माँ शारदामणि महिलाओं का अलग सत्संग चलाती थीं। उसमें अधिकाँश धार्मिक प्रकृति की और संभ्राँत घरों की महिलाएँ आती थीं।
एक महिला सत्संग में ऐसी भी आने लगी, जो वेश्या के रूप में कुख्यात थीं। इससे अन्य महिलाएँ नाक-भौं सिकोड़ने लगीं और उसे न आने देने के लिए माताजी से आग्रह करने लगी।
इस पर माताजी ने कहा, सत्संग गंगा है। वह मछली-मेढ़कों के रहने पर भी अशुद्ध हो जाए, वह गंगा कैसी? तुम लोग सत्संग की शक्ति को पहचानो और उसे गंगा के समतुल्य मानो।
आचार्य वसु ने वटु को समझाया, जैसे अग्नि में डालकर सोना शुद्ध किया जाता है, उसका मल दूर किया जाता है, उसी प्रकार तप द्वारा कायागत, मनोनत स्वभावों का शोधन किया जाता है।
वटु ने पूछा, “आचार्य प्रवर! इस दृष्टि से तो तप सूक्ष्म-साधना क्रम है, पर लोग कष्टसाध्य स्थितियों में शरीर को रखकर उसे भी तप की संज्ञा देते हैं, यह कहाँ तक ठीक है।”
आचार्य ने समाधान किया, “वत्स श्रम शक्ति का अभाव तथा आलस्य आदि भी दोष हैं।
कष्टसाध्य स्थिति में शरीर को डालकर यह दोष हटाने में मदद मिलती है। इस दृष्टि से वह भी तप है। यह उद्देश्य पूरा न हो तो उसे दुराग्रहपूर्ण प्रक्रिया ही समझना चाहिए।” आगे वे बोले, “तप का अर्थ दमन नहीं है, संचित सामर्थ्य जो तितिक्षा द्वारा अर्जित की गई है, उसका सुनियोजन है। जो इस चिंतन से तप में निरत होते हैं, वे निश्चित ही दैवी अनुदानों के अधिकारी होते हैं।”