अनिंद्य सुँदरी उब्बरी राजमहिषी बनी। उनके रूप-सौंदर्य और गुण-स्वभाव की भी ख्याति थी। कुछ समय उपराँत उब्बरी ने एक कन्या को जन्म दिया, अपनी ही जैसी चंद्रमुखी। उसकी किलकारियों ने राजमहल की शोभा-सुषमा में चार चाँद लगा दिए। भाग्यविधान पलटा। कन्या का देहावसान हो गया। माता पर वज्रपात हुआ। वह विक्षिप्त जैसी हो गई। जिस श्मशान में बालिका की अंत्येष्टि हुई थी, वह उसी में जा पहुँचती और विलाप से आकाश हिला देती। दर्शकों की आँखों से आँसू ढुलकने लगते। उब्बरी इस शोक-संताप में सूख-सूखकर काँटा हो गई। किसी को प्रबोधन का उस पर प्रभाव नहीं हो रहा था।
एक दिन तथागत उस राह से गुजरे। रुदन सुनकर ठिठक गए। विवरण जाना तो क्रंदन करती युवती के पास जा पहुँचे। उब्बरी ने सिर उठाकर देखा और अनुग्रह की याचना करने लगती। बुद्ध ने कहा, देवि। इसी श्मशान में सहस्रों के मृत शरीर भस्मीभूत हुए हैं। उनके परिजन यदि ऐसा ही क्रंदन करते, तो इस संसार में शोक के अतिरिक्त गति पर विचार करो। जो चले गए, उन्हें जाने दो। अपनी आत्मा का विचार करो, जो पुत्री से भी अधिक प्रिय होनी चाहिए। ऐसा न हो कि तुम पुत्री की तरह आत्मा को भी गँवा बैठो। उब्बरी तथागत का एक-एक शब्द हृदयंगम करती गई। उसने अंतरात्मा को पहचाना और मृत का दामन छोड़कर उस जीवंत का परिपालन आरंभ कर दिया। कुछ दिन उपराँत उब्बरी महिला बौद्ध विहार की अधिष्ठात्री बनीं, सीमित मोह का व्यापक प्रेम के रूप में परिवर्तन जो हुआ था।