अभिशप्त तापमान ला रहा है जल प्रलय

January 2002

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

इन दिनों वैज्ञानिक धरती के बढ़ते तापमान से चिन्तित है। उन्होंने अपने वैज्ञानिक भाषा में इस समस्या को ग्लोबल वार्मिंग नाम दिया है। इन दिनों यह दानवी विपदा समूचे संसार एवं मानव जाति के लिए विप्लवकारी सिद्ध हो रही है। इसकी वजह से जलवायु एवं मौसम में भयंकर उथल-पुथल मची हुई है। उसके परिणामस्वरूप ग्लेशियर पिघल रहे हैं। सर्दियों में गर्मी एवं ग्रीष्म में प्रलयंकारी बारिश का प्रकोप झेलना पड़ रहा है। असमय मौसम के इस बदलाव से छोटे-बड़े जीव-जंतुओं से लेकर पेड़-पौधे सभी प्रभावित हुए बिना नहीं रह पा रहे हैं।

इस ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती के तापमान में अतिशय वृद्धि हो रही है। यह वृद्धि पूरे पृथ्वी के लिए अति खतरनाक सिद्ध हो सकती है। वैज्ञानिकों को आशंका है कि यह परमाणु युद्ध या धरती से एस्टेरायड (क्षुद्र ग्रह) का टकराने जितनी तबाही मचा सकती है। ग्लोबल वार्मिंग इन दिनों संसार में अपना प्रभाव दिखाने लगी है। यही वजह है कि हमारे देश में सन् 1998 पिछले पचास वर्षों में सर्वाधिक गर्म वर्ष रहा। इसी साल में 26 दिन तक चली भीषण लू ने देश में लगभग 2500 लोगों की जान ले ली। यह गर्मी न केवल अपने देश में पड़ी बल्कि पूरे विश्व में इसका असर देखा गया। यह धरती के मौसमी इतिहास की सबसे अधिक तेज गर्मी थी। इस दौरान चली लू ने देश के उत्तर और पश्चिमी क्षेत्रों के अलावा अप्रत्याशित रूप से कर्नाटक और तमिलनाडु को भी अपनी चपेट में ले लिया। लू के इन थपेड़ों से एशिया प्रशान्त भी अछूता नहीं रहा। इस कारण यहाँ पर सैकड़ों लोगों को अपने जान से हाथ धोना पड़ा। किसी महामारी की तरह फैली इस गर्मी से हजारों लोग रुग्ण हो गए और सैकड़ों लोग मारे गए।

समूचे विश्व के संदर्भ में देखें तो 1995 की जुलाई में मात्र एक सप्ताह की गर्मी और लू में कोई 500 लोग चल बसे। 1998 में टेक्सास में भी भीषण गर्मी पड़ी। ऊँचे तापमान ने जनजीवन के साथ ही पेड़ पौधों और फसलों पर भी कहर ढाया। मई 2000 में कैन्साससे न्यू इंग्लैंड तक एकाएक गर्म हवा के थपेड़े चलने लगे। इससे भी भारी क्षति उठानी पड़ी।

बढ़ते तापमान का आकलन करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने इण्टरगवर्नमेण्ट पैनल आन क्लाइमेट चेंज याने आइपीसी नामक वैज्ञानिक दल का गठन किया था। इसके अनुसार पिछली सदी में धरती के औसत तापमान में आधी डिग्री की वृद्धि हुई है। इसके अन्वेषण से पता चलता है कि सन् 1990 का दशक मौसम विज्ञान के इतिहास में सर्वाधिक गर्म दशक था। इसका कहना है कि सन् 2100 तक पृथ्वी के औसत तापमान में 1-4 से 5-8 डिग्री सेल्सियस तक की विनाशकारी वृद्धि हो सकती है। पिछले हिमयुग का अवसान औसत तापमान में मात्र पाँच डिग्री सेल्सियस की बढ़त के कारण हुआ था।

इससे पूर्व का हिमयुग समाप्त हुए दस हजार वर्ष बीत चुके हैं। वैज्ञानिकों ने आधुनिक तकनीकों के माध्यम से पिछले 8,50,000 वर्षों के दौरान धरती के औसत तापमान का अनुमान लगाया है। इस अवधि ने पाँच प्रमुख इण्टर ग्लेशियल दौर गुजारे जो अत्यधिक गर्म थे। अर्थात् धरती का औसत तापमान 15 से 1 डिग्री सेल्सियस के बीच था। इन गर्म अवधियों के बीच में पाँच हिमयुग भी विद्यमान थे। उस समय धरती का तापमान आज की अपेक्षा केवल तीन डिग्री सेल्सियस ही कम था। धरती का वर्तमान औसत तापमान लगभग 14 डिग्री सेल्सियस माना जाता है।

इस अभिशप्त तापमान से विश्व के समस्त हिम शिखर एवं ध्रुव प्रदेश तेजी से पिघल रहे हैं। अंटार्कटिका में बर्फ पिघलने का मौसम पिछले बीस वर्षों में तीन सप्ताह घट गया है। पूर्वी साइबेरिया की प्रसिद्ध बेकाल झील सौ वर्ष पूर्व की अपेक्षा जमने में ग्यारह दिन देरी करने लगी है। यदि इसी तरह गर्मी बढ़ती रही तो मौटाना के ग्लेशियर नेशनल पार्क के सभी 50 ग्लेशियर सन् 2060 तक विलुप्त हो जायेंगे। सन् 1972 में वेनेजुएला की पर्वत चोटियों पर छह ग्लेशियर थे परन्तु अब दो ही शेष बचे हैं। एक हजार ग्लेशियरों वाला अद्भुत अलास्का अन्य श्रेणी की अपेक्षा तेजी से गर्म हो रहा है। एक शताब्दी पूर्व विशाल कोलम्बिया ग्लेशियर इतनी तेजी से आगे बढ़ रहा था कि इसके हिमखण्ड रास्ते के पेड़ों पर गिरते थे परन्तु पिछले पाँच दशकों में यह 12 किलोमीटर से भी अधिक सिमट चुका है।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण आर्कटिक हिम सतह की मोटाई आश्चर्यजनक रूप से कम हुई है। यहाँ पर वसन्त और गर्मियों की समुद्री हिम सीमा 1950 के बाद 10-15 प्रतिशत घट चुकी है। रूस की काकेशस पर्वत माला के अधिकाँश ग्लेशियर विगत सौ वर्षों में लगभग आधे समाप्त हो चुके हैं। माउण्ट केन्या का सबसे बड़ा ग्लेशियर 92 प्रतिशत खत्म हो चुका है। इसी प्रकार माउण्ट फिलमेजरो का ग्लेशियर 1812 के बाद से 82 प्रतिशत सिकुड़ चुका है। उस समय में यह हिमक्षेत्र 121 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ था जो अब केवल 22 वर्ग किलोमीटर में सिमट कर रह गया है। पिघलने की यह गति यथावत रही तो यह 15 वर्षों में ही अपना अस्तित्व खो देगा।

प्रसिद्ध भू विज्ञानी लोन्नी थामसन के अनुसार कोरी काँलिस ग्लेशियर 4-9 मीटर प्रतिवर्ष पीछे सरक रहा है। 1998 से 2000 के बीच तो यह तीव्रता से समाप्त हुआ है। इस अवधि में यह 155 मीटर प्रतिवर्ष खत्म हो रहा था अर्थात् प्रतिदिन एक फीट से भी अधिक अवसान की यह गति 1978 से 32 गुना अधिक है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 2025 तक स्विस का आल्पस अपने हिम का 90 प्रतिशत खो देगा।

गंगा को जीवन देने वाले गोमुख ग्लेशियर पर भी संकट के बादल मण्डरा रहे हैं। संसार का तीसरा सबसे बड़ा यह ग्लेशियर 30 मीटर प्रतिवर्ष की तीव्र रफ्तार से सिकुड़ता जा रहा है। गढ़वाल विश्वविद्यालय की करेंट साइन्स नामक एक रिपोर्ट के अनुसार जब तक यह 260 वर्ग किलोमीटर तक सिमट गया है। 1936 से 96 के बीच में यह 2000 मीटर खत्म हो चुका है जो विगत 200 वर्षों में हुए अवसान के बराबर है। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया के ग्लेशियोलाजी डिवीजन के निर्देशक डॉ0 वी0पी0 वोहरा का मानना था कि 1935 से 76 तक यह 755 मीटर घट चुका है। सुविख्यात पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ0 सैयद इकबाल हुसैन और डॉ0 अरुण शास्त्री के सर्वेक्षण से पता चलता है कि गोमुख ग्लेशियर निरन्तर घट रहा है।

इस प्रकार विश्व भर के ग्लेशियरों एवं बर्फ के पिघलने से सागरों का जल स्तर लगातार उठता जा रहा है। आई पी पी सी की नवीन रिपोर्ट के अनुसार यदि सागर केवल एक मीटर ऊपर उठ गए तो मालदीव, बांग्ला देश, नील नदी का डेल्टा, फ्लोरिडा का तट और लुइसियाना का काफी बड़ा हिस्सा सदा के लिए विलीन हो जायेंगे। भारत में इसका पहला प्रभाव कच्छ पर होगा जो सदा के लिए सागर में समा सकता है और संभव है कि सुन्दर वन एवं लक्ष द्वीप भी हमेशा के लिए विश्व मानचित्र से लुप्त हो जाए।

ग्लेशियर पिघलने से धरती की जलवायु पर भी गहरा प्रभाव पड़ेगा। क्योंकि मौसम चक्र बनाए रखने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। इनके पिघलने से पहले तो इनसे जुड़ी नदियों में बाढ़ आएगी परन्तु अंत में ये नदियाँ सूख जाएंगी। इसी प्रभाव के कारण गर्मी में लबालब भरी रहने वाली झेलम जैसी नदिया गर्मी में सूखी पड़ी रहती हैं।

सागर के तापमान में बढ़ोत्तरी से अलनीनो जल्दी-जल्दी अपना रंग दिखाने लगेंगे। स्पेनी भाषा में अलनीनो का अर्थ है- ईसा का शिशु। इसकी उत्पत्ति भूमध्य रेखा के पास प्रशान्त महासागर में होती है परन्तु इसका प्रभाव प्रायः सारे संसार के मौसम पर पड़ता है। सामान्यतया भूमध्य रेखा के पास बहने वाली हवाओं की दिशा पूर्व से पश्चिम की ओर होती है। अलनीनो के दौरान इन टूडे विण्ड्स का रुख पलटकर पश्चिम से पूर्व की ओर हो जाता है। इसका मुख्य प्रभाव दक्षिण पूर्वी अफ्रीका, पश्चिमी प्रशान्त, दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया और दक्षिण एशिया के मौसम पर पड़ता है। यह प्रभाव उस देश के जलवायु के अनुरूप होता है। इस वजह से इससे प्रभावित देशों में सूखों, बाढ़ तथा अत्यधिक गर्मी एवं कड़ाके की सर्दी पड़ सकती है। इससे कहीं अति वृष्टि, कहीं अनावृष्टि भी हो सकती है।

संभवतः इसी मौसमी उलटफेर का परिणाम था कि सन् 2000 के अंतिम तीन महीनों में इंग्लैण्ड और वेल्स में प्रलयकारी बारिश हुई। इस बारिश ने ब्रिटेन के पिछले सारे रिकार्ड को ध्वस्त कर दिया। दिल्ली में इसी वर्ष जुलाई में 24 घण्टे में 16 इंच की बारिश हुई जो सन् 1947 के बाद सर्वाधिक है। इसी साल महानदी में आयी भीषण बाढ़ से कौन परिचित नहीं है? इस बाढ़ ने 60 लाख लोगों को सप्ताहों तक प्रभावित किया और करोड़ों की सम्पदा एवं फसल नष्ट कर दी। दो वर्ष पूर्व हृदय विदारक चक्रवात का प्रकोप भी इसी प्रदेश को झेलना पड़ा। इससे पूर्व विदेश की एक ओहियो नदी में मार्च 1997 में ऐसी विप्लवी बाढ़ आयी कि सैकड़ों लोग हताहत हुए और पाँच करोड़ डालर की संपत्ति बर्बाद हो गई।

अपने देश में तापमान के कारण मानसून में भारी व्यतिक्रम आने लगा है। समय से पूर्व बारिश के कारण सूखा के सामना करना पड़ रहा है। इसी साल उड़ीसा में कालाहण्डी एवं छत्तीसगढ़ का सूखा सर्वविदित है। इसी सूखे के कारण जुलाई 2000 में ग्रीस के सामोस द्वीप में भयंकर आग लग गई जिससे 20 प्रतिशत द्वीप तबाह हो गए।

इस अनोखे जलवायु संकट से पैदावार में गिरावट आ सकती है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ0 ए0 पी0 मिश्रा के अनुसार भारत में वर्ष 1990 से 2100 के दौरान चावल उत्पादन में 3 प्रतिशत एवं रबी गेहूँ की पैदावार में 55 प्रतिशत तक की भारी कमी की आशंका है। ग्लोबल वार्मिंग न केवल पैदावार को प्रभावित कर सकती है, वरन् इसकी वजह बदलती जलवायु ने तमाम तरह के खतरनाक वायरसों को पनपने की सुविधा प्रदान की है। शायद यही कारण है कि सारे संसार में डेंगू, मलेरिया, जापानी बुखार जैसे रोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। अमेरिका के उत्तरी क्षेत्र में डेंगू का प्रकोप पहले शायद ही कभी देखा गया हो परन्तु अब यह वहाँ भी पसरता जा रहा है।

इस ग्लोबल वार्मिंग का कुप्रभाव जीव जंतुओं पर भी पड़ रहा है। वर्ष 1997-98 में जब प्रशान्त महासागर का तापमान 3 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया तो साल्मन मछली की बढ़ती तादाद समाप्त हो गई। इसी प्रकार ध्रुवों पर रहने वाले भालू और वहाँ के पक्षी भी बढ़ते तापमान से पीड़ित व परेशान हैं। उनकी संख्या घटने के साथ ही उनके व्यवहार में भारी अन्तर दिखाई देने लगा है। यहाँ तक कि कई स्थानों पर सुन्दर तितलियाँ भी अपना प्राकृतिक आवास छोड़ने के लिए विवश हैं। चूँकि धरती के हर छोटे-बड़े जीवों के मध्य आपस में संवेदनशील संबंध है। ऐसे में अपने कुदरती ठिकानों के साथ जीवों का लुप्त होना पर्यावरण के किस संकट को आमंत्रण देगा? बता पाना कठिन है। परन्तु यह है बड़ा ही खतरनाक।

ग्लोबल वार्मिंग के समाधान के लिए कई अन्तर्राष्ट्रीय समझौते एवं संधियाँ भी हो चुकी हैं, परन्तु कोई सार्थक समाधान नहीं निकल पा रहा है। यह विप्लवी समस्या और भी उग्र होती जा रही है। लेकिन ऐसा नहीं इसके समस्त द्वार बन्द हो गए हों। वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग का कारण ग्रीन हाउस जैसे प्रभाव हैं जिसके अंतर्गत कार्बन डाई आक्साइड, जलवाष्प, नाइट्रस आक्साइड आदि गैसें आती हैं। पेड़ पौधे इन गैसों को सोखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। मात्र एक हेक्टेयर पर लगे जंगली पेड़ हर साल 136 टन कार्बन डाई आक्साइड अवशोषित कर सकते हैं। इस प्रकार यदि वृक्षारोपण पर बल दिया जाए तो इस संकट से निजात पाया जा सकती है।

धरती माता को बचाने के लिए हम सब धरती पुत्रों को हरीतिमा संवर्धन याने कि सुविधानुसार अपने आसपास पेड़ लगाने का संकल्प लेना चाहिए। इस दिशा में औरों को भी प्रेरित करना चाहिए जिससे पर्यावरण चेतना उत्पन्न हो। हम पर्यावरण को प्रदूषित करने से बचें एवं उसके प्रति संवेदनशील बनें। तभी धरती में पुनः स्वर्गीय वातावरण विनिर्मित हो सकेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles