जन्म दिवस विशेष : स्वामी विवेकानंदएक प्रखर योद्धा संन्यासी जो आज भी प्रेरणा का स्रोत है।

January 2002

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12 जनवरी 1863 ई. की सुबह भारत देश के युवाओं के लिए प्रेरक सुबह थी। इसी दिन स्वामी विवेकानन्द के रूप में इस महादेश के युवाओं के लिए ईश्वरीय सन्देश का अवतरण हुआ था। श्रीरामकृष्ण परमहंस ने इस दैवी अवतरण की अनुभूति अपनी समाधिस्थ चेतना में की। बाद में उन्होंने एक दिन बातचीत के प्रसंग में अपने शिष्यों से कहा था-”एक दिन देखा-मन समाधि के मार्ग से ज्योतिर्मय पथ में ऊपर उठता जा रहा था। चन्द्र, सूर्य, नक्षत्रयुक्त स्थूल जगत् का सहज ही में अतिक्रमण कर वह पहले सूक्ष्म भाव जगत् में प्रविष्ट हुआ। उस राज्य के ऊँचे स्तरों में वह जितना ही ऊँचे उठने लगा, उतना ही अनेक देवी-देवता पथ के दोनों ओर दिखाई पड़ने लगे। क्रमशः उस राज्य की अन्तिम सीमा पर वह आ पहुँचा। वहाँ देखा, एक ज्योतिर्मय परदे के द्वारा खण्ड एवं अखण्ड राज्यों का विभाग किया गया है। उस परदे को लाँघकर वह क्रमशः अखण्ड राज्य में प्रविष्ट हुआ।”

वहाँ पर मूर्त कुछ भी नहीं था। यहाँ तक कि दिव्य देहधारी देवी-देवता भी वहाँ प्रवेश करने का साहस न कर सकने के कारण बहुत दूर नीचे अपना-अपना अधिकार फैलाकर अवस्थित हैं, किन्तु दूसरे ही क्षण दिखाई पड़ा कि दिव्य ज्योतिर्घनतनु सात प्राचीन ऋषि वहाँ समाधिस्थ होकर बैठे हैं। मेरी अन्तर्चेतना ने समझ लिया कि ज्ञान और पुण्य में तथा त्याग और प्रेम में ये लोग; मनुष्य का क्या कहना, देवी-देवताओं तक से भी परे पहुँचे हुए हैं। विस्मित होकर इनके विषय में मैं सोचने लगा। इसी समय सामने देखता हूँ, अखण्ड भेदरहित ज्योतिर्मण्डल का एक अंश घनीभूत होकर एक दिव्य शिशु के रूप में परिणत हो गया।

वह देवशिशु उनमें से एक के पास जाकर अपने कोमल हाथों से आलिंगन करके अपनी अमृतमयी वाणी से उन्हें समाधि से जगाने की चेष्टा करने लगा। शिशु के कोमल स्पर्श से ऋषि समाधि से जाग्रत हुए और अधखुले नेत्रों से उस अपूर्व बालक को देखने लगे। उनके मुख पर प्रसन्नोज्ज्वल भाव देखकर ज्ञात हुआ मानो वह बालक उनका बहुत दिनों का परिचित हृदय का धन है। वह अद्भुत देवशिशु अति आनंदित हो उनसे कहने लगा-’मैं जा रहा हूँ, तुम्हें भी आना होगा।’ उसके अनुरोध पर ऋषि के कुछ न कहने पर भी उनके प्रेमपूर्ण नेत्रों से अन्तर की सम्मति प्रकट हो रही थी। इसके अनन्तर ऋषि बालक को प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखते हुए पुनः समाधिस्थ हो गए। उस समय आश्चर्यचकित होकर मैंने देखा कि उन्हीं के शरीर-मन का एक अंश उज्ज्वल ज्योति के रूप में परिणित होकर विलोम मार्ग से धराधाम में अवतीर्ण हो रहा है। नरेन्द्र को देखते ही मैं जान गया था कि यही वह है। श्रीरामकृष्ण देव के यही नरेन बाद में विश्ववंद्य ‘स्वामी विवेकानन्द’ के नाम से जगत् विख्यात हुए।

यदि हम अपनी चिन्तन शक्ति तथा दृष्टि को थोड़ी सूक्ष्मता के साथ गहन करें तो हमें सहज ही स्पष्ट हो जाएगा कि स्वामी जी की चेतना ने सदा ही भारत देश के युवाओं के हृदय में बोध के तार झंकृत किए हैं। श्रीअरविन्द, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू ये सभी अपनी युवावस्था में स्वामी जी की वैचारिक-आध्यात्मिक चेतना से प्रेरित-प्रभावित रहे हैं। स्थिति आज भी वही है। प्रत्येक आदर्शनिष्ठ युवा के प्रेरणा स्रोत और कोई नहीं, स्वामी विवेकानन्द हैं। उनका सुन्दर मुख हमें आकर्षित भी करता है और प्रेरित भी। उनका सिंह के समान साहस व निर्भयता, उनकी आँखों में ज्ञान की गहराई के साथ प्राणी मात्र के लिए करुणा का सागर लहराता हुआ दिखाई देता है।

स्वामी जी की वाणी और हृदय में अशिक्षित, पददलित व गरीब मनुष्यों के प्रति अपार प्रेम भी है और पीड़ा भी। उनके स्वरों में सिंह का गर्जन भी है और मधुर संगीत का प्रवाह भी। उनके हृदय से उत्पन्न हुए स्वरों को जो आज विविध पुस्तकों के पृष्ठों में अंकित हैं, यदि हम पढ़ें तो हमें ऐसा अनुभव होता है मानों स्वामी विवेकानन्द अपने मन की बात, अपने हृदय की पीड़ा हमारे सामने रख रहे हैं। उनकी वाणी से ऐसा लगता है कि उनके हृदय में भारत देश की युवा पीढ़ी के प्रति असीम प्रेम है और दृढ़विश्वास भी। सम्भवतः इसीलिए उनका प्रत्येक शब्द युवा पीढ़ी के लिए ध्वनित हुआ है। युवा पीढ़ी के लिए उनका स्नेह और विश्वास ही नवयुवकों के लिए प्रेरक शक्ति का कार्य करता है। नवयुवकों पर उनकी बातों का प्रभाव भी विद्युत् तरंगों के समान पड़ता है। स्वामीजी की यह उन्हीं के जीवन की भाँति बहुआयामी है।

आज जब कोई युवक अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु परिश्रम करता है और यदि वह असफल हो जाता है, तो उसका मन टूट जाता है और उसे असफलता के कारण जीवन व्यर्थ, बोझ के समान लगने लगता है। हताशा का अंधकार उसे घेर लेता है और व्यक्ति या तो आत्महत्या का निर्णय ले लेता है अथवा फिर समझौतावादी बन जाता है।

ऐसे में युवकों के लिए स्वामी विवेकानन्द आशावादी तथा संघर्ष के स्वरों में एक मधुर गीत के समान कुछ पंक्तियाँ अपने एक भाषण में इस प्रकार कहते हैं-’असफलता तो जीवन का सौंदर्य है। यदि तुम हजार बार भी असफल हो तो एक बार फिर सफल होने का प्रयत्न करो।’ युवकों के प्रति अपनी इस वाणी से घोर निराश के अंधकार में भी आशा की किरण के साथ वह उन्हें जीवन संग्राम में डटकर संघर्ष करने की ओर प्रेरित करते हैं और यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो उनका ही जीवन सौंदर्यमय है, जिनके जीवन में निरन्तर संघर्ष है।

मानव जीवन का संग्राम एक ऐसा युद्ध है, जो हथियार से नहीं जीता जा सकता। वह तो मनुष्य के भीतर छुपी शक्ति को प्रकट करके ही जीता जा सकता है। इसीलिए तो स्वामी जी सिंह गर्जन करते हुए कहते हैं कि ‘यह ध्रुव सत्य है कि शक्ति ही जीवन है और दुर्बलता ही मृत्यु है। शक्ति ही अनन्त सुख है, चिरन्तन और शाश्वत जीवन है और दुर्बलता ही मृत्यु है। दुर्बल व्यक्ति के लिए न तो इस जगत् में और न ही किसी दूसरे लोक में कोई स्थान है। दुर्बलता ही हमें सभी प्रकार की गुलामी की ओर ले जाती है। दुर्बलता ही शारीरिक व मानसिक रूप से निरन्तर तनाव का कारण है। यह दुर्बलता ही मानव की देह ही नहीं चेतना की भी मृत्यु है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि दुर्बलों एवं कायरों की आवश्यकता नहीं है। मुझे चाहिए ऐसे नवयुवक जिनके स्नायु लोहे के बने हो और माँस पेशियाँ फौलाद की बनी हो। तथा जिनकी वृत्ति लोभ और स्वार्थ की सीमाओं के बाहर हो।’

वह अपनी दिव्य वाणी से युवाओं को चेताते हैं कि ध्यान रहे जब मनुष्य के भीतर शक्ति का संचार होता है, तो अपनी सभी असफलताओं को सफलता में परिवर्तित कर लेता है। उसका शक्ति के अभाव में मृत हुआ जीवन पुनः जीवित हो जीवन के संघर्ष में उतर पड़ता है। आत्म शक्ति से भरा व्यक्ति असफलता को धूल के समान झटक कर फेंक देता है। और सिंह गर्जन कर निःस्वार्थ बन अपने जीवन को विस्तारित करता है।

जीवन के इस विस्तार प्रक्रिया में हृदय के संवेदनों की भी जरूरत पड़ती है। संवेदनहीन व्यक्ति को मनुष्य नहीं कहा जा सकता। इसलिए स्वामी जी नवयुवकों में संवेदना का भाव प्रवाह प्रवाहित करने के लिए इस प्रकार कहते हैं कि ‘बच्चो! तुम्हारे हृदय में सबके लिए दर्द हो, गरीब, मूर्ख, पददलित मनुष्यों के दुःख को तुम अनुभव करो। संवेदना से तुम्हारे हृदय का स्पन्दन बढ़ जाए, मस्तिष्क चकराने लगे, तुम्हें ऐसा प्रतीत हो कि तुम पागल तो नहीं हो रहे हो, फिर ईश्वर के चरणों में अपना हृदय खोल दो, तभी शक्ति, सहायता और अदम्य उत्साह तुम्हें मिल जाएगा। आज मैं तुम्हें भी अपने जीवन का मूलमंत्र बताता हूँ वह यह है कि प्रयत्न करते रहो, जब तुम्हें अपने चारों ओर अंधकार ही अंधकार दिखता हो तब भी मैं कहता हूँ कि प्रयत्न करते रहो। किसी भी परिस्थिति में तुम हारो मत, बस प्रयत्न करते रहो। तुम्हें तुम्हारा लक्ष्य अवश्य ही मिलेगा। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं।’

12 जनवरी 1863 ई. को जन्मी दिव्य चेतना जो देह धारण की थी, वह आज भले ही न हो, पर उनकी चेतनता आज भी उतनी प्रखर एवं तेजस्वी है। यदि हम चाहे तो आज भी हम अपने हृदय में उसे पवित्रता, प्रखरता एवं तेजस्विता के रूप में खोज सकते हैं। यह सुनिश्चित तथ्य है कि स्वामी जी के विचारों को अपनाकर आज भी उन्हें पाया जा सकता है। वह अपने विचारों के रूप में उपस्थित रहकर आज भी और अभी भी भारत देश के युवाओं को प्रेरित, परिवर्तित एवं रूपांतरित करने के लिए व्याकुल हैं।


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