषार्थ था, सेवा की भावना थी, क्षुद्र अहंता से छुटकारा था, बच्चों में थिरकती उमंगे थीं, सच्ची सेवा के परिणाम में उपजा अटूट जन सहयोग था और सबसे बढ़कर मन को मिलने वाली अनूठी तृप्ति थी। इन सात रंगों की इंद्रधनुषी छटा उसके इन आँसुओं से छलक रही थी-झलक रही थी।


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